धारावाहिक – 6
‘मां से नहीं मिली ?’ भूरो ने आदतन पूछा है ।
‘नहीं मिली ।’ नेहा का स्वर कड़क है । ‘तो …..?’ उस ने मुड़ कर भूरो को घूरा है ।
‘अरे, ना मिल …।’ कामिनी बीच में आई है । ‘तू चुप कर भूरो ।’ उस ने आंखें तरेरी हैं । ‘उस की मां ….मिले ना मिले …? तू ….’
भूरो को बुरा लगा है । लेकिन वह चुप है । कामिनी भी चुप है । चक्की चुप है। लेकिन नेहा के तन-मन में जैसे कोई शैतान प्रवेश कर गया हो – ऐसा लगा है – उसे ।
लगा है कि- पूर्वी विश्वास , उस की मिलने आई मां -डायन है।
नेहा धड़ाम-से बैठती है । दीवार से कमर सटा कर पैरो को बिस्तर पर तान देती है । दायें-बाये बैठी भूरो और कामिनी उस के किसी काम की नहीं हैं – वह जानती है । और वह महसूसती है कि …अचानक ही वह चक्की में नहीं अपने घर में आ बैठी है ।
अपना घर माने कि बॉम्बे की चाल – कुल डेढ़ कमरा और आगे एक छोटा आंगन – उन का था । दीवारों पर टंगे कपड़े-लत्ते …बाबा का छाता …टूटे-फटे बिस्तर और…रसोई में बिखरे पड़े – खाना पकाने के भांडे – ही उन का असबाब था । तीन बच्चे थे । वह बड़ी थी और उस के बाद- सौरभ और सीमा । पास के स्कूल में पढ़ने जाते । स्कूल टीन-शीटों का एक टपरा था । कभी मास्टर आता …तो कभी नहीं आता था । और जिस दिन नहीं आता था- उस दिन बच्चे जम कर ऊधम मचाते थे । उस की तो चांदी होती थी । मार-पीट में इक्कीस थी – वो । और …और , हां । चलते-फिरते बच्चों की जेबें टटोल कर ….वह आमदनी भी कमा लेती थी । उस के पास हमेशा ही पैसे होते थे । और जब भी मां – माने कि पूर्वी विश्वास, को पैसे की जरूरत होती थी तो वह नेहा से मांग लेती थी । उसे पैसे मिल जाते थे ।
लेकिन कभी भी पूर्वी विश्वास ने मुड़ कर नेहा से नहीं पूछा था कि …उस के पास पैसे आते कहां से थे ?
‘उसी रास्ते पर चल कर ही तो यहां तक पहुंची हूँ ।’ नेहा ने स्वयं से कहा था । ‘वही पाप है …और उसी की प्रतिष्ठा है ।’ वह तनिक हँसी थी । ‘अगर तभी टोक देती मां – पूर्वी विश्वास …कि वह ….?’ नेहा की आंखें सजल हाे आईं थीं ।
बच्चे तो अबोध होते हैं ….। उन्हें तो शरारत करने में आनंद आता है । लेकिन बड़े ….?
‘गृहस्थ में अभावों से लड़ना – नया तो नहीं ।’ नेहा फिर से दुहराती है । ‘लेकिन उन अभावों से अंधा हो कर लड़ना …?’ नेहा आज कुछ समझने की कोशिश करती है । ‘बाबा की नौकर थी । अम्बा प्राईमरी स्कूल में हैड मास्टर थे । गिनी-गँठी पगार मिलती थी । उस में किराया खर्च काट कर मां के हाथ में आता भी क्या था ? लेकिन ……’
‘जरूरतें बेशर्म होती हैं ।’ नेहा आज खुल कर कहती है । ‘और अगर इन से ठीक से न जूझा जाये- तो ये ले डूबती हैं । बस, यहीं गलती हो गई ।’ नेहा टीस आती है । ‘खुड़ैल ने यहीं पकड़ा, मुझे ।’ उसे याद हो आता है ।
‘ले लिया करो , पैसे …?’ रमेश दत्त की आवाजें आती हैं । ‘अरे, मैं कोई गैर हूँ , क्या ?’ उस की हँसी गूंज उठती है । और तभी नेहा को मां की खुली हथेली नजर आने लगती थी । खर्चे सर से ऊपर जाते थे । और तब नेहा रमेश दत्त से पैसे लेने लगी थी ।
और ….और चुपके से …नेहा को गरम-गरम बिस्तर में ले कर घुसा रमेश दत्त …घंटों लगा रहता था । उसे भी तो आनंद आने लगा था । घर में भाई-बहन भी तो खुश रहने लगे थे । बाबा भी हलका महसूस ने लगे थे । और जरूरतें भी …..
‘मेरी पहली फिल्म की …पहली हिरोइन तुम होगी , नेहा ।’ रमेश ने ऐलान किया था ।
और ….और …रमेश दत्त ने उसे बिना कोई मोल दिये – खरीद लिया था ।
‘मिलो, विक्रांत से ।’ रमेश दत्त की आवाज थी । ‘नई फसल फिल्म का हीरो ।’ उस ने बताया था ।
हम दोनों ने एक दूसरे को आंखें भर-भर कर देखा था । उन अंजान पलों में ही हमारी आंखें चार हो गईं थीं।
विक्रांत – हँसता -खेलता ….चुहल करता …मुझे खुश करने में ही लगा रहा था – उसे याद हो आता है । और फिर वही लाश बना विक्रांत ….?
‘सॉरी, बाबू ।’ नेहा की हिलकियां बंध गई हैं । ‘भूल हो गई । माफ करना ………’ नेहा के होंठ कांप रहे हैं ।
क्रमशः ……….