Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

सॉरी बाबू भाग बत्तीस

सॉरी बाबू

“गुलबदन नाम रक्खा है .. इस जागीर का, नेहा!” साहबजादा सलीम बताने लग रहा था। “जानती हो क्यों?” उसने मुस्करा कर मुझसे पूछा था।

मैं जानती तो सब थी, बाबू लेकिन मेरा स्वीकार मेरा अंतिम संस्कार बन सकता था – मैं यह भी जानती थी। यह खुड़ैल और सलीम का मुझे फसाने के लिए बिछाया जाल था।

“क्यों ..?” मैंने सलीम से ही प्रति प्रश्न पूछ लिया था।

“इसलिए कि अब से .. माने कि आज से .. इसी पल के बाद नेहा का नाम गुलबदन होगा!” सलीम ने सीधा मेरी ऑंख में देखा था। “बिकॉज .. आई लव यू नेहा!” उसने बड़ी ही गंभीर आवाज में संवाद बोला था। “मैं बिन तुम्हारे रह नहीं सकता, डार्लिंग!” उसने अपने प्रेम का इजहार किया था।

मेरी निगाहों के सामने पूरा ब्राह्माण डोल गया था बाबू!

गुलबदन और गुलिस्तां को मैंने एक साथ देख लिया था। मैं जानती थी कि खुड़ैल के गुलिस्तां में क्या-क्या चलता था! मुझे पता था कि साहबजादा सलीम को मेरा कोरा बदन चाहिये था। उसे चाहिये था – एक हिन्दू लड़की का पवित्र जिस्म! इसका कारण भी मैं जानती थी। नारी का दर्जा इनके यहां कुछ बनता ही नहीं था। जो चाहता वही उसे भोग लेता! कोई न संस्कार होते .. न कोई सरोकार होता! मात्र एक जिस्मानी रिश्ता बनता था और वो भी उन पलों के लिए जब भोग-विलास का दौर चल रहा होता था। बाकी तो ..

मैं जानती थी कि खुड़ैल ने कभी मुड़कर भी उन आजमगढ़ वाली औरतों को नहीं देखा जिन्हें वह प्रेम-प्रीत के चक्कर में फसा कर ले गया था। और अब वो उसके लिए कोई भी नहीं थीं! सलीम भी अब .. आज .. मेरा दीवाना था उन लम्हों तक जब वो मुझे पा लेगा, भोग लेगा, चूंस-चाट लेगा और फिर मेरी छूंछ को फेंक चलाएगा!

“सच मानो, नेहा!” सलीम ने मुझे छू कर कहा था। “मैंने ये जागीर अपने दोनों के लिए यहॉं सेनफ्रांसिस्को में आकर ली है ताकि हम दोनों यहॉं सुकून से रहें! जानकर हैरान रह जाओगी कि इस जागीर का मोल .. आज ..” वह रुका था। उसने फिर से मुझे छूआ था। “ये तुम्हारे नाम पर होगी नेहा!” वह मुस्कराया था।

“क्यों ..?” मैंने पूछा था। “मैं होती कौन हूँ जो ..?”

“मेरे मन की मलिका!” भावुक हो आया था सलीम। “तुम मेरे सपनों की शहजादी हो गुलबदन!” उसने अंत में कहा था।

“चाहते क्या हो?” मैंने सीधा-सीधा प्रश्न दागा था।

“आज .. आज की क्वारी रात .. अनब्याही दुल्हन के साथ .. सपनों के शाहजादा की भूमिका में मैं और दुल्हन तुम – नेहा!” वह कह रहा था। “हम दोनों बिना शर्तों के जिए – साथ-साथ! एक रात .. ये रात हम गुजारें – कुछ इस तरह कि ..” सलीम की ऑंखों में शरारत लबालब भरी थी बाबू!

मैं डर गई थी। मैं दहला गई थी। मेरी जबान तालू से जा चिपकी थी। मैं तो उसके पंजे में कैद थी। फिल्म की शूटिंग तो खत्म हो चुकी थी। अब उसका प्रमोशन चल रहा था। दीवार पर लगी बड़ी स्क्रीन पर बार-बार ‘नवाबजादे’ फिल्म के चुनिंदा दृश्य उजागर हो रहे थे। मैं देख रही थी – सरोवर में उभरा अक्स और मुझे देखता फरीद! गजब का दृश्य था बाबू! और फिर अंत में आती मेरी आवाज – ऐ लोगों ..! कितनी असरदार आवाज थी? कितनी कशिश थी उस आवाज में – मैं बता नहीं सकती बाबू!

“सुपर हिट होगी ‘नवाबज़ादे’!” सलीम बोला था। “देखना नेहा – तुम इसी गुलबदन के नाम से जानी जाओगी .. और मैं ..?”

चुप थी मैं! कुछ निर्णय न ले पा रही थी। घबराई हुई थी और मेरी सांसें भी उखड़ने लगी थीं। मैं किसी तरह भी अपनी इस कैद से भाग लेना चाहती थी। मैं न चाहती थी सलीम के चंगुल में फंस कर मैं अपनी उम्र गंवा दूँ!

“क्या सोच रही हो नेहा?” सलीम पूछ बैठा था। उसे शक था कि मैं उसके साथ नहीं थी। “देखो, डार्लिंग इसमें कोई दम नहीं कि तुम उस विक्रांत को बेकार में शिला दे रही हो। उधर देखो! देखो इस गोल्डन गेट के विशाल पुल को! किस तरह कोहरे ने इसके विशाल बदन को चुरा लिया है! डूबा तो नहीं है पुल लेकिन नजर भी नहीं आ रहा है। डूबेगा तो जरूर विक्रांत लेकिन तुम्हें समझ नहीं आ रहा है! मत डुबाओ अपने आप को उस दल-दल में नेहा .. जहॉं तुम ..”

और तब – हॉं-हॉं बाबू तभी तुम्हारे फोन की घंटी बजी थी।

“हैल्लो ..” मैंने फोन पर कहा था तो तुम्हारी आवाज चटकी थी।

“नेहा, मुझे बचा लो नेहा!” तुमने मिन्नत की थी। “फंसा लिया है मुझे ‘मॉं के आंसू’ के प्रोड्यूसर ने। केस कर रहा है! पैसे मांग रहा है! मैं .. मैं .. नेहा” तुम्हारी आवाज टूट-टूट गई थी।

“मैं .. म म .. मैं आती हूँ!” याद है जब मैंने कहा था बाबू।

“क्या हुआ नेहा ..?” सलीम सनका खा गया था।

“पूर्वी सख्त बीमार है! ओ मेरी मॉं” मैंने सलीम से झूठ बोला था। “ओ ईश्वर ..!” मैंने जोरों से परमात्मा को पुकारा था। मैं रोने लगी थी। मैंने गजब का ड्रामा खेला था। मैं बेहोश होने को थी। फिर मैंने सीधा घर जाने की जिद ठानी थी और मैं हवाई जहाज में बैठी बम्बई आ रही थी – तुम्हारे पास .. तुम्हारी मदद के लिए .. तुम्हें मुसीबत से बचाने के लिए बाबू!

ठगा सा खड़ा रह गया था साहबजादा सलीम! और मैं रास्ते भर तुम्हें याद करती सलीम की बकवास सुनती रही थी – हमारे बगल वाली जागीर गैरी द ग्रेट की है, नेहा! जानती हो – यहां सेनफ्रांसिस्को में विश्व प्रसिद्ध लोग आकर रहते हैं! यहां एक से बड़ा एक धनी-मानी व्यक्ति मौजूद है! यहां हम दोनों .. इस स्वर्ग में इस तरह रहेंगे .. जैसे ..

“मत फांस मुझे सलीम!” मैंने मन में कहा था। “मैं चली – झुठे जादूगर!” और अब हवाई जहाज में बैठी मैं हंस रही थी।

और याद है .. बाबू तुम्हें .. याद तो अवश्य होगा कि ..

बीते दिनों की याद कर नेहा हंस रही थी .. खिलक रही थी और सोच रही थी कि वक्त मुड़ेगा तो जरूर ..

“हॉं-हॉं बाबू मिलेंगे हम .. जरूर मिलेंगे ..”

सॉरी बाबू ..

क्रमशः ..

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version