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सॉरी बाबू भाग बारह

सॉरी बाबू

धारावाहिक – 12

‘सच्चे सजा काट रहे हैं , यहॉं ।’ कामिनी कह रही थी । ‘झूठे , बेईमान और हत्यारे तो कब के घरां गये ?’ कामिनी ने नेहा के तनाव पूर्ण चेहरे की ओर देख कर कहा था । ‘पुलिस ने पीसे मांगे थे तो मैंने कही थी इस के पापा से – घर बेच कर देदे पीसे । पर कहने लगा – सच की जीत होती है । इब हो गई – जीत ?’ कामिनी की ऑंखों में उलाहने थे , अफसोस था और लबालब भरे थे – आंसू ।

नेहा भी आज हिली हुई थी । डरी हुई थी – वह । बेल रिजैक्ट होने का मतलब तो था कि ….खुड़ैल ने ….या कि किसी ने भी ….?

‘पुलिस ने पैसे मांगे होंगे ?’ नेहा अनुमान लगाने लगी थी । कामिनी झूठ क्यों बोलेगी ? ‘और अगर पुलिस को पैसे न मिले तो …..?’ नेहा सोच रही थी । ‘देगा कौन पुलिस को पैसे….?’ प्रश्न आज उलटा नेहा से ही उत्तर मांग रहा था।

पैसे की खोज में नेहा जेल से उड़ी थी और घर चली आई थी ।

नेहा को याद आ रहा था – जब बाबा यदा-कदा अपने तीनों बच्चों को ले कर पूर्वी विश्वास के साथ बम्बई भ्रमण पर निकलते थे । बाबा अपने ऊंचे पैंट और खुली चौखाने की कमीज में कंधे पर छाता लटकाये कोई दिव्य पुरुष लगते थे । मॉं – बंगाली लम्बी-चौड़ी साड़ी की परतों में समा जाती और ….बच्चे ? बिना प्रेस की फ्रॉक को पहने नेहा शरमाती गरमाती चलती ही रहती । बाबा की जेब में गिनती-मिनती के पैसे होते । इसी लिये कभी बस तो कभी लाेकल और कभी-कभी पैदल चल-चला कर वो लोग सैर-सपाटे करते । चाट-चबैना भी चलता था …..लेकिन….

‘क्या कभी …मैं भी….?’ नेहा को वो दिन याद है जब उस ने बस में बैठे-बैठे नीचे कार में जाती एक सुन्दर स्त्री को एक आकर्षक पुरुष के साथ जाते देखा था । ‘नहीं, नहीं। ये मेरे लिये संभव कहॉं ?’ उस ने मन ही मन मना किया था । ‘जेब कतरा बन जाऊंगी । लोकल में खूब माल मिलेगा । फिर किसी जेब कतरे लड़के से शादी बना ठाठ से जीयेंगे । बच्चों को भी जेब कतरे …..’

‘मैं तुम्हें रानी बना दूंगा ।’ रमेश दत्त की आवाजें आती हैं – अचानक । उस ने भूखे भालू की तरह शहद के छत्ते की बजाय उस के बदन में मुंह गाढ़ दिया था । ‘मैं …मैं तुम्हें नहला दूंगा …पैसों से।’ उसी की आवाज थी । ‘ओह, नेहा ….। हाउ …स्वीट …?’ वह आनंद मग्न होता तो यही संवाद बोलता। ‘लैटस प्ले द गेम ऑफ लव, डार्लिंग ?’ उस का अनुरोध आता तो नेहा सिमिटने लगती । ‘नो हार्म , यार…?’ वह नेहा को उकसाता । ‘बर्डस ….डू …इट ।’ वह तरन्नुम में गाने लगता । ‘बीज ….डू …ईट …।’ अब उसे ऑंखों में देखता – रमेश दत्त । ‘एन्ड …एन्ड …लैटस ….डू …ईट ….?’ वह तोड़ करता और….फिर तो …..

‘रमेश दत्त नहीं देगा पुलिस को पैसे ….।’ नेहा का अंतर बोला था । ‘उस ने जो करना हे – उसे तो परमात्मा भी नहीं जानता ?’ नेहा जानती है । ‘और बाबा ……? समीर ….? सीमा …..? कोई एक पैसा तक नहीं देगा…..। वो अब एक कौड़ी भी नहीं खर्चेंगे ….उस के लिये ।’ नेहा मान लेती है । ‘मैं …मैं ही बेवकूफ निकली ……जो ……’ दाँती भिंचने लगती है , नेहा की ।

आज ….आज लगा है , नेहा को कि …वह निपट अकेली है ।

इन सूने-सूने पलों में विक्रांत ही चला आया है। कैसा सजीला-गठीला बदन है, विक्रांत का ? कैसी वैजन्ती की सी मुसकान धरी है , उस के होंठों पर ? चाल-चलगत से भी तो निरा ही पुरुषार्थी पुरुष लगता है । रमेश दत्त की तरह घिनाना नहीं है , वह । बात का धनी …चरित्रवान ….ईमानदार ….और कर्मठ पुरुष- विक्रांत एक उदाहरण-सा नेहा के सामने आ खड़ा हुआ है। उस की ऑंखों में प्रश्न ही प्रश्न हैं । लेकिन नेहा के पास उस के किसी भी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है ।

‘तुम ने तो बिना किसी शर्त के….और बिना कुछ मांगे ही …मुझे अपने खजाने की कुंजी सौंपी थी, बाबू।’ अब नेहा का अंतर जाग उठा है । ‘लेकिन मैं…. मैं अभागी ही …न जाने किस बहक में आ कर …. तुम्हारे साथ दगा खेल गई ?’ नेहा की ऑंखें सजल हाे आती हैं । ‘मैं अपना – पराया तक न पहचान सकी…?’ वो सुबकने लगी है । ‘और….और मैंने परायों के साथ मिल कर ….अपने को ही मार डाला….?’ नेहा ने गजब की सत्यता को पकड़ लिया है । ‘सॉरी , बाबू । ये विचित्र अपराध कर बैठी, मैं – पा-ग-ल …..?’

रो रही है , नेहा ।

क्रमशः –

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