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सॉरी बाबू भाग अट्ठावन

सॉरी बाबू

प्रेस कॉनफ्रेंस में अकेले नेहा को बुलाना और विक्रांत को छोड़ देना एक अजीब बात थी।

“मैंने नहीं जाना!” नेहा रूठ गई थी। “अगर वो तुम्हें नहीं बुलाते तो मैं भी ..”

नेहा डरी हुई थी। वह अकेली होगी प्रेस कॉनफ्रेंस में तो न जाने कौन कौन क्या क्या सवाल पूछेगा और न जाने कैसी फजीहत हो? बॉलीवुड में वैसे भी तो उन दोनों के नाम के ढोल बज रहे थे।

“चली जाओ!” विक्रांत की राय थी। “जो होना होगा वो तो होगा नेहा।” हंसा था विक्रांत। “नियति से न डरना – अच्छा नहीं होता!” उसने एक दार्शनिक की तरह समझाया था नेहा को। “अपने हाथ होता क्या है?” वह हंसता रहा था।

“हॉलीवुड में फिल्म करने के बाद क्या अब आप बॉलीवुड में काम नहीं करेंगी?” प्रेस का पहला प्रश्न था।

“अभी तक कुछ सोचा नहीं है!” नेहा साफ वार बचा गई थी।

“अब ये विदेशी हमारे देसी सनातन को बेच बेच कर खाएंगे!” दूसरा प्रश्न आया था। “जैसे कि गांधी को इन्होंने भुनाया, खूब कमाया और हमने तमाशा देखा?”

“निर्माताओं से पूछो!” नेहा जाल से निकल गई थी।

“इनके मुकाबले हमारी फिल्में अच्छी क्यों नहीं बनतीं?”

“ये तो डायरेक्टर बता सकते हैं – कलाकार नहीं।” नेहा ने चुटकी ली थी। “निर्माताओं और डायरेक्टरों को सजा दो – कलाकारों को नहीं। कलाकार तो बताया काम ही कर सकता है। जो किरदार करने को उसे कहा जाता है वह वही करता है। उसके बाद तो निर्णय दर्शकों के हाथ होता है।”

“जीने की राह से आपको क्या प्रेरणा मिली?” एक मास्टर प्रश्न चला आया था जिसके बारे नेहा ने कभी कुछ सोचा ही न था। नेहा घबरा गई थी। प्रेस वाले बड़े चतुर होते हैं – वह जानती थी। उसे विक्रांत याद हो आया था। “नियति से न डरना अच्छा नहीं होता!” नेहा ने तुरंत प्रेस को उत्तर पकड़ा दिया था।

एक धूम मच गई थी। नेहा के दिये उत्तर ने उन सबको निरुत्तर कर दिया था। और अब चाय पर नेहा के दिये इसी उत्तर को लेकर एक उधेड़बुन चल रही थी और लोग एक दूसरे को समझते समझाते रहे थे। नेहा प्रसन्न थी। उसे विक्रांत पर आज पहली बार एक नया प्यार आया था। उसने गर्व महसूस किया था कि विक्रांत ..

“हैल्लो नेहा!” कट एंड पेस्ट जैसा कुछ हुआ था और एकाएक नेहा के सामने खुड़ैल आ खड़ा हुआ था। नेहा घबरा गई थी। उसके पसीने छूट गये थे। “तो ये था मकसद आज की इस महफिल का?” नेहा ने मन में कहा था। “ये सारा खुड़ैल का ही खेल है।” वह तनिक होश में लौटी थी। “चल! आज तेरा भी खेल खराब करके रहूंगी!” नेहा ने भी शपथ ले ली थी।

“भाई जीने की राह की तारीफ तो करनी ही होगी!” रमेश दत्त कह रहे थे। आज वो एक आकर्षक परिधान में सजे-वजे थे। फिल्म जगत की जानी मानी हस्ती जो थे। वो पूरे फिल्म जगत पर छाए हुए थे। “लेकिन मैंने भी इस चुनौती को ओट लिया है नेहा!” दमदार आवाज में कह रहे थे रमेश दत्त। “मैंने इसका तोड़ खोजा है – कोरा मंडी!” वह तनिक से मुसकुराए थे।

“वो क्या बला है?” नेहा पूछ बैठी थी।

“बला नहीं – बहिश्त है – बहिश्त!” रमेश दत्त ने बेजोड़ लहजे में बताया था। “कोरा मंडी मीन्स अनलिमिटिड आजादी।” उसने नेहा की आंखों में घूरा था। “मान लो – एक आइलैंड है कोरा मंडी और वहां का प्राकृतिक सौंदर्य अनूठा है – बेजोड़ है! मेन लैंड से जुड़ा भी है और अलग भी है। वहां उनकी अपनी हुकूमत है! दीन दुनिया से अलग कोरा मंडी वो स्वर्ग है जहां आदमी की हर मुराद पूरी होती है। हूर होती हैं .. सुंदरियां होती हैं और विश्व सुंदरियों के साथ साथ शराब होती है, ड्रग्स होते हैं और जो चाहे सो उपलब्ध है। न पुलिस न कानून न प्रशासन न कोई सरकार – जो आपको सताए!” हंस पड़े थे रमेश दत्त। “और जब हमारी नेहा यहां नाचेगी तो हम सनातन को ढा देंगे! सारा संसार को तबला और सारंगी के स्वरों में डूब डूब जाएगा .. और .. फिर ..”

“वेश्यालय कहो न?” नेहा ने तुनक कर पूछा था। “मैं न करूंगी इस प्रकार के रोल।” वह बिगड़ गई थी। “आप लोगों को और कुछ क्यों नहीं सूझता?” नेहा का उलाहना था। “घूम फिर कर वही कोठा वही सारंगी और वही तबला?”

“दर्शक भी तो यही देखना चाहता है नेहा!” मुसकुराकर बोले थे रमेश दत्त। “वह सिनेमा देखने क्यों आता है?” रमेश दत्त ने पूछा था। “इसलिये नेहा कि उसका हारा थका जर्जर हुआ मन सिनेमा के इस एकांत में एक ऐसा सुख खोजने आता है जो समाज उसे नहीं दे रहा होता है!” रमेश दत्त एक अनजाने रहस्य को बयान करने लगे थे। “और जब मधुर संगीत नाचती थिरकती बेहद सुंदर नेहा उसे पर्दे पर दिखाई देती है तो वो भी उसका हिस्सा बन जाता है ओर फिर वह भी नाचता है, गाता है और उस अप्सरा के साथ शिरकत भी करता है ..”

“झूठ बोलते हो!” बिगड़ गई थी नेहा।

“हॉं हॉं! मैं झूठ बोलता हूँ!” स्वीकार किया था रमेश दत्त ने। “लेकिन झूठ बोलता कौन नहीं? कोई एक नाम बोलो?”

“विक्रांत!” नेहा ने तुरंत उत्तर दिया था।

“फ्रॉड ..!” रमेश दत्त भी गरजे थे। “ही इज ए बिग फ्रॉड – इन दी हिस्ट्री ऑफ सिनेमा!” उन्होंने संगीन आवाज में कहा था। “और ये तुम्हारी सनातन फिल्म भी फ्रॉड है!” रमेश दत्त ने जोरों से मुक्का मारा था टेबुल पर। प्रेस का ध्यान बंटा था तो पत्रकारों ने उन दोनों को घेर लिया था। “वेश्याओं की बात करती हो तो मुझे बताओ कि .. कि .. इन्द्र की सभा में नृत्य करती वो रति, रम्भा, उर्वशी और मेनका कौन हैं? ऋषियों का तप भंग करने के लिए वो क्या क्या करती हैं – बोलो?”

एक बारगी सभा रंगीन हो आई थी। पत्रकारों के कैमरे खुल गये थे। रमेश दत्त एकाएक प्रासंगिक हो उठे थे। नेहा चुप थी। नेहा को रमेश दत्त के दिए तर्क परास्त कर रहे थे ..

“अच्छा बुरा तो मात्र कहने भर की बातें हैं, नेहा!” तनिक सहज होते हुए अब रमेश दत्त नेहा को बहलाने लगे थे। “चाहतों के बिना तो हम सब बेकार हैं!” अब वो मुसकुरा रहे थे। “दिल धड़कता है तभी तो जीने का एहसास होता है। ओर दिल – माने कि हमारा दिल कब धड़कता है ..?” हंस रहे थे रमेश दत्त।

नेहा ने अचानक ही खुड़ैल की आंखों में सेक्स के ज्वाला मुखियों को जलते बुझते देखा था। उसे याद हो आया था – आजमगढ़! उसे याद हो आया था – खुड़ैल का स्टाइल जब वो किसी भोली भाली लड़की को जाल में फंसा लेता था और फिर उसका शिकार करता था, बांट बांट कर खाता था उसे और फिर काट काट कर सड़क पर फेंक देता था!

“उस दिन मुझे एहसास हुआ था बाबू कि खुड़ैल किसी भी कीमत पर मानने वाला न था। खुड़ैल को मैंने अभी तक कभी परास्त होते न देखा था। मैं मान गई थी कि वो हारने वाला आदमी न था लेकिन ..”

“मैं तो उसे मार देता नेहा, मैं तो उसे उसी पल खत्म कर देता। लेकिन ..”

“लेकिन ..?” नेहा पूछ रही थी। जैसे आज भी उसे खुड़ैल के मरने का इंतजार था क्योंकि आज भी उसके लिए खुड़ैल अपांग झूठा, बेईमान, बदचलन ओर देश द्रोही था।

“लेकिन मुझे शक हो गया था नेहा कि तुम अब मेरे साथ न थीं। तुम खुड़ैल के साथ थीं। मैं सब कुछ समझ गया था नेहा और इसलिए मैं ..”

“ओ बाबू!” नेहा टूट आई थी। “कितनी नीच निकली मैं। मैं .. मैं फिर से उन्हीं गंदी नालियों में जा गिरी। मैं .. मैं तुम्हारे पवित्र आदर्शों का आदर न कर पाई बाबू!”

आई एम सॉरी बाबू! दोश मेरा ही रहा! तुम तो श्रेष्ठ हो बाबू!

ओ मेरे बाबू .. आई एम वैरी सॉरी।

मेजर कृपाल वर्मा
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