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सॉरी बाबू भाग अट्ठानवे

सॉरी बाबू

अपने घरबार को यों बेहाल हुआ देख नेहा दरक गई थी।

पूर्वी विश्वास ने वही पॉपिन-पाढ की साड़ी पहनी थी जिसे वो बचपन से देखते आई थी। बाबा के कुर्ते-पायजामे भी हाल-बेहाल में थे और उनके पास वही पुराना चश्मा था और वही चार आने वाली चप्पलें थीं। समीर कोई कबाड़ इकट्ठा करने वाला लड़का लगता था जो पूरे दिन की दौड़ भाग के बाद चार आठ आने कमा बचा लेता था और वहीं किसी खोली में रात को पड़ रहता था।

कहां था उसका वो ख्वाब कि समीर की फिल्म रंगीला रिलीज होने वाली होगी और .. और वह एक सफल डायरेक्टर बन चुका होगा।

“रंगीला का क्या रहा?” नेहा ने एक सामूहिक प्रश्न दागा था।

बहुत देर तक चुप्पी डोलती रही थी घर में। तीनों में से कोई न बोला था। तीनों जैसे घबरा गए थे। रंगीला फिल्म की चर्चा चलते जैसे सदियां गुजर गई थीं। उसकी कहानी को भी दीमक चाट चुकी थी और मात्र एक नाम था – रंगीला जो उन सब की जबान पर चढ़ा था और बाकी सब तो ..

“मेरा सारा फंड लग गया और पूर्वा के गहने तक बिक गए!” हिम्मत जुटा कर बाबा ही बोले थे। “पन ये अभागी फिल्म बन कर ही न दी!” रुआंसे हो आए थे बाबा। “कभी कोई भाग जाता तो कभी डेटें ही न मिलतीं! समीर सीधा बच्चा है! सब पैसा ठग ठग कर भाग जाता है।” बाबा ने सब कुछ कह सुनाया था।

नेहा की दृष्टि घूमी थी तो सारे घरबार का निरीक्षण परीक्षण कर के लौटी थी।

न जाने कब से घर पर रंग-रोगन भी न हुआ था। सब कुछ लुटा पिटा सा लग रहा था। घर के भीतर अंधेरा घुटने टेके बैठा था। बरांडे में पूर्वी के मंदिर में दीपक जरूर जल रहा था। नेहा को लगा था कि ये घर केवल पूर्वी के साहस पर ही जिंदा था।

“कुछ नहीं कमाते हो?” नेहा ने समीर से प्रश्न पूछ लिया था।

“हां हां! कमाता क्यों नहीं हूँ!” समीर तुनका था। “मैं न कमाऊंगा तो दीदी ..” उसका कंठ भर आया था। “पोंटू के यहां काम करता हूँ। उसी से तो दाल रोटी चलती है!”

“क्या काम करते हो?”

“पुड़िया बांटता हूँ! पोंटू की फैक्टरी है न। वह माल बनाता है और मैं सप्लाई कर आता हूँ।” प्रसन्न होकर समीर बता रहा था। “दत्त साहब तो ..” उदास हो आया था समीर।

“कोई नहीं!” नेहा ने सब कुछ समझ लिया था। “अब बन जाएगी रंगीला!” उसने स्नेह से समीर का सर सहलाया था।

नेहा को एक बार फिर याद आ गया था कि वो बड़ी दीदी थी। वह समीर और सीमा की उंगली पकड़े पकड़े गली मोहल्ले में दादागीरी करती फिर रही थी। मार-धाड़ करती नेहा और गाली-गलौज पटकाती नेहा उन दोनों की रक्षा सुरक्षा में आज भी तैनात थी।

विक्रांत से उसने पलट कर दूसरी बार पैसे मांगे थे।

अभी भी उसके कानों में विक्रांत के उल्लसित स्वर गूंज रहे थे। वह उसे ही मालिक मानता था। वह उसे कभी भी न रोकता था – न टोकता था। पहली बार भी उसने मुंह मांगा पैसा उसे दे दिया था। और इस बार भी उसने खजाने की चाबी ही उसे सौंप दी थी।

और खुड़ैल? खुड़ैल ने ही समीर को बर्बाद किया था – नेहा जानती थी। विक्रांत ने सच कहा था कि रमेश दत्त उजाड़ता है .. खाता है .. गवाता है और सताता है।

“तेरी पसंद का खाना बनाया है नेहा!” पूर्वी का स्वर स्नेह में ओतप्रोत था।

“ओ मां!” नेहा ने झपट कर मां को बांहों में समेट लिया था। “यू आर ग्रेट मां!” वह कहती रही थी। “मैं .. मैं सब संभाल लूंगी अब।” नेहा ने दृढ स्वर में कहा था।

एक पल के लिए माधवी कांत का सौम्य और सुघड़ चेहरा नेहा की आंखों के सामने आ कर चला गया था।

कितना अंतर था मोहन सिंह स्टेट और बाबा के घर में!

क्यों होता है ऐसा कि गरीबी और अमीरी अलग अलग स्थानों पर अपना अपना पड़ाव डाल देती है? असमानता, अभाव और सुख दुख – ये सब क्या है?

नेहा के पास इसका कोई उत्तर न था।

डॉक्टर प्रभा को पता चला था तो मिलने चली आई थी।

दोनों सहेलियों के बीच सौहार्द के झरने बह निकले थे। बड़े दिनों के बाद जो मिल रही थीं। दोनों ने अपनी अपनी जिंदगियां बांटी थीं और हर एक जिए लमहे का जिक्र किया था।

“देख! अब शादी भी दोनों साथ साथ करेंगे।” प्रभा ने शर्त रख दी थी। “बिना मुझे पूछे मुहूर्त मत निकलवाना!” प्रभा का अनुरोध था। “खूब हुड़दंग करेंगे, यार!” वह जोरों से हंसी थी।

दोनों बरांडे में बैठी बेसुध होकर गप्पें लड़ा रही थीं। पूर्वी विश्वास उनकी खातिरदारी में व्यस्त थी। तभी घर की घंटी बजी थी। दरवाजा समीर ने खोला था।

“किससे मिलना है?” समीर ने उस अजनबी से पूछा था।

“स-समीर बाबू से! वो .. रंगीला के डायरेक्टर ..?”

“आओ .. आओ!” समीर ने गहक कर कहा था। “मैं ही समीर हूँ – रंगीला का डायरेक्टर!” उसने प्रसन्न होते हुए बताया था।

“मुझे दत्त साहब ने भेजा है!” अजनबी ने बताया था। “मैं आजमगढ़ से आया हूँ। मैं .. मैं .. रंगीला में रुस्तम का रोल करूंगा – दत्त साहब ने कहा है!” उसने रुक कर समीर का चेहरा पढ़ा था। “पैसे की चिंता न करें सर!” उसने विनम्रता पूर्वक कहा था। “मेरी मां मर गई है। मैं अकेला हूँ। घर जायदाद का अकेला वारिस हूं। सब कुछ बेच-खोच कर रंगीला में लगा दूंगा सर।” वह चुप हो गया था।

“लेकिन .. भाई?” समीर कुछ समझ नहीं पा रहा था।

“वो तो नेहा जी हैं न!” अजनबी ने पूछा था।

“हां! समीर ने हामी भरी थी। “और वो दूसरी डॉक्टर प्रभा हैं। दीदी की क्लास फैलो हैं!” समीर बताने लगा था। “इन्हीं ने तो दीदी की बीमारी में मदद की थी। बॉम्बे मेटरनिटी होम में अब सीनियर डॉक्टर हैं।” समीर बताता रहा था। “आइए बैठते हैं!” समीर ने उस अजनबी से आग्रह किया था।

“न न मैं आप लोगों के बीच दखल न दूंगा!” वह विनय पूर्वक बोला था। “मैं .. मैं लौटकर मिलता हूँ आप से!” कह कर वह चला गया था।

समीर का मन अब बल्लियों कूद रहा था। बार बार उसे दत्त साहब याद आ रहे थे। मात्र रंगीला फिल्म के पूरे होने की संभावना ने ही समीर के सामने सत रंगी चौपड़ बिछा दी थी। एक खुशी की लहर थी, एक उल्लास का पल था और एक सफलता का साम्राज्य था जिसे अब समीर उठाए उठाए घूम रहा था।

प्रभा जा रही थी। नेहा उसके गले मिली थी। पूर्वी विश्वास ने भी प्रभा को आशीर्वाद दिया था। समीर ने प्रभा के चरण स्पर्श किए थे ओर प्रभा ने उसे बहुत बहुत प्यार दिया था।

“एक बात तो है जिज्जी!” समीर से रहा न गया था तो बोला था। “आप का घर आना हमेशा ही शुभ होता है। आप बहुत लकी हैं जिज्जी।”

“क्या हुआ रे ..?”

“रंगीला के लिए ऑफर आया है।” समीर बता रहा था। “दत्त साहब ने एक आजमगढ़ का आदमी भेजा है। रुस्तम का रोल करेगा! और .. और पैसा भी ..”

“कौन था?”

“नाम तो नहीं बताया उसने।” समीर ने सकपकाते हुए कहा था।

नेहा का मिजाज एकदम बिगड़ गया था।

“बिगड़ती क्यों हो बेटी?” बाबा का आग्रह था। “दत्त साहब बड़े ही भले मानुष हैं।” बाबा कहते रहे थे। “हमारी तो खैर खुशी में शामिल रहते हैं बेचारे! तुम्हारे बारे में भी पूछते रहते हैं। मैं तो कहूंगा नेहा कि तुम दत्त साहब के यहां ही नौकरी कर लो।” बाबा ने कातर दृष्टि से नेहा को देखा था।

हैरान और परेशान थी नेहा। कितने भोले थे बाबा और कितना बेवकूफ था समीर – वह अंदाजा नहीं लगा पा रही थी। जहां जमाना चांद पर जा पहुंचा था वहीं उसका परिवार रसातल को भी पार कर गया था। और अब ..

“जिज्जी!” समीर हिम्मत जुटा कर बोला था। “आप भी थोड़ा दत्त साहब को फोन कर दें न!” वह विनती कर रहा था। “रंगीला अगर पार पा जाती है तो हम सब ..”

“हां हां! मैं फोन कर दूंगी!” नेहा ने सारे का सारा क्रोध पी लिया था। उसने सब कुछ समझ लिया था। वह समझ गई थी कि खुड़ैल उसके पैरों पर पैर रख कर पीछे पीछे चला आ रहा था। उसे सब पता था। और जो उसे पता नहीं था उसका वो पता लगा रहा था।

लेकिन .. लेकिन अपने इस भोले ओर अनाड़ी परिवार को कहां ले जाकर छुपा दे नेहा – वह समझ ही न पा रही थी।

आज पहली बार उसे विक्रांत की याद आई थी।

“सच बाबू! मैंने उस दिन ईश्वर को नहीं तुम्हें पुकारा था।” नेहा की आंखें नम थीं। “उस दिन खुड़ैल के मात्र स्मरण से मैं थर-थर कांपने लगी थी।”

लेकिन बाबू .. हिलकियां ले ले कर रोने लगी थी नेहा!

मेजर कृपाल वर्मा
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