अल्लाह ईश्वर तेरो ही नाम – सबको सम्मति दे भगवान – गांधी जी की प्रार्थना सभा में भजन बज रहा था। गांधी जी को पांच बजे प्रार्थना सभा में आना था। सभा भवन उनके अनुयाइयों से खचा-खच भरा था। सभी अल्लाह और ईश्वर के एक होने के भजन को तल्लीन हो कर गा रहे थे। एक अजीब आनंद उमड़ उमड़ कर आ रहा था।
“बकवास है!” नारायण आप्टे ने क्रोधित स्वर में कहा था। “ढोंग है!” उसकी त्यौरियां तन आई थीं।
“वहम है ये गांधी जी का कि हिन्दू मुसलमान एक हो जाएंगे और मिल कर ..”
“कभी नहीं! मुसलमान तो ईश्वर में जूते भी नहीं मारते!” शंकर ने तीखे स्वर में कहा था। “उनके कुरान में तो साफ साफ लिखा है कि जो मुसलमान नहीं है वो काफिर है। काफिर को कत्ल करना ही मुसलमान का धर्म है।” उसने जमा लोगों को आंख उठा कर देखा था। “इस बार नहीं बचेंगे हिंदू!” उसकी राय थी।
बंगाली चाय का ये रेस्टोरेंट बिड़ला भवन से ज्यादा दूर नहीं था। वहां बैठ कर सभा भवन में होते सारे क्रिया-कलाप नजर आ रहे थे। गरम गरम चाय की चुस्कियां लेते हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता और प्रचारक एक बड़े कारनामे को अंजाम देने यहां आ बैठे थे। नाथूराम गोडसे बार बार अपनी जेब में धरी सैमी-ऑटोमैटिक पिस्तोल के बदन को सहला रहा था। बार बार उसकी मुट्ठी कस आती थी और धाएं धाएं की आवाजें उसके कान सुनने लगते थे। लेकिन ..
“अंजाम तो अच्छा नहीं होगा!” गोपाल गोडसे ने आहिस्ता से कहा था। “कयामत तो टूटेगी हमारे ऊपर!” उसका अनुमान था। “गांधी जी के मरने के बाद तो ..”
“देश तो बच जाएगा!” मदन लाल ने कहा था। “वरना तो हिन्दू राष्ट्र का सपना हमेशा हमेशा के लिए मिट जाएगा!”
“फिर से बंट जाएगा भारत! ईसाई और मुसलमान मिल कर खाएंगे कमाएंगे! कुछ दलाली सिक्खों को भी दे देंगे और ..” दिगंबर ने लंबी उच्छवास छोड़ी थी। “आज नहीं तो कल भी नहीं!” उसने नारा जैसा दिया था।
शिखर और शिखा ने कई बार आंखें मिलाई थीं। शिखा तो बहुत ही डरी हुई थी। होने वाले गोली कांड की संभावना उसका कलेजा काटे दे रही थी। लेकिन शिखर संयत था। उसका मन बन गया था कि गांधी जी को मार ही दिया जाए! क्योंकि गांधी जी अब अपने नहीं रहे थे और शायद वो कभी अपने थे ही नहीं!
“पहरा है चारों ओर!” विष्णु करकरे ने सूचना दी थी। “अगर पकड़े गये तो?” उसका शक था।
दिल्ली में ठंड खूब पड़ रही थी। उन सब ने अलमान, चादरें और शॉल ओढ़े हुए थे। गोडसे ने भी एक भारी चादर बदन से लपेटी हुई थी। उसमें वह आसानी से पिस्तौल निकाल सकता था और फायर कर सकता था। लेकिन पहले ही पकड़ा गया तो?
“शिखा के साथ जाओ!” शिखर ने युक्ति बताई थी। “दोनों आपस में बतियाते हुए जाना। गार्ड को शक ही न होगा और वहां प्रार्थना सभा में भी शिखा ..”
शिखा कांप कांप उठी थी।
“सीक्योरिटी वाले तो चारों ओर घूमते दिखाई दे रहे हैं!” नारायण आप्टे ने फिर से कहा था। “निकल भागना तो संभव न होगा!” वह कह रहा था।
“भाग कौन रहा है?” गोडसे ने हंस कर पूछा था। “ये तो बलिदान देने वाली बात है भाई जी! कोई दुश्मन तो हैं नहीं गांधी जी! परम आदरणीय पुरुष हैं! हमारे तो पिता समान ही हैं! ये तो हमारी मजबूरी है कि हमें उनकी बलि देनी पड़ रही है – मातृ भूमि की रक्षा के लिए। मैंने तो सरेआम स्वीकार करना है कि मैं ही उनका कातिल हूँ।”
सब चुप थे। सब गोडसे को ही देखे जा रहे थे। वो शायद दूसरा ही जिद्दी भगत सिंह था जो एक बार फिर धूम-धड़ाका करने जा रहा था। इसने भी शायद एक नई मांग को उजागर करना था – एक नई राह दिखानी थी – हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह।
“समय तो होने वाला है!” शंकर ने घड़ी देखी थी। “पांच तो बजने ही वाले हैं!”
“हमें चल पड़ना चाहिये!” गोडसे ने शिखा की ओर देखा था। “गांधी जी समय के बहुत पाबंद हैं। वह कभी लेट नहीं होते!” गोडसे बता रहा था।
शिखा की पिंडलियां कांप उठी थीं।
लेकिन गोडसे उठ कर खड़ा हो गया था। सब चाय पी चुके थे। अब तो उनका विछोह ही होना था। गोडसे तो अब शायद ही लौटेगा – सब जानते थे। लेकिन किसी ने भी उठ कर उसे न रोका था न टोका था। वह तो जैसे किसी पुण्य कार्य करने हेतु विदा ले रहा था। उसे तो भारत को गारत होने से बचाना था! उसे तो ..
“आओ चलें!” गोडसे ने शिखा से आग्रह किया था।
शिखा ने एक बार शिखर को देखा था। शिखर हंस गया था।
गांधी जी का निवास स्थान बिड़ला भवन एक अलौकिक और दिव्य न्यायालय बना हुआ था! हिन्दू और मुसलमान दोनों ही वहां पहुंच रहे थे और उनके साथ हुए जोर-जुल्म का बखान कर उनसे न्याय की भीख मांग रहे थे। सब जानते थे कि गांधी जी के दिए आदेशों को नेहरू जी मानते थे और सरकार तुरंत ही एक्शन में आ जाती थी।
“बा ..पू ..! बा..पू मेरी अर्ज सुन लो बापू!” विधवा हुई प्रभावती पाकिस्तान से किसी तरह बच कर हिन्दुस्तान भाग आई थी और अब डकरा डकरा कर गांधी जी को बताना चाहती थी कि किस तरह का जुल्म ढाया था जालिम मुसलमानों ने और किस तरह उसकी आंखों के सामने क्या क्या नहीं किया था। “नंगा करके मेरी बेटी को मेरी आंखों के सामने जालिमों ने ..” सुबकने लगी थी प्रभावती। “कैसे बताऊं ..? कहे न कोई गांधी जी से मेरी भी अरज सुन लें भैया!” उसने दरवाजा रोक के खड़े गांधी जी के सेवक से प्रार्थना की थी।
“जरूरी लोगों से बात कर रहे हैं मइया!” सेवक का उत्तर था।
गांधी जी के प्रार्थना सभा में जाने का वक्त हो रहा था लेकिन उनके पास मुस्लिम डैलीगेशन ले कर पहुंचे हकीम अजमल खां गांधी जी से एक वायदा लेने के लिए अड़े हुए थे।
घटना थी कुतुबुद्दीन बक्खतियार काकी की दरगाह पर हुए हिन्दुओं के हमले की। ये घटना 12 जनवरी 1948 को हुई थी और हिन्दुओं ने दरगाह को भारी क्षति पहुंचाई थी। 13 जनवरी 1948 को ही गांधी जी ने 10.30 बजे उपवास रखने की घोषणा कर दी थी और जब तक 18 जनवरी 1948 को उन्हें आश्वस्त नहीं किया गया था उन्होंने उपवास नहीं तोड़ा था। फिर 27 जनवरी 1948 को वो स्वयं महरौली गये थे और कुतुबुद्दीन बक्खतियार काकी की दरगाह पर सजदा किया था और हुई तोड़-फोड़ का निरीक्षण भी किया था।
और उसी दिन युसुफ सराए में मुसलमानों का जमघट जुड़ा था और गांधी जी से सब ने अपने अपने दुख कहे थे। गांधी जी का हिन्दुओं के प्रति रोष उमड़ा था और उन्होंने सरदार पटेल को बाद में बुला कर बहुत फटकारा था और उनपर हिन्दू मुसलमानों को लेकर पक्षपात करने के आरोप भी मढ़ दिए थे!
“किसी भी मुसलमान को डर कर हिन्दुस्तान छोड़कर नहीं भागना है!” गांधी जी ने ऐलान किया था। “हर मुसलमान की हिन्दुस्तान हिफाजत करेगा!” उनका वायदा था।
“खां साहब!” गांधी जी बड़े ही विनम्र स्वर में बोले थे। “प्रार्थना सभा में जाने का समय हो गया है!” उन्होंने घड़ी देखते हुए कहा था। “अगर इजाजत दें तो ..?” उन्होंने अनुरोध किया था। “क्यों न आप लोग भी प्रार्थना में शामिल हो जाएं?” गांधी जी ने एक सुझाव उनके सामने रक्खा था।
सारी मुसलमान जमात ने एक दूसरे को देखा था। आंखों ही आंखों में प्रार्थना सभा में न जाने की राय तय हो गई थी। उन निगाहों में घोर तिरस्कार था उस अल्लाह ईश्वर तेरे ही नाम भजन का और उस प्रार्थना का जो गांधी जी व्यर्थ में ही करते रहते थे।
“हम पंडित जी के लिए चिट्ठी बना कर लाए हैं बापू!” अजमल खां के छोटे भाई सहमत खां बोले थे। “आप इस चिट्ठी पर लिख दें पंडित जी के लिए – बस!” उनका आग्रह था।
गांधी जी ने घड़ी देखी थी। पांच बजकर बारह मिनट हो चुके थे।
“लाइये!” गांधी जी ने उनकी बात मान ली थी। “मैं जवाहर को लिख देता हूँ कि मजार की मरम्मत फौरन हो ओर जरूरत पड़े तो ..”
और जब बेहद जल्दी में गांधी जी कमरे से बाहर निकले थे तो रोती बिसूरती प्रभावती टूट कर उनके पैरों में आ गिरी थी। बा..पू .. वह डकराने लगी थी। मैं लुट गई बापू – वह कह रही थी। लेकिन सेवकों ने विधवा प्रभावती को उठा कर बापू के जाने के रास्ते से अलग कर दिया था। जाने का समय ऊपर हो गया था और अब बापू किसी भी कीमत पर रुकना न चाहते थे।
न जाने क्यों उन्होंने विधवा प्रभावती की पुकार को सुना ही न था और लंबी लंबी डग भरते 78 साल के बापू प्रार्थना सभा की ओर दौड़े चले जा रहे थे। उनके साथ उनके सेवक और अनुयाई भी दौड़ रहे थे।
“पांच बज कर सत्रह मिनट हो गये शिखा!” गोडसे ने घड़ी देखी थी।
“वो आ रहे बापू!” शिखा ने चहक कर बताया था।
वो दोनों आपस में बतियाते गपियाते दरवाजे को पार कर गये थे और पहरे पर तैनात खड़े सैनिक ने उन्हें न रोका था न टोका था।