“तेरा मेरा रैन बसेरा” की कवितायेँ दर्शन, धर्म, अध्यात्म और नैतिकता के मापदंडों को लिए कुछ सूफियाने अंदाज में कहना चाहती है. सभी जानते हैं झूंठ बोलना पाप है, अन्याय करना गलत है, अत्याचार अधर्म की पताका लिए घूमता है फिर हम सब वो करते हैं क्यूंकि उसे करना हमने जरुरी मान लिया है, चाहे मेरा हो या तेरा या हम सबका रैन बसेरा इसी के आसपास अपना मुकाम बनता है. कुछ खुले आसमान के निचे की धरा को, कुछ खपरैली झोंपड़ी को, कुछ पर्ण कुटीर को, कुछ कच्चे मकानों को, कुछ पथरी इमारतों को, कुछ महलों को ही अपना सब कुछ मान गए हैं और उसको ही अपना ही सबकुछ जान गए हैं. उसी की साधन में लगी आराधना उसी की प्रार्थना और याचना में ही जीवन गुजार रही है, युग-युगान्तरों से!