नरेंद्र परास्त भाव से कुर्सी पर बैठी जज महिला को देखता है. सुलभा को कुर्सी पर बैठा पा … वह ऑंखें झिपझिपाता है. दृष्टि को ठीक-ठाक कर दृश्य को सही-सही देखने का प्रयत्न करता है. सुलभा का चेहरा जरा भी नहीं हिलता तो .. उसे आँखों पर विस्वास करना पड़ता है. लेकिन बुद्धि .. विवेक और उस का चेतन हुआ मन अब भी सामने खड़ी सत्यता को मानने के लिए तैयार नहीं है. इस तरह के आश्चर्यों में नरेंद्र का कभी से विस्वास नहीं है.
बेहद लम्बे पलों तक नरेंद्र को घूरती सुलभा चंद सूचनाएं समेटती है. नरेंद्र बहुत कमजोर हो गया है .. उस का रंग भी अब सांवला सा हो गया है … गाल बैठ गए हैं .. और बालों का भी तो बुरा ही हाल है! उस का वह राजकुमारों सा सौष्ठव .. अब ना जाने कहाँ गम हो गया है ..? भ्रम भरती नरेंद्र की उस मुक्त हंसी का क्या हुआ ..? उस के चेहरे पर धरे वो मातमी भाव उसे कितने बुरे लग रहे हैं!
हारे थके यात्री की तरह सर पर धरी गृहस्त की गठरी को जमीं पर पटक अब वह .. लता के साथ एक कदम भी चलने से नाट गया है! वह अब एक विद्रोही की भूमिका में आया – सलीम है!