“बच्चा पैदा होना ही तो … पुरुष और नारी के संबंधों की पूर्णता का प्रतीक होता है .. प्रताप!” मेने बहुत ही विनम्र स्वर में कहा था. “कौन से संबंधों की बात कर रही हो ..?” प्रताप ने घुर्रा कर पूछा था.
“जो हमारे बीच अनजाने में स्थापित हो गए हैं .. प्रताप! ये हमारी आत्माओं और … आकान्शाओं के सम्मलित प्रतिमानों की तरह हैं … और अब तो फलीभूत होने को भी हैं!” मैने तनिक मुस्कुराने का प्रयत्न किया था. “इस में हर्ज ही क्या है … जो तुम ….”
“हर्ज है ..!” प्रताप का स्वर फिर कुलिश-सा कठोर लगा था – मुझे. “मेरे बड़े-बड़े बच्चे हैं … और एक सीधी-साधी पत्नी है …! वह मेरी देवता सामान पूजा करती है …” प्रताप ने पहली बार ही इस सत्य को मेरे बदन पर कोड़े की तरह इस्तेमाल किया था …
अवाक् मै … प्रताप का चेहरा ही निरखती रही थी … मेरे सपनो का राजकुमार … मेरा ही आकांक्षित अभीष्ट और … प्राणाधार बना प्रताप … ना जाने क्यूँ एक ही लम्हे में … असत्य और मिथ्या-मानव लगा था. मुझे लगा था – जैसे प्रताप में एक अपूर्व छल है जो … उस के अन्दर के हैवान को … हमेशां देवता-तुल्य संज्ञाओं में पिरो कर … उस के शिकार के सामने पेश करता है. अब तक तो में उसे अपना सर्वस्व मानती रही हूँ … और मुझसे भी पहले .. उसकी पत्नी उस देवता मानती आ रही है … जब की वह है तो कोरा पिशाच!