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अंधेरों के प्रेत

‘हम आज भी अंधे है..। आँखों से नहीं..। जूतों के छेदों से देखते हैं’ – मेजर कृपाल वर्मा

जातिवाद एक अंधेरा है। ये अंधेरा तब तक कायम है जब तक हर एक आदमी अपनी नींद से ना उठ जाए। दलित, हमारे समाज के एक ऐसे हिस्से है जिन्हे ज़िंदगी जीने पर खुद का अधिकार लेने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।

छुआछूत और उच्च नीच जिस भी समाज में हो, वो समाज कभी भी सफलता की ओर नहीं बढ़ सकता। मेजर कृपाल वर्मा के इस उपन्यास में राजी, जो की मुख्य किरदार है, बचपन से ही इन सवालों में उलझी रहती है कि क्यों जाती को लेकर अभी तक भेदभाव होता है।

उसकी ज़िंदगी इन्ही सवालों से शुरू होकर एक उम्मीद में तब्दील हो जाती हैं। उसका सपना बन जाता है, जातिवाद के दानव को हराना और इस जहर को हमारे समाज से निकाल देना। जवाबों को ढूंढते हुए वो कई राक्षसों से मिलती है जो उसे रात में नींद से दूर रखते हैं।

इस उपन्यास में, पहाड़ों की वादियों में, राजी और उसके प्यार पराक्रम की कहानी का ताना – बाना हैं। पराक्रम राजी की प्रेरणा का सोत्र बनता है जवाबों को ढूँढने में। ये कहानी आज भी हमारे समाज का आईना बनी हुई है। राजी डरते हुए, तो कभी निडर होकर, कभी कुछ ना महसूस कर, तो कभी रोकर इस अंधेरे को काटते हुए आगे बढ़ती है।

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