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Parchhaiyan

पारुल का सौदा हो रहा था !!

अकेला बैठा संभव खुली खिड़की से सूने आसमान को निहार रहा है !

बुर्ज खलीफा के अपने ऑफिस में बैठा वह अपनी सामर्थ को कूत रहा है . दरसल वो अकेला नहीं है . आज तो उस के इशारों पर दुनियां नांच उठती है ! आज उस के मात्र इशारे पर इधर का उधर होने में वक्त नहीं लगता . अचानक वह मोद मानाने के अंदाज में एक बटन दबाता है . ‘यश, बॉस !’ की एक धार दार आवाज आती है ! ‘कहें क्या करना होगा ….?’ वह पहाड़ जितना आदमी हँसते हुए पूछता है . इस का नाम जिम्मी है . बानेबंद चोर ,हरामी और ……हंगामेबाज़ !

“क्या कर रहे हो ….?”

“मर्डर ….!” जिम्मी साफ़ बताता है. “पुलिस का दिया टारगेट है …पोलिटिकल …….”

“सरकार गिरानी है …?”

“हाँ !” जिम्मी हांमी भरता है . “और …..” वह पूरा प्लान बताता है . पर संभव उसे नहीं सुनता .

अब संभव का मन है कि मौनिका से बातें करे ! उस से बातें करने को कभी-कभी मन कर आता है . बड़ी ही जीवट वाली औरत है ! न जाने क्या कुछ नया कर रही होगी …?

“मौनिका ! शेअर्स ट्रान्सफर हो गए …?” संभव ने पूछा है .

“कहाँ, सर !” मौनिका की निराश आवाज़ आती है . “बइमान है , ये अरुण गाबदी ! सब पहले ही बेच बैठा है . लेकिन आप फिकर मत करना …..! मैंने भी इस की खाल खींच कर ….अगर …..”

संभव ने फोन काट दिया है .

दुनियां बईमानों से लावालव भरी है . शरीफ आदमी तो ढूंढें नहीं मिलता ! और अगर तलाश भी किया जाए तो ….? हर बार संभव अपने उसी संगम पर आ खड़ा होता है ! पारुल से हुआ वो प्रथम-प्रेम ….और उस की बार-बार की आवृति ही उस के पास शेष है ! इसे ही वो बार-बार बुला लेता है ….बतिया लेता है ….अपने विगत से …

कमाल ही तो था कि …वो …संभव अपनी पारुल को बिकने से रोक नहीं पाया था ! नीलाम हो कर रही – पारुल !! क्या बिगाड़ लेता वह -सैकिया का ….? क्या वित् था – उस का …? एक अनाडी -अल्हड -सा  कालेज का छोकरा ही तो था – वह ? उसे तो प्रेम की परिभाषा भी बाद में समझ आई . तब तक …पारुल ….

लुटी-पिटी  वो शाम ….न जाने कैसे …संभव के सामने आ खड़ी होती है !

पारुल का सौदा हो रहा था ! वह दौड़-भाग में जुटा था ! कैसे भी …कहीं से भी …वह चाहता रहा था कि धन जुटा ले …और पारुल की बंद छुड़ा ले ! दो दिन का भूखा-प्यासा वह केशव के ढाबे पर पहुंचा था . ये उन के मिलन स्थल का पहला पड़ाव था . केशव – जो एक आँख से काना था …और जिस की बीबी को उस का नौकर ले कर भाग गया था , अब अपने धंधे को खूब अच्छी तरह से चला रहा था . उस ने उस दिन केशव को याचक निगाहों से निहारा था .

“भूखा है ….?” केशव ने तुरंत पूछा था .

“हाँ …!” संभव ने भी स्वीकार लिया था.

“खा , खाना …! आ …आ ..!” केशव ने उसे दुलार से बिठाया था. “ले ! रच के खा …!” उस ने अपने हाथों खाना परोसा था …और बड़े ही स्नेह के साथ खिलाया था .

संभव ने आभार चुकाने के लिए केशव की आँखों में देखा था . वह हंसा था . शाम जा चुकी थी . नीम अँधेरा बाहर घिर आया था . रात का चेहरा आसमान पर उभर आया था . केशव का चेहरा किसी गहरे लालच में डूबा था . उस की कानी आँख फड़कने लगी थी. वह संभव के बहुत निकट आ गया था .

“तू ….आयेंगा ….या छोकरी को लाएंग ….?” केशव ने प्रश्न किया था .

प्रश्न को सुन कर संभव सन्न रह गया था ! उसे अहसास हुआ था कि वो ….गलत आदमी का दिया निवाला निगल गया था ! वह जानता तो था …कि केशव अव्वल नंबर का कमीना था …..पर आज तो वह उस के चंगुल में फँस ही गया था ! उसे तो संभव और पारुल दोनों ही पसंद थे ?

“छोकरी …….!” संभव की जुबां लड़खड़ा रही थी .

“हूँ …..! खूब …..बहुत खूब …!!” केशव की आँख जोरों से फडकी थी . “ले …! ले ….नोट ले …..!” उस ने संभव की मुठ्ठियाँ नोटों से भर दीं थीं . “और भी दूंगा ! उसे ले …आ …! फिर तो मैं तुझे …….”

कैसा कमाल था ? सभी को पारुल ही चाहिए थी ….? हर कीमत पर चाहिए थी ….और एक वही यतीम था जो ….पारुल की खातिर एक पैसा तक खर्च नहीं कर सकता था …!

संभव की मुठ्ठियाँ भिंची थीं ! नोटों से दोनों मुठ्ठियाँ खाचा-खच भरीं थीं . यह उस की पहली ही आमदनी थी . इस के पहले तो उस ने इतने नोट कभी छू कर भी नहीं देखे थे !

“जल्दी लौटना …..!” केशव कह रहा था .

लेकिन संभव ने तो उसे मुड़ कर देखा तक नहीं था ! वह चल पड़ा था . नोटों को बिना गिने ही वह अपनी मंजिल की तलाश में भाग लिया था . रात थी …..दिन था ….फिर रात थी …..और फिर दिन था ….वह वक्त का ज्ञान ही भूल गया था ! कलकत्ता आ कर जब उस ने काम तलाशा तो ….

“छोकरी …लाएगा …?” पहला ही प्रश्न सामने आया था .

“ओह,गॉड !!” उस ने माथा पीटा था . “ये ….मेरी किसमत …..?”

न आज अलग है ….न कल अलग थी  …! पर आज वह …अपना बॉस है …! चाहे तो …..!!

“चाहे तो ….क्या …….?”

“जलजला ला दे ..! वक्त ने वक्त को हिलाने की ताकत दे दी है ….चाबी दे दी है …, उसे ! आज वह दुनियां के पेट में आ बैठा है . उस के पास अनेकानेक ‘राज’ हैं ….’रहिश्य’ हैं …! उस के पास ‘क्लाइंट हैं ….एक से आला एक ! कोई मंत्री है …तो कोई प्रधान मंत्री ! कोई व्यापारियों का बे-ताज बादशाह है ….तो कोई …जुआरियों का सरताज !! कोई पुलिस का आला कमान अफसर है ….तो कोई …अभिनेता है ….तो राजा है …तो कोई साधू -सन्यासी है ….! हैं सब के सब मनुष्य ….धूर्त …बइमान …चरित्रहीन …! माल भी इन्हीं के पास है ! कमाने के आंकड़े भी इन्हीं को याद हैं …! दुनियां-जहां का धन-संपत्ति समेट कर बैठे हैं – बईमान ! और ….और ….

“और क्या ….?”

“और …कलकत्ता ….नहीं,नहीं …! केशव का ढाबा ….जहाँ पारुल के साथ वह …पत्ते चाटा करता था ….! वह स्वाद संसार में और कहाँ है …? सब का सब बे-स्वाद का सौदा है . लो तो लो ….वरना छोड़ दो …! पैसे का खेल …कितना निर्गंध …बे-रहम ….और बे-कार है …? आदमी को आदमी  की ….बू तक नहीं सुहाती …! सब धन-माल के ही ग्राहक हैं . …आदर्शों के नहीं !

सब ने सब तालों में बंद कर लिया है ….अपने नाम लिख लिया है ….बैंकों में जामा कर दिया है ….! लेकिन संभव को लगता है ….जैसे सब का सब खुला ही पड़ा है …चौड़े में …! विचित्र बात है …!! कौन कहेगा कि वो ….अगम्य है ….अछूता है ….बे-दाग है …और बे-परवाह है ?

“कुछ न कुछ तो हर किसी को चाहिए …, हजूर !”

“हाँ,हाँ ! कीमत तो देनी ही पड़ेगी ….!!”

संभव एक विरसता से भर आता है . वह सामने ठहरे विश्व को पीछे से देखना नहीं चाहता ! वह डरता है ….कि ..कहीं उस की आँखें अंधी न हो जाएं ….!

“संभव ….?” अचानक एक आवाज़ गूंजती है . संभव उछल पड़ा है . आवाज़ तो पहचानी हुई है ….लेकिन …उस आवाज़ का यों बे-खटके चले आना ….संभव को दहला गया है ! “ये पुलिस वाले …मुझे तंग कर रहे है … ! मानते ही नहीं …कि राजन ने ….हुगली में आत्महत्या करने के लिए छलांग नहीं लगाईं ….! वो तो – यों ही ….मछलियाँ पकड़ने ….”

“पारुल की परछाईं को पकड़ना – कहो न ….?” संभव अब संभल गया है . “आप फिकर न करें , दीदी !’ वह संभल कर बोला है . “मैं सब संभाल लूँगा …!” उस ने वायदा किया है .

“कब आ रहे हो ….?” सावित्री ने पूछा है .

“जल्दी लौटूंगा !” संभव ने गोल-मोल उत्तर दिया .

एक पल के लिए संभव का सोच ठहर जाता है ! सावित्री एक बे-हद भली औरत है – वह सोचता है . गंगा-सी पवित्र और …परमात्मा जितनी सामर्थवान …! इस औरत को पुलिस नहीं पहचानेगी …न इसे जानेगी ….न इस की बात मानेगी …! हरगिज़ नहीं …!! लेकिन ….

“हैरी …?” संभव ने कलकत्ता फोन मिला लिया है .

“यस, बौस …!”

“क्यों तंग कर रहे हो , सावित्री दीदी को ….?” संभव क्रोध में कह रहा है . “कितनी बार कहा है कि ….”

“जा के …सॉरी बोल देता हूँ , उन को !”

“ठीक है !” कह कर संभव ने फोन काट दिया है .

मात्र सावित्री दीदी के स्मरण से ही संभव की बंद-सी छुट जाती है . अच्छे-अच्छे उदात्त भाव और भावनाएं उस के पास आ कर बैठ जाते हैं . न जाने कैसे एक विपुल जल-राशि उस की आँखों के सामने आ कर ठहर जाती है ! लगता है – ब्रह्मपुत्र और मानस का संगम है …नहीं,नहीं …..ये तो …गंगा -जमुना का मिलन-स्थल है …जहाँ संसार के सारे धाम आ कर पवित्र हो जाते हैं ! यहाँ मनुष्य को मनुष्यता का ज्ञान होता है …यहाँ मुक्ति मिलती है ….और आदमी की आत्मा भाव-बंधन से छूट जाती है !!

“लेकिन राजन तो गन्दी नाली का कीड़ा है ….? वह गंगा में डूब कर नहीं मरेगा …!” संभव ने स्वयं से संवाद बोला है . “वह आत्महत्या क्यों करेगा …? राजन के पास जितना धन-माल है …जितनी सौहरत और नाम है …उतना तो शायद ही किसी के पास हो …? विश्व के बड़े-बड़े व्यापारियों में से एक है , ये आदमी ! क्यों मरेगा ….?”

“और …पारुल ….?” अजनवी-सा एक प्रश्न संभव के सामने आ खड़ा होता है . संभव प्रश्न को पा कर चौंकता नहीं , हँसता है .

“पारुल महारानी है …राज माता है ….भाग्य विधाता है ….!” संभव बड़े ही चाव से बोलने लगता है . ‘आज पारुल सातवें आसमान पर विराजमान है …! काम-कोटि का वैभव उस के आस-पास है . वह अब चाहती है कि पूरे विश्व को अपनी हथेली पर समेट कर बिठा ले ! उस का अब इरादा है कि …”

“कब से फोन नहीं आया , पारुल का ….?’

“शादियों से ….”

“पारुल एक परछाईं का नाम है ….”

“है …?”

“और सावित्री …?’

“एक अच्छी-सच्ची औरत है ….! मेरी तरह वह भी तो चोट खा गई है !” हंसा है , संभव . “पवित्र है … श्रेष्ठ है ! जहाँ मैं हूँ …वह भी वही है …!!’

संभव कलकत्ता आ कर सावित्री के पास ही ठहरेगा – यह तय हो जाता है !!

……………….

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

 

 

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