
जंग जारी रहे !
उपन्यास अंश :-
पारुल के पैरों में पंख लगे थे !
वह काम-कोटि के ऊपर जैसे उड़-उड़ कर होती तैयारिओं को देख रही थी . दशहरे के उत्सव का जूनून लोगों के मन-प्राण पर छ-सा गया था . राजा और प्रजा का एक नया समीकरण सामने था . पारुल चाहती थी की उस के राज्य में ‘राम-राज्य’ से भी आगे का कुछ हो ! ऐसा कुछ जिसे इतिहास याद करे !! प्रजा -पालक शाशक बनने की पारुल की उमंग उफन-उफन कर महासागरों को सींच रही थी !
“शाही फरमान …जो आप ने दरबार में पढ़ना है …” मही लाल ने लाल रंग का एक स्वर्ण -जटित फोल्डर पारुल को थमाया था . “एक नज़र देख लें …तो मैं ……!” वह विनम्र स्वर में आग्रह कर रहा था .
पारुल पढ़ रही थी – नामोली के युद्ध की वीर गाथाएं …हमें हर दशहरे पर एक सन्देश देती हैं …कि हम एक ऐसे राज-वंश से सरोकार रखते हैं …जिसे बलिदान देना आता है …जिसे दुश्मन कभी युद्ध में परास्त नहीं कर सकते …जिसे …..
“अच्छा लिखा है !” पारुल ने प्रसन्न हो कर मही लाल को घूरा था . “धन तो ….?”
“पूरा-पूरा मिल गया …!” खुश हो कर मही लाल ने कहा था . “अब की बार का दशहरा तो एक याददाश्त बन कर रह जाएगा ….! काम-कोटि हमारा कल का स्वप्न है !! आप जैसी …..”
अपनी प्रशंशा मही लाल से सुन पारुल का मन-प्राण पपीहे-सा पुकारने लगा था !!
देर रात तक पारुल काम से जूझती रही थी . दरबार में महारानी की सज्जा में उपस्थित होने के लिए उस ने बारीक से बारीक निरीक्षण -परीक्षण किये थे . वह चाहती थी कि जब लोग उसे महारानी के रूप में देखें तो …दंग रह जाएं !!
बिस्तर पर पड़ते ही उसे गहरी नींद ने दबोच लिया था !
फिर न जाने कैसे वह जग रही थी ! वह देख रही थी कि प्राची के नभ पर आग का एक लाल-लाल गोला उगने लगा था ! गोला बढ़ने लगा था और समीप आने लगा था !फिर उस गोले ने रूप धारण किया था -एक स्त्री का रूप ! अनिन्दय सुंदरी थी – कोई ! रख-रखाव से कोई महारानी ही लगती थी . कोई क्यों , काम-कोटि की महारानी ही तो थी ! पारुल का मन हुआ था कि उठ कर उस के चरण छू ले !!
“छूना मत , ….मुझे …!” ललकार थी . “अपवित्र न कर देना …मेरे सतीत्व को …!” आवाज़ में तिरस्कार था . “मैं सोना हूँ !” उस ने परिचय दिया था . “महारानी बनने का तुम्हारा ये स्वांग मुझ से सहा न गया ….तो आना पड़ा !!” उस के तेवर तन आये थे . “महारानी होने के अर्थ तो अलग …तुम्हें तो उन की परछाई तक पहचानने में कठिनाई होगी , पारुल !” वह तनिक व्यंग पूर्वक हंसी थीं . “तुमने …हाँ,हाँ ! तुमने ही ….हमारे कुल-दीपक को बुझा दिया ! समीर को मार कर तुमने …..”
उछल पड़ी थी , पारुल ! उस का हिया काँप उठा था . काटो तो खून नहीं ! उस की साँस रुक गई थी . उस की आँखें फटी-की-फटी रह गईं थीं !
“झूठ क्या है ….?” सोना गरजी थी . “मैंने तो झील में तुम्हारे नहाने के …वो विलासिता पूर्ण हाव-भाव भी देखे हैं ! चाहती तो …उसी दिन तुम्हारे प्राण लेलेती ! पर …..” सोना पूर्ण क्रोध में अब पारुल के सीने पर सवार थी . उस के घुटने पारुल की गर्दन तक टिके थे . “वैश्याएँ करती हैं , ऐसे कुकर्म …महारानियाँ नहीं !” उंगली उठा कर कहा था , सोना ने . “कल सिंहासन पर बैठ मत जाना , पारुल ! मुझ से बुरा कोई न होगा …अगर तुमने ….”
पारुल का पूरा बदन पसीनों में लथ -पथ था . बिस्तर से उठने की सामर्थ उस में शेष न बची थी . शारीर निर्जीव था . साँस धीमे-धीमे चल रही थी . वह मरणासन्न थी . उस के हाथ आजू-बाजू सोना के होने – न -होने को टटोल रहे थे . वह भयभीत थी …बुरी तरह से डर गई थी ! सोना की आँखों से वरसती वो आग …उसे अब भी सुलगाए दे रही थी !!
“मेरी तबियत ठीक नहीं है , मही लाल जी !” पारुल बिस्तर में पड़ी-पड़ी बता रही थी . “मैं दशहरा न देख सकूंगी !” उस की आवाज़ रुलाई में टूटी थी . “मैं …मैं … ” उस की जुबान तालू से जा चिपकी थी . “खैर… …. !” वह संभली थी . “आप ….आप …ऐसा करें कि …समीर की प्रतिमा ….को सिंहासन पर बिठा कर …खुद फरमान पढ़ें ….!!”
“म …मैं ….!” मही लाल बमका था . “ये …आप क्या …..?”
“जो कहूं , वही करो !” पारुल को अब क्रोध चढ़ने लगा था . “देखो ! वो …’सोना’ महारानी का तेल-चित्र ….जो दरबार हॉल में टंगा है … ” रुकी थी , पारुल . उस का हिया काँप उठा था .
“जी ! क्या होना है , उस तेल-चित्र का ….?” मही लाल पूछ रहा था .
“कुच्छ नहीं ! जाओ ….!!” पारुल ने आदेश दिया था .
मही लाल सकते में आ गया था . उसे रह-रह कर लोगों के बीच में बहती बातें याद हो आईं थीं . ‘चालू पुडिया है !’ ….’फ्रोड है !’ …..’किसी भी दिन कलकत्ता वाले यार के साथ भाग जाएगी !’ …..’ये तो नकली माल है !’ ……
“ये कोई बीमारी नहीं है !” मही लाल स्वयं से कह रहा था . “ये तो बीमारी से भी बड़ा कोई बबाल है ! कोई ऐसा बबाल ….जो कहीं महारानी सोना से जुडा है ….!!
लेकिन मही लाल ने एक आज्ञाकारी प्रबंधक की तरह अपने सब दायित्व निभाए थे !!
वीर पराक्रम बुर्ज पर जा चडी थी , पारुल !!
काम-कोटि का विहंगम द्रश्य उस की आँखों के सामने पसर गया था . किला था …महल थे …दरबार हॉल था …और उन के आजू-बाजू उग आये बाग़-बगीचे थे . न जाने इन का निर्माण कब हुआ होगा – वह सोच नहीं पा रही थी ! लेकिन एक अलग तरह का सोच उस पर तारी था !
“कल तक ये सब मेरा था …मैं महारानी थी …लेकिन आज अचानक ही ये बेगाना क्यों लगने लगा ….?” वह स्वय से प्रश्न पूछ रही थी .
प्रश्न के उत्तर में एक अजीव द्रश्य वीर पराक्रम बुर्ज के उस पार घटने लगा था . युद्ध आरंभ हो गया था . वीर सैनिक घोड़ों पर सवार हो – हमला कर रहे थे ! तलवारें सांय -सांय सर काट रही थीं ! लहू बह चला था . पूरी युद्ध-भूमि लाशों से पट गई थी .
“हार हुई है तुम्हारी, महारानी !” आवाजें आ रही थीं . “आप परास्त हुई हैं !” कोई कह रहा था . “अब से आगे ….राज ….”
“नहीं चाहिए मुझे – राज !” पारुल वीर पराक्रम बुर्ज की सीडियां उतर कोप भवन में आ कर लेट गई थी .
स्वप्न थे . बुरे स्वप्न थे . सोच था . दोष पूर्ण सोच था ! बार-बार वह अपनी दुश्मन -महारानी सोना का सर काट देना चाहती थी ! वह चाहती थी कि कोई उस का वीर …घोड़े पर सवार …. दौड़ता हुआ आये …और सोना का सर धड से अलग कर दे !!
“फोन है , महारानी जी !” पारुल का सोच टूटा था .
“कौन है ….?” पारुल ने कड़क स्वर में पूछा था .
“बाहर से कॉल है ! कहीं विदेश से ….शायद ….”
शायद किसी विचित्र लोक की तलाश में भटकते सैलानी का होगा ….मान कर ही पारुल ने फोन लिया था !
“पढ़ा कुछ अखबारों में …..?” पारुल के सामने अजीव प्रश्न आ खड़ा हुआ था . पर उसे समझते देर न लगी थी कि …फोन राजन का था . “हैराल्ड में ….मोटे-मोटे हईडिंग में लिखा है – द सुपर …किंग टेक्स … द …किंगडम ….बाई ….स्टॉर्म ….!” राजन अब होश में था . नींद खुलते ही उस ने पहला फोन पारुल को किया था . “वेगस में …राजन के नाम की धूम मची है, योर ग्रेस !” वह बता रहा था . “धन के ढेर पर बैठा हूँ !” उस ने सूचना दी थी .
पारुल चुप थी . वह कुछ न बोली थी . उस का अकेला मन अब भी उस के साथ ही खड़ा था ! राजन की आवाज का असर आज पारुल पर तनिक भी न हुआ था ! राज-पाठ जाने का गम …राजन की जुए की जीत से कहीं ज्यादा गहरा था !!
“क्या बात है , योर ग्रेस ….?” राजन तनिक चौंका था . “आप …..?” वह औपचारिक हो आया था .
“मेरी तबियत ठीक नहीं है !” पारुल ने सपाट स्वर में उत्तर दिया था .
“काश …! आप मेरे साथ …अगर लंदन आतीं ….तो ….” राजन तनिक रुका था . “रेस का केस …तो था ही स्केंडल …! बुरी तरह पिटा हमारा घोडा …! लेकिन सच मानिए , योर ग्रेस….कि …. !” राजन को उम्मींद थी कि पारुल अब कुछ कहेगी . लेकिन चुप्पी के अलावा और कुछ भी न लौटा . “अब आप को धनाभाव …का भूत कभी भी न सताएगा …!! ” राजन ने अचूक तीर छोड़ा था . “कहिए ! कित्ता धन चाहिए …., आप को ….?” राजन ने सीधा प्रश्न किया था . वह जानता था कि अब की बार पारुल अवश्य बोलेगी !
“कानी कौड़ी भी नहीं चाहिए …!” पारुल ने कहा था और फोन काट दिया था .
जैसे राजन के मुंह पर जूता आ वजा हो …उसे ऐसा ही एहसास हुआ था !
पारुल रो रही थी . वह रोये ही जा रही थी . उस का मन कह रहा था कि वह खूब रोये ! महारानी होने का ‘सपना’ नहीं यह एक साक्षात्कार था ! वह महारानी बन चुकी थी . वह महारानी थी . वह मालकिन थी . सोना क्या थी ….कौन थी ….? मात्र एक स्वप्न ही तो था – वह ! स्वप्न कभी सच होते हैं , क्या …? वह कल ….जिस का नाम कल …सोना की लाश उठाव कर ….समीर के साथ दफन करदे ! मुर्दों का क्या होता है ….? भटकती आत्माएं …कौनसा राज-काज चलाती हैं …? सोना कभी थी ….समीर सेकिया …कभी था …! और जो जब था ….तब था ….!! अब तो वह …माने कि ‘पारुल’ ही साक्षात काम-कोटि की महारानी थी !!!
“रमण ….!” अचानक पारुल के भीतर से आवाज उठी थी . “देखो ! ये जो फँरिन का ग्रुप है ….हम इस का संचालन स्वयं करेंगे !” उस ने आदेश दिया था . “और मही लाल को कहना कि …हम से अभी मिलेगा !”
“ठीक है , महारानी जी !” रमण ने आदर पूर्वक कहा था . पारुल को आज ‘महारानी’ का अभिवादन …. सुनना दवा जैसा लगा था !
“आज ….अभी ….इसी वक्त ….सोना से न हारने की कसम …उठाओ, पारुल !” वह अपने आप को हिदायत दे रही थी . “जंग जारी रहे ….!!” वह हंस पड़ी थी .
…………………
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!
