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नटखट बन्दर,तुकन्दर क़ानू-3

कानू

भोपाल में क्लाइमेट बहुत अच्छा रहता है…..यानि के मॉडरेट क्लाइमेट। न ज़्यादा सर्दी न ज़्यादा गर्मी मॉडरेट क्लाइमेट,और बारिश के दिन बहुत सुहाने होते हैं।बारिश ज़्यादा होने के कारण शहर में हरियाली बहुत है। हर घर में गुलाब और गेन्धे के फूलों की बहार आयी होती है। ऐसे ही हर घर में आपको फलों के वृक्ष भी ज़रूर मिलेंगे। यहाँ की काली मिट्टी फल -फूल पौधों के लिए बहुत अनुकूल है। मुझे भी फूलों के पौधे लगाने का बहेद शौक है..इसी शौक के कारण मैंने भी अपनी छत्त पर कई गुलाब और गेन्धे के फूलों के गमले रखे हुए हैं। गेन्धे के फूलों की एक खासियत यह है, कि यदि आप गेन्धे का एक पेड़ लगाएंगे ,तो चाहे  अनचाहे गेन्धे के बीज आपके हर गमले में बिखर जाएंगे,और न चाहते हुए भी गेन्धे के अनगिनत फूल हो जाएंगे। यह मेरा पर्सनल अनुभव है। मैंने भी अपने गुलाब के फूलों के गमलों के बीच में सिर्फ एक या दो गेन्धे के पौधे लगाए थे…क्या बताएँ फूलों के बीज ऐसे बिखरे की हर गमले के बीच में गेन्धे के फूल हो गए। छत्त के कोने वाली लाइन में एक बहुत बड़ा गमला रखा हुआ है,जैसा कि मैने बताया कि हर गमले में गेन्धे के फूल हो गए थे,तो इस गमले में भी एक पौधा गेन्धे का था…गमला बीच में से क्रैक हो गया था पौधे की जड़ बाहर की तरफ आ गयी थी। उसके चारों तरफ थोड़ी-थोड़ी मिट्टी भी फैलने लगी थी। बिखरी हुई मिट्टी में गेन्धे के बीज तो झड़ ही रहे थे…साथ ही गमलों का पानी निकलने से मिट्टी गीली भी हो गयी थी। परिणाम यह हुआ कि अपने आप ही छोटा सा गोल सा गेन्धे के पोधों का पार्क तैयार हो गया…मैने भी पौधों को वहाँ से न हटाया था।

क़ानू का तो रोज़ का काम था छत्त पर खेल कूद करना। क़ानू की नज़र उस छोटे से बने हुए गेन्धे के पार्क पर पड़ गई थी। जब भी मौका मिलता खेलते -कूदते उन पौधों के बीच में घुस जाती और सारे नन्हें-नन्हें पौधों को कुचल डालती। बहुत मुश्किल से खींच कर निकालनी पड़ती थी,और फिर मैं उन सारे गेन्धे के छोटे-छोटे पौधों को ठीक किया करती थी…धीरे धीरे पौधे बड़े होने लग गए क्योंकी जैसा मैंने बताया है कि भोपाल में बारिश बहुत होती है,इसलिए पौधे काफी ऊँचे हो गए थे और मेरी छत्त पर एक छोटा सा गोल हरा-भरा ऊँचे-ऊँचे गेन्धे के पौधों वाला पार्क कुदरती तैयार हो गया था। अक्सर मेरी नज़र बचाकर बीच में से या फिर दूसरे गमलों के बीच से होकर क़ानू उन गेन्धे के फूलों वाले पार्क में घुस जाती और अन्दर घुसकर खूब मस्ती करती थी। पूरे पौधे खराब कर डालती थी…सारे बड़े-बड़े गेन्धे के पौधे झुक जाते थे। क्योंकी पोधों के तने थोड़े मोटे और मज़बूत हो गए थे,इसलिए टूटते नहीं थे। पौधों के बीच में खेल-कूद कर क़ानू बाहर आ जाती थी,सोचती थी “चलो मज़ा भी आ गया और पता भी न चला”। मिट्टी गीली होने के कारण क़ानू के नन्हे-नन्हें पैर मिट्टी में भर जाया करते थे…लेकिन चालाकी देखिए क़ानू रानी की कि पकड़ी न जाये इसलिए छत्त पर रखे हुए पानी के डिब्बे में जोकि मैंने अपनी क़ानू-मानू बिटिया के लिए ही भरकर रखा हुआ है, ताकी खेल-कूद भी करती रहे और पानी भी पीती रहे,और हाँ अपने हाथ पैर मुहँ भी क़ानू उसी डब्बे में धोती रहती है। बस!तो फिर पकड़ी ना जाये इसलिए पौधों में से निकलकर क़ानू अपने पैर उसी डब्बे में धो लिया करती थी।खैर!क़ानू के छोटे से मन की सोच यह थी कि किसी को पता ही नहीं चलेगा कि मैंने पौधों में खेल-कूद किया है…पर नन्ही गुड़िया को यह नहीं पता कि उसके छोटे-छोटे मिट्टी से भरे गीले पैरो के निशान उसे पकड़वा दिया करते थे। कभी चोरी पकड़ी जाती थी तो प्यारी सी भालू लगती थी। मेरे पास शब्द नहीं हैं क़ानू के विषय में  बखान करने के लिए कि वो कितनी सुन्दर सफ़ेद भालू लगती थी। 

गेन्धे के पौधे चार महीने फूल देने के बाद सूख जाते हैं , सूखे हुए फूल नीचे झड़ जाते हैं बीज बनकर और पौधों को उखाड़ फेंक दिया जाता है। पौधे कुदरती बाहर निकलकर आये हुए होते हैं..आसानी से हाथ में आ जाते हैं। एक बार के बने हुए जंगल में तो क़ानू ने खेल-कूद कर ही लिया था….अब सीजन खत्म होने के बाद पौधों को उखाड़ दिया था,और मिट्टी में बीजों को समेट दिया था…क़ानू का जंगल कट चुका था…जिसमें मेरी क़ानू सफेद भालू की तरह एंटर किया करती थी,और फॉरेस्ट वाली फीलिंग लिया करती थी,क़ानू को लगता था..कि क़ानू जंगल में घूम रही है। उस छोटे से गेन्धे के पौधों रूपी जंगल में क़ानू खूब पिकनिक मनाया करती थी।

अब वो छोटा सा क़ानू का जंगल कट चुका है…सिर्फ बीज हैं पर लगातार गमलों का पानी निकलते रहने से नन्हें-नन्हें पौधे फिर उग आए हैं..ऐसा लग रहा है मानो घास उग गयी हो,क़ानू को फिर से मज़ा आ गया है। अब मेरी क़ानू प्यारा सा सफेद भालू बनकर और मुझसे नज़र बचाकर शाम को नन्हें पौधों रूपी घास पर बैठ जाती है। क्योंकी सर्दियाँ खत्म हो गयी हैं, गेन्धे का सीजन भी समाप्त हो गया है….हल्की-हल्की गर्मी आ गयी है ,इसलिए क़ानू को शाम के समय उन नन्हें पौधे रूपी घास पर बैठने में बहुत आनन्द आता है। कई बार हमने क़ानू को डरा धमका भी दिया है,इसी बात पर क़ानू के छोटे-छोटे गाल भी सेक दिये हैं….पर महारानीजी बिल्कुल मानने को तैयार न हुईं…. सच, बतायें लगती बहुत प्यारी है क़ानू उन छोटे-छोटे पौधों पर बैठी हुई …..ऐसा लगता है जैसे सफेद सा छोटा सुन्दर भालू काली छोटी सी नाक वाला हरी-हरी घास पर मज़े ले रहा हो। मज़े की बात तो अलग रही पर उन नन्हें छोटे पौधों की रक्षा भी तो हमें ही करनी है। अब लगाएं हैं तो यूँ क़ानू के पैरों तले कुचलने थोड़े ही देंगे । खैर, हमे एक तरकीब सूझी और हमने उन पौधों के चारों तरफ गोलाकार में मिट्टी के गमले रख दिये हमे लगा चलो पौधों की सिक्योरिटी  तो हो गई है,पर ऐसा नहीं है…क़ानू को तो जो करना वो करना ही है।गमलों पर से जम्प करते हुऐ फिर अपने पार्क के अन्दर। आखिर हमें ही गिव up करना पड़ा..और हमने अपनी क़ानू को प्यार से गले लगाया ,और फिर वही प्यारी सी मीठी सी क़ानू के गाल पर पप्पी देकर कहा….खेल लो अपने पार्क में जैसे खेलना चाहती हो , हमें क़ानू से प्यारा कुछ नहीं है कोई पौधे नहीं है। खुश हो गया था मेरा बन्दर तुकन्दर क़ानू और फिर से मस्ती करने लगा था। हमने भी decide कर लिया था ….खेल लेने देते हैं,फिर पूरे गेन्धे के पौधे साफ कर देंगे …झंझट खत्म वैसे भी गंद फैलता है। इसी तरह प्यार और दुलार भरी शरारतें करते और हमें दुनिया भर का अपनापन देते बड़ी हो रही थी हमारी क़ानू हमारे साथ। बहुत ही सच्चा और प्यार भरा रिश्ता बन चुका है हमारा क़ानू के साथ।

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