
लव मैरिज़
घर में घुसने के पहले मांथा घूम गया था, सावित्री का !
सूरज का चेहरा अचानक ही उस के सामने आ गया था. वही ….हू -व्-हू , वही ! और कमाल भी था कि वह सूरज के बारे कुछ भी न भूली थी. दृश्य सामने था. सूरज – एक युवक …सुसंस्कृत ,भीरु ….मृदुभाषी …आज्ञाकारी …और चरित्रवान – पूर्ण मारवाड़ी परम्पराओं का प्रतीक -सूरज एक ठन्डे,तेजोमय स्वरुप में संलग्न …सात्विकी पुरुष के पूर्ण प्रभाव के रूप में फिर लौटा था !
सावित्री को उस में कहीं कोई …कैसा भी खोट नज़र न आया था.
फिर वह राजन से मुकाबला हारा क्यों था ?
हाँ , इत्ते दिनों के बाद – शायद सूरज नहीं …एक प्रश्न लौटा था …एक विचार लौटा था ! एक प्रस्ताव – इतने दिनों के बाद …आज फिर टकरा-टकरा कर , टूट-टूट कर …क्षत -विक्षत हो-हो कर लौट आया था ! एक तव की इच्छा थी ….जो आज अनिच्छा में बदल गई थी. एक संम्भावना आज निरस्त्र हो कर लौटी थी ….और अब प्राण त्यागने के लिए ….घुटने टेके सामने बैठी थी ….गुम -सुम !!
और जो घट गया था – वह उछल -कूद रहा था ….हंस रहा था ….गा रहा था और नई आशाओं की उड़ाने भरता …मुंडेर पर आ बैठा था !
तीन बच्चे ….उस की एक पत्नी ….और उन सब के साथ जुड़ा – सूरज – एक संज्ञाओं का समूह था …इरादों का इज़हार था ….और वक्त की इच्छा का सादृश्य प्रारूप ….जिस का घटना …तब भी निश्चित था – और आज भी ! उस की निरंतरता कायम थी और उसी कालखण्ड के इच्छा और अनिच्छा के दो सिरों पर अलग-अलग खड़े – सूरज और सावित्री …आज भी वहीँ खड़े थे। अकेले ….उदास-से …और निराश …!!
वो पल ….? हाँ, वो हसींन पल …जब सब कुछ जीवंत था …उद्वेलित था …तरंगाईत था …., गवाही देने आज फिर सामने आ खड़ा हुआ था !
सूरज, सावित्री को प्राप्त करने के लिए – एक सुपन का पीछा करता कलकत्ता पहुंचा था – अपनी माँ और बाबू जी के साथ। और सावित्री …? तब राजन के साथ अपने अभिसार पथ पर बहुत आगे तक निकल गई थी …बहुत आगे !
सेठ धन्ना मल की तिजौरियां भरनेवाला – राजन …वक्त की नांक में नकेल डालनेवाला – राजन ….असंभव को संभव बनानेवाला – राजन …और एक वो जो – व्यक्तित्व का धनी – राजन …सूरज को समूचा ही लील गया था !
ग्रहण लगने के बाद – लहू-लुहान हुआ सूरज ….उन वक्त के राहू-केतुओं के समक्ष बोल कब पाया था ? वह चुपचाप वापस लौट गया था।
उस बहती वयार का नाम – राजन था ! और सूरज …समुद्र-सा ठहरा -ठहरा …तब अपने आप में उग आने में भी असमर्थ लगा था ….अनविज्ञ-सा …अवाक ही खड़ा रह गया था !
आज सूरज ….पत्नी रेखा के साथ – पूर्वांचल से उदय हुआ है ….! हारा-थका-सा सूरज चुस्त-दुरुस्त और चुलबुली – चालाक- रेखा के साथ खड़ा ….जम नहीं रहा है ! अजीव-सी जोड़ी है !
सावित्री ने तीनों बच्चों को भविष्य की तरह अपनी बांहों में समेटा है। खूब-खूब वात्सल्य की नदियां बहाई हैं …! परिचय किया है। प्यार दिया है. सौगातें देने के वायदे किए हैं। पूरा दृश्य यशोदा और कान्हां के बीच लौट जाता है !
“अच्छा किया , चले आये ….!” सावित्री ने सूरज से कहा है.
“वो ….वो ….वो। अखबारों में जो छपा है , न ….?” रेखा ने बगल में दबे ढेरों अखबार प्रमाण स्वरुप सावित्री को सौंपे हैं। “ये तो – बहुत ही विस्मित हो गए थे !” रेखा बताने लगी है. “मैंने कहा ….मिलने चलते हैं। एक बार भारत से लौटने के बाद ….”
‘”अच्छा किया , रेखा !” सावित्री ने सहज स्वभाव में कहा है.
“राजन ….?” सूरज का प्रश्न है.
“सब चलता है, सूरज ! लम्बे सफर में न जाने कितने मुकाम आते हैं …..!” उस ने सूरज को आँखों में ठहर कर देखा है. “चर्चा भी तो उन्हीं की होती है …जो चर्चित होते हैं …!”
“चर्चित ….?” अब की बार रेखा चौंकी है. “हमने तो ….”
“क्यों …?” सावित्री ने रेखा की बात काटी है. “प्रथम पल से लेकर …आज तक ….राजन तो चर्चा में ही रहा है !” उस ने अब की बार रेखा और सूरज को एक साथ घूरा है. “रेखा ! तुम सच मानना …ये पुरुष – क्या पुरुष था …! कैसी अजब-गजब पिंडी थी ….कितना प्रखर था …! आँखें दीप-शिखाओं-सी जलतीं थीं। चीते की-सी चाल-चलगत वाला राजन ….जब घोड़े पर सवार हो कर निकलता था ….तो साक्षात् महाराणा प्रताप ही लगता था ! और जब घुड़-दौड़ में लाइनें काटता था ….तो …भीड़ तालियां बजा-बजा कर पागल हो जाती थी …., मेरी बहिन !”
“शादी तो …..?” रेखा फिर से वार कराती है.
“हाँ ! शादी मैंने अपनी मर्जी से की थी. लव मैरिज कहो ! नया चलन था , तब !! इंग्लैंड में की थी.” सावित्री बताने लगी थी. “आओ ! तुम्हें अपनी शादी के फोटो दिखाती हूँ। ” सावित्री चहक रही थी. “ये देखो ! होटल – मिनाज ! बेस्ट आफ दी …होटल्स इन लन्दन …!! और ये देखो ! ये सब देखो …! देखो, रेखा ….राजन को …” सावित्री कहती ही रही थी.
“उस भूचाल का तो मैं भी गवाह हूँ.” सूरज बीच में बोला था. “मैं भी होटल ‘कॉमेट ‘ में रुका हुआ था. “इंडियन लव लेडी मैरीज हर ….जॉकी !’ जब मैंने अखबार की हेड लाइन्स पढ़ी थीं – तो मैं उछल पड़ा था. तुम्हारा चित्र छपा था ….राजन का भी चित्र था …और प्रेम-कहानी का भी सारांश था !” सूरज ने सावित्री की आँखों में देखा था. “सच, सावित्री ….उस रात मैं सो न सका था ! उस रात राजन मुझे डाकू ही लगा था ….जिस ने ….!”
“कमजोर हो गए हो ….!” सावित्री ने कुछ सोच कर कहा था.
“पहलवान तो मैं कभी नहीं था। ” हंसा था, सूरज। “हाँ ! ….आप का – वो हुश्न …! मतलव ….जो हुश्न ….लन्दन के अखबारों में विज्ञापित हुआ था ….”
हंस पड़ी थी, सावित्री ! अचानक औपचारिकता का बाँध ढह गया था. अचानक वो दोनों साथ-साथ आ खड़े हुए थे. अब दोनों ही हंस रहे थे ….खिलखिलाकर हंस रहे थे -वक्त की – की बेबकूफी का मज़ाक उडा रहे थे ..! रेखा तनिक सहम गई थी. वह उन दोनों के बीच कुछ…….
“सोचो मत, रेखा !” सावित्री ने उसे टोका था. “सच कह रहा है, सूरज ! उस वक्त का तेहा तो ..था ही कुछ और ….!”
“फिर …राजन ….?”
“अरे, वो ..! बस यो ही …! राजन का हुनर …राजन का पुरुषार्थ ….! सच मैं ही असाधारण है – राजन …! हमने लन्दन में अपनी शादी में …सारे असाधारण …चर्चित और विख्यात व्यक्तियों को बुलाया था ! कर्नल जेम्स का आईडिया था। वो चाहते थे …कि इस शादी का सब कुछ अद्वितीय होना चाहिए ! राजन को वो अपना शिष्य और यहाँ तक कि बेटा ही मानने लगे थे.”
“जाओ ! जो मर्जी आये …खरीद डालो !” कर्नल जेम्स ने हम दोनों को आदेश दिए थे. “डोंट वरी …फार द मनी …फार द फ्यूचर ….तुम दोनों …भाग्यशाली हो …! जश्न मनाओ ….जाओ !”
“क्या-क्या खरीदा था …?” रेखा ने पूछ ही लिया था.
“क्या-क्या नहीं खरीदा था , ये पूछो ! राजन ने पैसे को पानी की तरह बहाया था। धन को बेरहमी से उलीचा था। उस की उमंग …उस के प्यार से भी ऊपर निकल गई थी !”
“पागलपन ….?” रेखा गंभीर थी.
“हाँ,हाँ ….! कोरा पागलपन …निरा नशा …..!!” सावित्री ने भी स्वीकारा था. “हम दोनों …तब दिन-रात का फर्क भूल गए थे , रेखा ! हम तो दुनियां को भी भूल गए थे …! अचंभित थे – हम दोनों ….! तब – एक-दूसरे के साथ …अपने उस सहवास में – विभोर …, भूल ही गए थे कि हम इस ज़मीन …इस ज़माने …समाज …प्रान्त …परिवेश से जुड़े भी थे …? दो …पंछी …दो जीवात्माएं …दो प्रेमी …साथ-साथ जीते …गाते …खाते …नहाते …जागते …भागते ….वक्त को ही भूल बैठे थे ! कौन-सा दिन था ….तारीख थी …क्यों थी …., हमें पता नहीं था !”
“और वो ….लासवेगस ….?” सूरज ने याद दिलाया था. “ज़बरदस्त काण्ड हुआ था, न ….?”
“हाँ, ज़बरदस्त ही काण्ड हुआ था …!!” सावित्री ने स्वीकारा था.
“क्यों …?” रेखा ने पूछ लिया था.
“विश्व के प्रख्यात जुए के अड्डे पर …भारत का एक अनाड़ी खिलाड़ी आ पहुंचा था !” सावित्री अब मुग्ध भाव से बताने लगी थी. “मैं तो लासवेगस को देख कर ही हैरान थी, रेखा ! और फिर वो जूए का अड्डा ! ‘स्टोर्स’ था – शायद उस का नाम. एक से एक पहुंचा जुए का खिलाड़ी वहां पहुंचता था. लगे ‘दॉव’ की हार-जीत पर ही ज़माना हैरान रह जाता था. मैंने राजन का हाथ पकड़ कर कहा था , ‘चलते हैं !’
“चाल चलते हैं …!!” राजन ने उत्तर में कहा था. वह हंसा था. “रण से पीठ दिखा कर राजन नहीं भागता – मेरी जान ! जमते हैं …!!”
और राजन जम गया था ! एक के बाद दूसरा दाव …एक के बाद दूसरी जीत ….जीत के बाद फिर जीत ! लग रहा था – पत्ते राजन के गुलाम थे. मैंने तो पहली बार ही ये तमाशा देखा था. मैं तो ….खुद डरी-डरी थी. लेकिन …राजन …’चार इक्के’ कह कर चिल्ला पड़ा था , ‘शो ‘ …!! राजन सब जीत गया था.
“इस तरह नहीं जाने देगा , राजा !!” हंगल था – जिस ने राजन को ललकारा था. “आखिरी दाव खेलते हैं ! जो जीता है ….सब लगाते हो ….?”
“लगा दिया …!!” राजन बेधड़क बोला था.
“और ….उसे भी ….?” हंगल ने हंस कर मेरी और देखा था. “बोलो ….?” उस का प्रश्न था.
मैं कांप-कांप गई थी. मुझे लगा था कि …आज युथिष्ठिर अवश्य ही अपनी महारानी को जुए में हार जाएगा ! मैंने फिर राजन को सीट से उठते हुए देखा था. मैंने देखा था …रेखा …कि राजन ने लपक कर हंगल को गर्दन से पकड़ा था …दबोचा था …और बांए घुटने से वार किया था। हंगल को गहरी चोट लगी थी. उस का जबड़ा लहू-लुहान हो कर लटक गया था। हॉल में कुहराम मच गया था. राजन की लाल-लाल क्रोध में धधकती आँखें देख ….मैं सकते में आ गई थी. ”
“सूअर ….!!” राजन गर्जा था. “तुझे ….आज दफना कर रहूंगा …!” वह कह रहा था.
और फिर ….पल-छिन में …होटल जल उठा था ….! आग की लपटों ने सारे परिवेश को जला डाला था …सारे होते अत्याचारों को लील लिया था.
“अंकल ….!!” मैंने फोन पर कर्नल जेम्स को पुकारा था. सब बता दिया था , उन्हें !
“डोंट वरी , डार्लिंग ! जनरल पॉल इज माई बडी !! वहां के मैयर हैं. मैं बता देता हूँ. ” उन का आश्वासन था.
“बच ही गए थे ….!” सूरज टीस कर बोला था.
“हाँ …!” सावित्री ने स्वीकारा था. लासवेगस के इतिहास में वह घटना दर्ज है. “जनरल पॉल न होते तो …!”
“कुछ होता तो ज़रूर ….!!” सूरज ने पलट कर रेखा को देखा था.
रेखा को लगा था कि सूरज और सावित्री दोनों जैसे वक्त के कायल थे ….दोनों ही घायल थे ….!! लेकिन रेखा उन के घावों पर पट्टी बांधने के लिए सहमत न थी !
क्यों ….?
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क्रमशः =
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !
