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Laal Gulaab

चढ़ता सूरज !!

कहानी – अगली किश्त :-

"एक ही गाडी में चलते हैं !" मधुर ने सुझाव सामने रखा है . "दूर ही कितना है …?" उस ने बताया है . "आओ …!" मधुर का मीठा आग्रह है . "अपनी गाडी लांक कर दो . लौटते वक्त यहीं छोड़ जाऊँगा !"

मधुर कायदे की बात करता है , मैं जानती हूँ ! 

मधुर के साथ उस की गाडी में बैठ मुझे एक अनाम-से परिवर्तन ने आ घेरा है ! लगा है – मैं मायके से विदा हो ….ससुराल के घर जा रही हूँ . मैं दुल्हिन हूँ . मधुर मेरा पुरुष-प्रियतम है . मैं घूंघट निकाल …अब प्रतीक्षा-रत हूँ …कि मधुर आहिस्ता-आहिस्ता घूंघट खोलेगा …कर्ण प्रिय संवाद बोलेगा …आग्रह करेगा ….अमर आग्रह …प्रेम पगे आग्रह ….जो मुझे गुदगुदा कर धर देंगे ! हाय, दैया !! मैं तो शर्म में डूब कर मर जाउंगी ….! मैं ….तो …

"वो, देखो !" मधुर ने खामोशी तोड़ी है . "अमर अपार्टमेंट्स …!" उस ने मुझे नाम बताया है . "अभी-अभी बने हैं . हम फर्स्ट टेनेंत्ट होंगे !" मधुर हंसा है . "बिलकुल कोरा घर है !!" 

मैंने सामने आ गए द्रश्य को आँखें भर-भर कर देखा है . वास्तव में सब कुछ नया-नया है . एक बेहद सुंदर बसावट है . सब करीने से बना है . मेरे घर जैसा 'हौज-पोज ' यहाँ नहीं है . अवश्य ही यहाँ सब पढ़े-लिखे लोग रहते होंगे ! सभ्य लोग ….समझदार लोग …और ….और ….

"कुछ काम अभी बाकी है !" मधुर बताने लगा है . "दो एक दिन में हो लेगा …!!" उस ने सूचना दी है . 

"मुझे क्या करना होगा ….?" मैंने साहस कर पूछा है . अब तक तो मैं मौन ही थी . 

"प्यार ….!!" मधुर ने कहा है …और वह खिलखिला कर हंस पड़ा है . "प्-ग-ली …!!" बड़े ही प्यार से मधुर ने मेरे गाल पर एक हलकी-सी चपत जड़ी है !

हे, भगवान् !! मैं तो शर्मा गई हूँ ! हंसी नहीं हूँ …बिलकुल नहीं हंस पाई हूँ ! ये मधुर बहुत पाजी है . मुझे कच्चे -कच्चे पलों में पकड़ कर …चोट कर जाता है ….प्रेम-प्यास में पगी-सी चोट ….जो मुझे भीतर तक हिला कर धर देती है ! मैं एक पल के लिए उन्मादित हो उठती हूँ ….बावली होने लगती हूँ ….!!

"कैसा लगा …?" मधुर पूछ रहा है . 

"एक्सेल्लेंट …!!" मैंने दोनों हाथ हवा में उछाल कर कहा है . "बे-ह-द …खूबसूरत ….!!!" मैं मुग्ध भाव से कह उठी हूँ . 

"और फिर सब आस-पास है ! मैट्रो …बाज़ार ….मौल …और यहाँ तक की डिस्ट्रिक्ट पार्क …!!" मधुर बता रहा है . "भाई, मुझे तो देखते ही भा गया था ! मैंने किराए पर मोल-तोल ही न किया ! बस ले लिया …!!" 

"ले-कि – न ….." मैं अब अटक कर खड़ी हूँ . 

"ले-कि – न ….?" मधुर ने मुझे अपने 'शक' को उगलने के लिए उकसाया है . 

"बेडरूम ….तो ….एक ही है ….?" मैंने लजा कर कहा है . 

"तो ….? दो का क्या करेंगे …? भई , हमने तो दो से एक होना है ! एकाकार होना है !! एक मन …एक जान …एक प्राण ….! मैं तो तुम्हें …अपनी सांसों में कब का बसा चुका हूँ , शमा ! सोते – जागते …उठते-बैठते …मैं तुम्हें भूल ही नहीं पाता ! हर संवाद तुम्हीं से शुरू हो ….तुम्हीं में समाप्त होता है ! मैं नहीं जानता कि तुम्हारी क्या हालत है …पर …..

मेरी हालत ….? मधुर से भी ज्यादा गंभीर है ! में आप को बता देती हूँ कि ….मैं मधुर को अगाध प्रेम करती हूँ …..कि मैं …हर पल …हर क्षण मधुर को अपने भीतर समो लेना चाहती हूँ ….अपने अंदर छुपा लेना चाहती हूँ ….! मधुर के साथ अपने प्रणय -पलों को खोल-खोल कर ….खिल-खिल कर ….जीना चाहती हूँ ….! और हाँ, ….कि ….कि मधुर मुझे अपने हाथों …निर्वसन करे ….मुझे ….और …मुझे ….! उफ़ …..!!

"मैं इंतज़ार में रहूँगा !" मधुर ने कहा है . "चलो. तुम्हें छोड़ आता हूँ …..!!" 

हम दोनों हैं ….एकाकार हैं ….साथ-साथ हैं …पर चुप हैं ! हम अब अपने-अपने आस-पास को टटोल रहे हैं ….सूंघ रहे हैं ….परख रहे हैं …! ख़ास कर मेरा मन शंकालू हो आया है ! कोई जाल ….कोई चाल ….कोई धोखा ….कोई फरेब ….? मैंने मधुर से कोई सवाल पूछा कब है …? और न ही मैंने मधुर को अपने बारे कुछ बताया है ! हम दोनों प्यार में अंधे हैं – ये बात सच है !! 

"आने से पहले एक दिन लूंगी …!" मैंने मधुर को बताया है . "बस एक ही दिन , ज्यादा नहीं !!" 

"ले लो ! हर्ज नहीं ! तब तक मैं घर का बाकी काम करा लेता हूँ !" मधुर हंसा है . 

अब  ओफिस के बाद ही मैंने मधुर के साथ चला जाना है …!!

अजब एक प्रतिक्रिया है ! एक संकोच है !! एक डर है !!! लेकिन ….

शाम …ये ढलती शाम ….आज मुझे चढ़ता सूरज क्यों लग रही है …..?

……………..

क्रमश :-

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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