रमेश के इस घर में सामान बेचकर पैसा लाने के बिज़नेस में सुनीता चाहे अनचाहे शामिल हो गई थी.. वक्त के लपेटे में न चाहकर भी ईश्वर की ऐसी करनी हुई.. कि मुकेशजी और उनका बिज़नेस गिरता ही चला गया। हर माँ-बाप हर कीमत पर बेटी का सुख चाहता है.. इसलिए मुकेशजी ने सुनीता को कभी इंदौर से दिल्ली घर नहीं बुलाया.. कहीं मन में एक बात थी.. चलो! हमारा जैसे भी हो चल रहा है.. पर बिटिया तो आराम से दाल-रोटी खा ही रही है। यही शब्द रामलालजी की तेरहवीं पर उनके मुहँ से निकल भी गए थे..
” आराम से रह! बेटा! और अपने बच्चों पर ध्यान दे.. रहने के लिए छत्त मिली हुई है.. और खाने के लिए दाल-रोटी मिल ही रही है!”।
सुनीता एकबार फ़िर पिता की कही हुई.. बात को काट न पाई थी.. अपने मन की बात जो वो आगे आने वाले समय के लिए महसूस कर रही थी.. दबाते हुए पिता की बात का हाँ में ही उत्तर दे डाला था।
रमेश का पैसों के लिए एडिक्शन इस कदर बढ़ गया था.. कि कुछ भी करके उसकी जेब भरी होनी ज़रूरी थी। समान बेचना और पैसे लाना तो बिज़नेस बन ही गया था.. पर अब रमेश की नज़र पैसे के लिए चारों तरफ़ घर में भी घूमने लगी थी.. और ड्यूटी का जन्म हो गया था।
इस ड्यूटी का खुलासा अगले खानदान में।