Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

खानदान 158

” माँ चलीं गईं..!!!”।

बबलू अपने छोटे भाई के मुहँ से यह ख़बर सुनते ही सुनीता बिलख-बिलख कर रोने लगी थी..

” बस! माँ! कोई बात नहीं! नानी ने अपनी पूरी लाइफ अच्छे से बताई ! और एक सुखी जीवन जिया! अब उनका जाने का समय आ गया था.. उन्हें जाना था.. अपनी बीमारी और परेशानी का बताकर वे आपको बिल्कुल भी दुःखी नहीं करना चाहतीं थीं! आपकी टिकट करवा दी है! आप दिल्ली निकल जाओ!”।

बच्चों ने सुनीता को समझा-बुझाकर थोड़ा चुप करवा दिया था.. पर अपनी जन्मदाता.. और सबसे अनमोल माँ के लिए, शायद आँसू कम पड़ रहे थे.. और आज वो अलविदा कह चुकीं थीं.. संसार के मोह से मुक्त हो चुकीं थीं .. यह सच मन मानने को अभी- भी तैयार नहीं था।

” मैं आ रही हूँ! पिताजी ! माँ को रख लेना!”।

सुनीता ने रोते हुए, मुकेशजी से फ़ोन पर बोला था।

” आ जाओ! तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो! पर माँ को ज़्यादा देर नहीं रख सकते!”।

सुनीता दिल्ली पहुँच अनिताजी के दुःख में अपने पूरे परिवार के साथ शामिल हो, माँ की यादों को अपने संग लिए.. एक उदास और दुःखी मन से इंदौर वापस आ गई थी। पर सुनीता परेशान न हो! इसलिए अनिताजी बहुत दिनों से बीमार चल रहीं थीं.. यह बात उसे किसी ने भी नहीं बताई थी.. और शायद अनिताजी भी यही चाहतीं थीं।

हाँ! अनिताजी की आत्मा की शांति के लिए रखी गई पूजा में.. इंदौर वालों को भी न्योता दिया गया था.. जिसमें केवल रमेश ही पहुँच पाया था।

” मेरे पास पैसे ही नहीं होते! सौ रुपये ही हैं!”।

अपने दुःख को अपने साथ रखते हुए.. फ़िर नाटक में शामिल होने के लिए तैयार थी.. सुनीता!

Exit mobile version