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खानदान 156

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” एकबार माँ से मिलने समय निकालकर ज़रूर आ जाना”।

सुनील ने अपनी बहन से कहा था।

” पर माँ की हालत में तो दिन रोज़ सुधार हो रहा है! न.. आपने बताया था!”।

सुनीता का भाई से सवाल था।

हाँ! पर एकबार मिलने में बुराई भी कोई नहीं है!”।

” ठीक है! भाईसाहब ! मैं आने की कोशिश करूँगी!”।

बार-बार यह पता चलना, कि माँ की तबियत ख़राब है! पर फ़िर भी सुनीता का माँ से मिलने नहीं पहुँचना यह हैरानी की बात लग रही थी।

” अरे! क्या करूँ..!! ड्यूटी पर बैठना पड़ता है!”।

अपने ही घर में कौन सी ड्यूटी पर बैठती थी.. सुनीता! यह हैरानी की और सोचने वाली बात थी.. यह ड्यूटी वाली बात सुन सुनीलजी और मुकेशजी को भी थोड़ी सी हैरानी हुई थी.. पिता ने इस बात पर कभी-भी कोई सवाल नहीं किया था.. पर भाई ने ज़रूर पूछा था..

” ये किस तरह की ड्यूटी है!”।

जिसका जवाब सुनीता ने ठीक तरह से न देते हुए.. बात को गोल-मोल कर दिया था।

यह कौन सी ड्यूटी थी.. इसकी सबसे बड़ी राज़दान सिर्फ़ अनिताजी ही थीं.. आने वाले वक्त के साथ सुनीता की ड्यूटी भी सामने आने वाली थी। खैर! बात मायके की थी.. तो घर की बेटी को सपोर्ट देते हुए.. सुनीता से ज़्यादा सवाल जवाब नहीं पूछे गए थे.. और उसके माँ से मिलने न आने का कारण उसके ससुराल को ध्यान में रखते हुए.. ज़्यादा किसी ने समझने की कोशिश भी नहीं की थी।

” अरे! यह कैसा सपना था.. नहीं! नहीं! भगवान ऐसा न हो!”।

सुनीता अचानक से ही नींद से जाग उठी थी.. और अपने आप से बोली थी..

” है! भगवान! यह कैसा सपना देख लिया मैंने! भतीजी लाल दुल्हन के लिबास में!”।

सुनीता का वही पुराना वहम एकबार फिर जाग गया था.. सपने में ब्याह या फ़िर घी-दूध का फैलना ठीक नहीं होता!

” तू चिंता मत कर! इस बार मैं तेरी माँ को अस्पताल से एकदम ठीक करके ही निकालूँगा!”।

अनिताजी की सही-सलामति की प्रार्थना करते हुए.. जुड़े रहें खानदान के साथ।

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