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कलकत्ता शहर रात को नहीं सोता!

kalkatta shahar raat ko nahi sota

परछाईयां ..

उपन्यास अंश !

भाग -४२ 

“ये सब क्या है , दीदी …?” पारुल ने गहक कर प्रश्न पूछा था .

“ये सब तेरा है , पारो !” स्नेह-सिक्त आवाज़ में सावित्री बोली थी . “माँ ने जो मुझे दिया था – वह भी तेरा हुआ ! मुझे कौन बेटी ब्याहनी है, रे ? सब तेरा …! ले जा इसे …!! देने में ही आनंद है . लुटाने में ही सर्वानंद है ! मन कुंदन की तरह शुद्ध हो जाता है ! और ……”

“लेकिन दीदी …? आपने तो अपना ये सब ….?”

“अब कौन श्रृंगार करने बैठूंगी, पारो …?” हंसी थी , सावित्री . “ये सब तब ख़रीदा था ….जब मैं ….भी …” उस ने पारुल की आँखों में नए अनुराग को खोजा था . “तेरी ही तरह ….धानी चुन्दरिया पहन ….पूरे ब्रह्माण्ड में …नांच-नांच कर ….गा-गा कर ….अपने अमर प्रेम का जय-घोष करना चाहती थी !” सावित्री की निगाहें उठीं थीं . “अब तो मैं गोपाल को पुत्र-रूप में पूजती हूँ ! यशोदा की तरह कन्हयाँ के बाल-रूप में डूब-डूब कर नहाती-गाती हूँ ! अब तो मीरा ही जीवन का प्रथम सत्य है , मेरे लिए !” सावित्री ने पारुल को बांहों में समेटा था . “देख, पारो ! मेरा कन्हयाँ मुझे दे देना ….? विनती है ….मेरी बहिन …..मैं ……” रोने लगी थी , सावित्री . “निपट अकेली हूँ , बिना उस के ……”

“आप से कभी दगा नहीं करूंगी, दीदी !” पारुल का कंठ भी भर आया था . “आप जितना उपकार कोई करता भी है , क्या ….?” पारुल ने उसे सराहा था . 

अचानक ही पारुल को अपनी असहाय खड़ी-खड़ी रोटी …माँ याद हो आई थी ….और उभर आया था वही करुण ह्रदय …जहाँ सेकिया उसे खरीद कर लिए जा रहा था ….और वो थी कि रोये ही जा रही थी !

राजन उस का प्रेमी था . टेरता प्रेमी ….मयूरे की तरह अभिभूत ….और प्रेमाकुल ! अच्छा लगता था , पारुल को ! राजन – जैसे उस की अपनी ही मान्यता था जिस पर उस का एकाधिकार था ! राजन को लेकर अब वह कोई भी ….कैसा भी स्वप्न देखने के लिए स्वतंत्र थी !!

राजन भी अपने सच होने वाले स्वप्न का स्वागत करने पारुल पैलेस की चौखट पर अडिग आ खड़ा हुआ था ! पारुल भी तो यही चाह रही थी ? अंततः वह आज उस के पास चल कर आ रही थी …उस की हो कर आ रही थी ….उस के स्वप्न-संसार को सजग करने आ रही थी ! राजन का मन-प्राण आज उस की मुट्ठियों में बंधा खड़ा था !

राजन ने पारुल पैलेस को आज अपनी इच्छाओं के अनुरूप सजाया-वजाय था ! उस ने सब कुछ आधुनिक और अत्याधुनिक ….ला-ला कर पारुल पैलेस के हर कौने को …हर कमरे को ….प्रांगण  और परिवेश को ….जीवंत बना दिया था ! वह चाहता था कि …ये सब कुछ पारुल के साथ संवाद बोले ….और राजन के प्रेम का गुणगान करें !

अचानक ही राजन को आभास हुआ था कि …पुरातन का भारत …आज नींद त्याग कर …जगा खड़ा था ! कल के राजन में ….और आज के राजन में ज़मीन आसमान का अंतर था ! आज वह अपनी एक कल्पना के साथ खड़ा था …जो कल की ही असंभव बात थी ! आज वह काम-कोटि में …सोना झील के ऊपर ….चित्र-विचित्र की स्थापना करने जा रहा था ..लॉस वेगस के मुकाबले में आ रहा था ….जब कि कल ……?

वो छह थे ….! एक अच्छी-खासी फ़ौज थी !! लेकिन न खाने को कुछ था …न कहीं रहने को ….! पर वो थे ….एक ही परिवार थे ! हवा खा-खा कर ही पले-बड़े हुए ! पानी की खुराक उन्हें लगती थी ! हंसी- ठहाकों का पाथेय उन्हें मोटा करता था ….और फाका-मस्ती …..और कजरी की नंगी पीठ पर …बैठ उड़ानें भरता …वह …न जाने कब और कैसे एक समर्थ और बेजोड़ इंसान बन गया !! 

सब चलता है – राजन सोचता है ! इंसान सब सह लेता है . सब लेलेता है ….और वक्त आने पर …सब देदेता है ! वक्त की ही तो बात होती है ….? आज उस का वक्त था ….बुलंदियों पर था ! आज – पारुल , काम-कोटि की महारानी को प्राप्त कर लेना ….कोई हंसी-खेल न था ….? पर उस ने ……

अचानक ही सावित्री उस की आँखों के सामने आ खड़ी हुई थी ! 

“तुम लोगों के लिए तो मैं ….तुम्हारा एक नौकर ही रहा …? मैं हमेशा यही महसूसता रहा कि …..छीतर और सुलेमान सेठ का साथी मैं ….सेठ धन्नामल के लिए ….और कुछ हो भी नहीं सकता था …! जौकी बनने के बाद भी ….आँगन में पैसों का पेड़ लगाने के बाबजूद भी ….और एक के बाद दूसरे मुकाबले जीतने के बाद भी ….मैं वही रहा ….जो मैं था ….!! तुम्हारे लिए भी एक ज़रखरीद गुलाम ही तो था , मैं ….सावो ? मैं छोटा था …बहुत छोटा ….! गरीब भी तो था …? और तुम से शादी करने का बाद भी …..”

“लेकिन …..” सावित्री ने उसे रोका था . ” 

“लेकिन आज, सावो ! मैं श्रेष्ठ हूँ !! मैं भी अब सेठ हूँ !! मालिक हूँ ….बराबरी पर हूँ ! और पारुल को भी मैंने खोजा है ….चुना है ….प्राप्त किया है ….और …….”

“और …….?” सावित्री अचल खड़ी थी .

“और ये देखो ….! मेरे अरमानों की रेल-पेल ….! निहारो मेरी प्रसन्नता के उमगते फब्बारे ….! ये देखो, सावो ! मेरी कामनाओं के आदर्श ! और …और …वो रहा मेरा भविष्य ….! हँसता …खेलता ….मुस्कराता  ….मेरा भविष्य !!” 

अभिमान बोल रहा था , राजन का , सावित्री पहचान गई थी . उस की परछाई अचानक ही हवा में घुल गई थी ! लेकिन राजन के अभिमान का नशा …उतरा ही न था ! कामी पुरुष की तरह ही उस ने सावित्री को भूल ….पारुल का दामन जा थामा था !

अपने आगत-स्वागत में बाँहें पसारे खड़ा राजन पारुल को बहुत भा गया था ! उस ने सजे-वजे पारुल पैलेस को उडती निगाहों से निहारा था ! उस ने महसूसा  था कि ये जैसे उस का पुनर्जन्म था ! राजन और पारुल कोई सामाजिक गुड़िया-गुड्डा न थे ! वो तो दो पूर्ण प्रबुद्ध …स्वेच्छाचारी …और प्रगाढ़ प्रेमी थे !

अपने पुरुष-प्रियतम को आज पहली बार पुकारा था , पारुल ने !!

कलकत्ता शहर रात को नहीं सोता ! 

कलकत्ता की रातें बेहद रंगीन होती हैं . मस्त ….मदमस्त रातें …हँसते-खेलते जिस्म …प्यास बुझाती रूहें ….किसी जादूगर का-सा खेल लगता है ! नीद त्याग रात नई-नवेली दुल्हिन बन ….आगोश में आ जाती है …मदहोश हो जाती है …और फिर आरंभ होती हैं – प्रणय लीलाएं …! मलय पवन का जादू चदता ही चला जाता है और सूरज उगने से पहले …अपनी माया समेट गायब हो जाता है ! 

पारुल पैलेस को वजती शहनाई के स्वर आमोद से भर रहे थे ! शहनाई की अवगूंज में आत्म विभोर हुए पारुल …और राजन के मन हरे-हरे हो गए थे ! लक-दक जलती रोशनी …मधुर संगीत …हवा पर तैर आई सुगंध …और आसमान पर आया चाँद …आज उन दोनों की जैसे खिदमत में खड़े थे ! 

पारुल ने आज की रात के लिए परिधान चुने थे . ऐसे परिधान जो उस के हुश्न के साथ मिल कर प्रेम की बगावत करें …राजन के मन में व्यामोह भरें ….उसे आकर्षित करेंऔर एकदम बाबला बना दें !

राजन ने भी आज शादियों के बाद …ब्राकुला का शूट पहना था ! नीली शर्ट – टाई  लगाई थी और जेब में रेशमी रुमाल को …चतुराई से तोड़-मरोड़ कर फूल की तरह जड़ दिया था ! मस्त गजराज-सा राजन …आँखों में अनेकानेक आग्रह लिए …पारुल के सामने आया था ! 

राजन पुरुष था ….पारुल ने आज पहली बार महसूस था ! एक पूर्ण पुरुष था – वह !! राजन पुरुषार्थी था ….जां-बाज था ….समर्थ था ….और था – जीवंत ! एक सजग राजन था …प्रसन्न राजन था …उसे प्राप्त करने को आतुर राजन था …और उस के हर प्रश्न के प्रतिउत्तर में उत्सर्ग होने को आतुर -राजन उस के पास था !!

दो पूर्ण परिचित प्रेमियों का मिलन था, ये ! अधूरी इच्छाओं का हेल-मेल था ! लेन – देन का एक क्रम था ….और खोने-पाने का खेल था ! दोनों की आँखें कई बार टकरा चुकीं थीं . मिल चुकीं थीं ….बिछुड़ चुकीं थीं ! अब तो पाने का पल ही पास आ कर खड़ा हो गया था !

“आई लव यू , …..योर हाईनेस …..!!” राजन ने पारुल का स्पर्श किया था . 

राजन के स्पर्श से कामातुर हुई पारुल के बदन में कामाग्नि का प्रवेश हुआ था . उस का शरीर दहक उठा था ! उस का आस-पास भी मंहक उठा था . चंचल नयनाभिराम की आवृत्ति से पारुल लहरा उठी थी ! उस ने राजन के इस स्पर्श को एक हुए हमले की तरह ही सहा था ! फिर उसे स्वीकारा था और राजन को साभार लौटाया था ! 

“यू आर ….माई …लव , राजा ……” पारुल प्रेम-विभोर थी . 

“सो ….स्वीट ….आँफ …यू .., म-हा-रा-नी …..”

“नहीं ….!” पारुल ने टोका था , राजन को . ” ‘रानी’ …..सिर्फ …’रानी’ …..!” पलकें झुका लीं थीं पारुल ने . “अब से …तुम ‘राजा’ …और मैं …’रानी’ …!”

“और ….अपनी ये अनूठी ‘प्रेम कहानी’ ….?” हंसा था , राजन .

“हाँ,हाँ ….! हमारी अनूठी …’प्रेम- कहानी’ …..?” स्वीकारा था , पारुल ने और वह भी हंस पड़ी थी . खूब हंसी थी , पारुल !

और अब राजन ने पारुल को अपनी बलिष्ठ बांहों में समेट लिया था ! फिर …फिर अपनी परिचित पारुल के पंखुरी जैसे कोमल होठों से अमृत-पान किया था ….और फिर दोनों आत्म विभोर हुए …अपने आगत-विगत को भूल …किसी अन्य अलौकिक लोक में जा बसे थे !! 

अब वहां …आपस में लिपटती …लडती-भिड़ती ….काटती-बांटती ….परछाईयाँ ही थीं ….और था उन का एक स्वप्निल संसार …! विचित्र था वह सब ! जो-जो वह दोनों एक दूसरे के साथ पाने के प्रयत्न करते रहे थे ….वहां वही सब तो था ….? वही सब तो उन को मिल रहा था ….प्राप्त हो रहा था …! एक आनंदागार बह रहा था ….और वो दोनों इन अपूर्व आनंद के पलों के …पंखों पर आ बैठे थे ! अब वो उड़ रहे थे ….भाग रहे थे …और गा रहे थे ! 

विचित्र आगमन था – यादों का ….संवादों का ….इच्छाओं का …और आकांक्षाओं का …? 

“जिओ ….इसे जिओ ….! पीओ , लो अमृत पीओ ….!!” जैसे उन्हें कोई सजग कर रहा था . “लो, अपना मूं माँगा , लो ! अब प्यासे मत रह जाना …’राजा’ ….’रानी’ ….? करो ….अब जो मन आए …करो ! आज हम सब तुम्हारे सहयोग में है ! ये पल …आज पूर्ण रूप से तुम्हारे हैं ! आज सब कुछ तुम्हारे अधीन है !! पूरा परिवेश ही तुम दोनों पर प्रसन्न है !!”

राजन ने आँख खोल कर पूर्ण आवेष्ठित पारुल को देखा था . अद्वितीय लगी थी उसे , पारुल ! उस के मन-प्राण ने प्रसन्न हो कर कहा था !

“मुराद की तरह मिली हो , तुम !” 

तब पारुल को भी होश लौटा था . उस ने भी राजन को शरारती निगाहों में भर सहलाया था और कहा था ! 

“वरदान की तरह पाया है , तुम्हें !”

पता नहीं फिर सुबह कब हुई …..?

……………………………

क्रमशः 

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !! 

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