कल स्कूल पढ़ने जाना था!
न मुझे किसी ने बताना था कि मैं स्कूल कैसे जाऊं और न मैंने किसी से पूछना था कि मैं क्या कुछ करूं, स्कूल जाने के लिए! यह तो एक नए विचार का अंकुर था जो अचानक ही मेरे दिमाग में उगा था और अब मुझसे अगला कदम उठाने की जिद कर रहा था।
“लौट आओ न कृपाल?” मेरे पुराने मित्र जंगल ने मुझे आवाज दी थी। “क्या नहीं है मेरे पास ..?” उसने पूछा था।
“तुम चिरंजी के चंगुल में हो और वो चोर है!” मैंने सीधे सीधे शिकायत की थी और उसके आग्रह को ठुकरा दिया था।
लेकिन अब स्कूल कैसे जाना हो – ये मेरी दुविधा थी।
घर शांत था। सब सो रहे थे। लेकिन मेरी आंख न लग पा रही थी। मुझे तो कल स्कूल जाना था। पर कैसे – मैं तो यह जानता ही न था!
अचानक ही मेरे सामने स्कूल जाते मेरे दोनों बड़े भाई आ खड़े हुए थे। फिर क्या था! मैंने भी उन्हीं की तरह एक बस्ता तैयार करना था। उन्हीं के धरे बस्तों में मैंने सेंध लगाई थी, फिर काका जी की बड़ी अलमारी में से भी कुछ पाया उठाया था और पूरे घर की तलाशी ले बस्ते के लिए कपड़ा भी ढूंढ लिया था। लो जी! बस्ता तो अब तैयार था। और .. और हॉं कपड़े? स्कूल जंगल न था। यहॉं तो कपड़े भी साफ पहनने थे और .. और .. हॉं – भाई लोगों की तरह स्नान भी करना था। वो कदम खंडी के जलाशय में डुबकियां लगा लगा कर नहाना तो अब शायद ..
और सुबह अपने दोनों भाइयों से पहले मैं नहा धो कर और नए कपड़े पहन कर मॉं के सामने नाश्ता मांगने आ खड़ा हुआ था तो वह भी दंग रह गई थी! उनका हठीला-छबीला कन्हैया आज भेंसें चराने जंगल न जा रहा था और स्कूल जाने की जिद पर अड़ा था। तनिक मुस्करा कर उन्होंने नाश्ता परोसा था और मैंने चटपट नाश्ता खा स्कूल का रास्ता गहा था।
चलते चलते मैं आज नई ऑंखों से एक नए संसार को देख रहा था!
कालीचरण की बहू पर मेरी दृष्टि पड़ी थी। उनके घर का दरवाजा बरसात में ढह गया था और सब खुला खुला था। वह अपने काम काज में व्यस्त थी लेकिन अचानक ही उसने निगाहें उठा कर मुझे देखा था और हंस गई थी। एक अंजान तूफान मेरे दिमाग में उठा था और हिलोरे मारने लगा था।
मुझे पता तो था ही कि कालीचरण बाजार में बूरा कूटता था। उसका बाप राम लाल भी मर चुका था। वह अकेला था। और उसने न जाने कैसे कुछ रुपये जोड़ गांठ कर शादी की थी। और जब ये कालीचरण की बहू कस्बे में आई थी तो हल्ला मच गया था। आज तक इतनी सुंदर बहू किसी की न आई थी और लोग ठठ बांधकर उसे देखने चल पड़े थे। मैं भी गया था बहू देखने। और जब मैंने इतनी सुंदर बहू देखी थी तो मुझे कालीचरण याद हो आया था। वह तो .. वह तो .. केवल एक टूटी फूटी मड़ैया का मालिक था ओर उसका ये खंडहर होता घर ..?
जंगल में जाकर इस तरह के प्रश्न पैदा नहीं होते थे! लेकिन स्कूल ने तो मुझे रास्ता चलते चलते सीख देनी शुरू कर दी थी!
अब मैं स्कूल के सामने आ खड़ा हुआ था।
चार छह कमरों की एक आमंत्रित करती इमारत थी। नीम और पीपल के पेड़ स्कूल के प्रांगण में छाया रोपे थे। सामने कुआं था ओर बाएं मंदिर। पीछे बगीचा था और उसके पास ही थी पोखर! जंगल जैसे विस्तार यहां न थे। यहां तो सब कुछ नपा तुला था। सब कुछ परिधियों में बंधा था और व्यवस्थित तथा संगठित था।
“फंस जाओगे कृपाल – इस माया जाल में!” जंगल ने मुझे एक बार और चेताया था। “मेरे जैसी आजादियां .. यहां कहां?” वह हंस रहा था। “सुबह का भूला शाम को घर लौट सकता है, कृपाल!”
एक जिद्दी बालक की तरह मैंने जंगल के इस आग्रह को अंगीकार नहीं किया था!
मैंने जब आंख उठा कर देखा था तो मुझे पूरन नजर आ गया था।
पूरन मेरा गाढ़ा यार था। अब मेरी प्रसन्नता के पारावार न थे। मुझे तो जैसे पतवार मिल गया था और अब इस महासागर में मैं डूबने वाला न था। वह सामने के चबूतरे पर बिछे टाट पर बैठा था। वहां ऐ मेज ओर कुर्सी लगी थी। साथ में एक काला ब्लैक बोर्ड तिपाही पर धरा था। और कुछ आते जाते विद्यार्थी बिछे टाट पर घोंसलों में घुसते पंछियों की तरह आ आ कर बैठते जा रहे थे। मैंने भी हिम्मत जुटाई थी और मैं पूरन के सामने आ खड़ा हुआ था।
गजब ये हुआ था कि पूरन ने भी मुझे एक बिजुके की तरह संदिग्ध निगाहों से निहारा था ओर वह हैरान परेशान हुआ कुछ बोल ही न पाया था।
“पढ़ने आये हैं!” मैंने ही बीच की चुप्पी को तोड़ा था। “अब भेंस न चराएंगे!” मेरा ऐलान था।
“यार कृपाल ..” पूरन भ्रमित था। वह कुछ समझ न पा रहा था कि मेरा क्या करे? “ये .. ये .. कक्षा एक है!” उसने कठिनाई से कहा था।
“जो भी है यार! मैंने तो तुम्हारे पास ही बैठना है!” मेरा निर्णय था और मैं अपना बस्ता टाट पर रख पूरन के पास बैठ गया था।
और जब पंडित जी आये थे तो हम सब खड़े हो गये थे!
पंडित जी ने निगाहें भर कर मुझे देखा था। मैं तनिक सकपका गया था। मुझे लगा था कि अब कोई कयामत अवश्य टूटेगी!
“आप .. आप .. उन दुर्गा के नाती हैं न ..?” पंडित जी ने सीधा सवाल मुझसे किया था। अन्य सहपाठियों ने भी इस सवाल को सुना था। दुर्गा का नाम यूं मशहूर है – मुझे भी पहली बार ही एहसास हुआ था!
अचानक ही मेरी ऑंखों के सामने मेरी दादी जी – दुर्गा का रूप स्वरूप आकर ठहर गया था। वो बाल विधवा थीं। तपस्विनियों जैसी उनकी वेशभूषा मुझे बेहद भाती थी। सफेद लम्बे लम्बे बाल, सफेद परिधान-पोशाक ओर पैरों में पहने खड़ाऊं उन्हें अनायास ही एक विशिष्ट दर्जा दे देते थे।
“जी!” मैंने बड़े ही सलीके से उत्तर दिया था।
“चलो! जोड़ो से आरम्भ करते हैं!” मेरे दिए उत्तर की बिना परवाह किये पंडित जी ने अगला कार्यक्रम आरम्भ कर दिया था और सामने धरे ब्लैक बोर्ड पर चौक से दो संख्या लिखी थीं और नीचे एक लम्बी लाइन खींच दी थी।
सारे विद्यार्थी अपनी अपनी स्लेटों में कुछ करने धरने लगे थे। मैंने भी अपनी स्लेट निकाली थी, बत्ती संभाली थी लेकिन रुक कर खड़ा हो गया था। पूरन ने खूब अपनी स्लेट दिखाकर नकल कराने की कोशिश की थी लेकिन मुझे लिखना आता कहॉं था? फिर घटाओ का कार्यक्रम आरम्भ हुआ था और मैं नीची निगाहें किये टाट को देखता रहा था!
जब दूसरे पंडित जी आये थे तो किताबें खुल गई थीं। उन्होंने मुझे कुछ न पूछा था। लगा था – स्कूल में जैसे मुनादी हो गई थी कि मैं – दुर्गा का नाती यूं ही स्कूल में चला आया था .. और ..
“भोला जामुन के पेड़ पर चढ़ा!” पूरन किताब पढ़ रहा था। “काले काले जामुन तोड़ तोड़ कर ..” पूरन कहता रहा था और मुझे लगा था कि मेरी ऑंखों से भी मोटे मोटे आंसू झर रहे थे और टाट को गीला कर रहे थे। मैंने किताब में छपे जामुन के पेड़ और उसपर चढ़े भोला को देख लिया था। लेकिन ..
खूब आम और जामुन तोड़ तोड़ कर खाते थे हम। खूब ऊधम मचाते थे – रखवालों के साथ और मौका पाते ही उनका माल साफ कर देते थे। लेकिन ये पेड़ पर चढ़ा भोला और ये काले काले जामुन कोई भिन्न तरह की बला ही थी। अब क्या हो – मैं समझ ही न पा रहा था।
उस दिन शनिवार था – मुझे याद है। स्कूल में दोपहर के भोजन के बाद पढ़ाई नहीं कीर्तन होता था। हम सब मुख्य हॉल में इकट्ठे हो अब कीर्तन करने लगे थे। सभी अध्यापक लोग आ बैठे थे और स्कूल के हैडमास्टर पंडित तेज पाल भी उपस्थित थे। उन्होंने एक भरपूर निगाह मुझपर देर तक टिकाते हुए कुछ नाप तोल जैसी की थी। मैं सहम गया था! मेरे दोनों भाइयों ने मुझे कीर्तन में बैठा देख लिया था लेकिन कहा कुछ न था।
घर लौटते वक्त मेरे पैरों का दम चुक गया था। जंगल से लौटने वाला उत्साह और उन्माद खोजे न मिल रहा था। लग रहा था जैसे मेरी अभिलाषा का आज अंत आकर रहेगा और मैं किसी तरह भी उसे रोक न पाऊंगा। जोड़ो – घटाओ और फिर वो भोला? पेड़ पर चढ़ा भोला मुझे आवाजें दे रहा था और मेरा मुंह चिढ़ा रहा था ..
“सो कैसा रहा ..?” भाई साहब ने मुझ पर तरस खा कर पूछा था।
क्या बताता? कैसे बताता? और क्यों बताता? मैंने उनके प्रश्न को पचा लिया था। मैं उन्हें अपनी दयनीय दशा बताना न चाहता था। मैंने उन्हें उलटे ही एक प्रश्न पूछ लिया था!
“भाई साहब! ये जोड़ो क्या होता है?” मेरी ऑंखों में गजब की जिज्ञासा उठ खड़ी हुई थी।
“जोड़ो का मतलब है – पांच और पांच कितने हुए?”
“दस!” मैंने तुरंत उत्तर दिया था।
“यही है – जोड़ो!” उन्होंने विहंस कर कहा था।
“और घटाओ?” मेरा दूसरा प्रश्न था।
“पांच में से तीन गये तो कितने बचे?” उन्होंने फिर पूछा था।
“दो!” मैंने फिर से उत्तर दे दिया था।
“यही हो गया घटाओ!” उन्होंने स्पष्ट कह दिया था।
“और .. और .. ये हासिल कैसे लगेगा?”
“बड़ी संख्या होगी नीचे तो ऊपर वाली में दस जोड़ देंगे और बाकी को हासिल के बतौर अगली संख्या में जोड़ देंगे!” वो बताने लगे थे।
मैं झट से स्लेट और बत्ती ले आया था। अब हम दोनों चारपाई पर बैठ कर सारा जमा जोड़ समझ और समझा रहे थे। मैंने भाई साहब से फटाफट सारे प्रश्नों के उत्तर पा लिए थे और उन्हें जोड़ घटा कर सवाल कर के दिखाए थे तो वो मान गये थे।
“और भाई साहब .. ये भोला .. मेरा मतलब कि किताब में देख कर पढ़ना?”
“बारह खड़ी की किताब खरीद ला! सब लिखा है उसमें। मैं बता दूंगा!” उनकी राय थी और मैंने उसे तुरंत ही मान लिया था।
उस किताब के भीतर जो लिखा था वह भाई साहब ने समझाया था तो मेरी ऑंखें खुली थीं। फिर मैंने सब कुछ रट डाला था और घोट डाला था और फिर स्लेट पर लिख लिख कर देखा था। देर रात तक मैं दीपक जला कर लगा ही रहा था जब तक कि मैंने अपने इच्छित उत्तर न पा लिए थे। ओर फिर मैं कक्षा एक की किताबें खरीद लाया था। इतवार तो था ही। छुट्टी थी। मुझे सुनहरी अवसर मिल गया था। मैंने किताब पढ़ने में फिर से भाई साहब की मदद ली थी और मैं किताब पढ़ने लगा था। अब मैंने भोला से आगे का सबक ‘बंदर बांट’ भी पढ़ लिया था और समझ भी लिया था!
उस रात .. उस रात के अंधेरे में एक अलौकिक प्रकाश मेरे भीतर उगा था और आहिस्ता आहिस्ता मेरे भीतर प्रवेश करता ही चला गया था!
आज मुझे फिर से स्कूल आया देख आस पास बैठे विद्यार्थी हंस गये थे!
लेकिन गजब तो जब हुआ था तब मैंने जोड़ो का सवाल स्लेट पर हल किया था और पंडित जी के सामने सब से पहले स्लेट उलटी कर रख दी थी!
पंडित जी चौंके थे। पंडित जी ने भी इस बार मुझे गौर से देखा था। फिर उन्होंने मेरी स्लेट सीधी की थी और सवाल को पढ़ा था। चूंकि सवाल सही था अतः पंडित जी के भी होश उड़ गये थे! था तो कमाल ही .. और था तो कोई करिश्मा ही .. पर हुआ तो था और उनकी ठीक निगाहों के सामने ही घटा था!
उसके बाद विद्यार्थियों की बारी थी गश खाने की जब मैं उन सब में मुक्के लगा रहा था जिनके सवाल गलत निकले थे!
और दूसरे पंडित जी आये थे। मैंने अपना दूसरा तीर भी तरकश से निकाल कमान पर चढ़ा लिया था। मैंने अपनी किताब खोली थी और ‘बंदर बांट’ पर मेरी निगाहें केंद्रित थीं!
“कौन पढ़ेगा?” पंडित जी ने प्रश्न पूछा था।
“मैं पढ़ूंगा पंडित जी!” मैंने कहा था और किताब खोल कर खड़ा हो गया था।
पंडित जी हैरान परेशान हुए मुझे कई पलों तक देखते रहे थे। “पढ़ो!” उनका आदेश आया था और मैं ‘बंदर बांट’ को सड़ासड़ पढ़ता चला गया था।
आज के दिन हमारे स्कूल में एक अद्भुत घटना घटी थी और इस घटना की चर्चा सुन कर पंडित तेज पाल भी हैरान रह गये थे!
“धरा जीत! अब तक कहां था – ये तुम्हारा भाई – कृपाल?”
“भेंस चराता था!” भाई साहब ने उत्तर दिया था।
मेरे स्कूल जाने की इस घटना ने एक वृहत जिज्ञासा को जन्म दे दिया था।
“चों रे, ग्वारिया! तू अब पढ़वे जाये ..?” अचानक ही एक दिन कालीचरण की बहू ने मेरा रास्ता रोक कर मुझे प्रश्न पूछ लिया था।
मैंने उसके हुस्न को आज पहली बार ऑंखें भर कर देखा था।
“क्यों री चित्रांगदा! तुझे तो किसी ताज महल में स्थापित होना चाहिये था! लेकिन तू इस खंडहर में क्या खोज रही है?” मैं भी कालीचरण की बहू को पूछ लेना चाहता था। लेकिन फिर अपनी पलकें झुका कर मैंने सीधा स्कूल का रास्ता गहा था। मैंने उसे कभी कोई उत्तर न दिया था।
कारण – अब मैं अपनी क्लास का मॉनीटर था और ये कैसे बताता मैं कालीचरण की बहू को?
लेकिन मैं आपको बताता हूँ कि आज भी जब कभी भी मुझे परिस्थितियों ने आकर घेरा है, मुझे परास्त करना चाहा है .. चाहा है कि मैं हार जाऊं .. मैदान छोड़ कर भाग जाऊं तब मैं भागा हूँ और जंगल में जा छुपा हूँ! कदम के पेड़ पर चढ़ा मैं दुनिया का विहंगम दृश्य देख, सही गलत को समझ लौटा हूँ और लड़ा हूँ!
“क्यों बुलाया हमने इस ग्वाले को राजसी भोज पर?” मैंने दुर्योधन की आवाजें भी सुनी हैं। “ये तो वहीं जाएगा – काका श्री के पास और साग भात खाएगा!”
और कालीचरण की बहू का संबोधन भी सही था! मैं भी हूँ तो ग्वाला ही – आज भी और कल भी!
मेजर कृपाल वर्मा

