‘उ-ई’ माँ ! मैं जल गई थी !!
कहानी – तीसरी किश्त :-
मैं पोलू को आवाज़ देते-देते रुक गई थी .
ऐसा नहीं कि पोलू – जो मैं हुक्म देती वह नहीं बनाता ? और ऐसा भी नहीं था कि ..पोलू कोई नौसिखिया था ! पोलू पांच सितारा होटल ‘मॉडर्न’ से सेवा निवृत हो कर मेरे पास आया था . पोलू के हाथ का बना खाना खाने के लिए मेरी दोस्त पिंकी टेलर फ़्रांस से भागी-भागी आती थी ! लेकिन हाँ , …लेकिन मैंने आज न जाने क्यों पोलू को नहीं पुकारा था !
न जाने कैसी एक हौंस मुझ में भर आई थी …..न जाने क्यों मैं आज वर्षों के बाद अपनी माँ के बोल सुन रही थी , “सोती रहेगी ….?” माँ चिल्ला रहीं थीं . “कल को कोई पल्ले बंधा तो ….क्या खिलाएगी ….उसे ……?” उन का प्रश्न मैं आज भी साफ़-साफ़ सुन रही थी . और आप मेरा दिया उत्तर भी सुन लीजिए , “खसम के हाड !” मैंने कहा था . मैं हंसी थी और फिर सो गई थी ! ये ‘खसम के हाड’ वाला उत्तर भी मेरी माँ का ही कथन था ! मैं …हाँ,हाँ ! मैं अपनी माँ के साथ बेहद अनौपचारिक तरीके से जीती थी . वह भी चाहतीं थीं कि मैं …जब तक उन के पास रहूँ …मुझे कोई गम छुए तक नहीं ! मैं उन की अकेली थी ….और मेरे पिता उन्हें न जाने कब छोड़ कर चले गए थे ! बस , मैं ही उन के लिए उन का सर्वश्व थी !!
“क्या बनाऊं …..?” मैंने बड़े लाड के साथ पूछा था . जैसे मेरी माँ मुझे पूछती थी ….बिलकुल उसी तरह …आज मैंने भी उसे प्रश्न पूछ लिया था .
“कुछ भी …..!” उस ने भी विंहस कर मुझे कृतार्थ किया था . “योर ….चोइस ….!” उस ने जोर दे कर कहा था .
लो, एक और मुशीबत गले आन पड़ी थी . मन भागने लगा था . ‘ये बना दो ….नहीं,नहीं ! ….ये नहीं ! तुम से नहीं बनेगा ….!! पोलू की बात और है . तुमने कभी कुछ बनाया भी है ….? कुछ हल्का-फुल्का ही बना डालो ! भूखा है . सब चाट जाएगा !! मैं हंसी थी . माँ का भी तो यही फ़ॉर्मूला था ! जब मैं बहुत भूखी होती थी ….तो चालू बना कर खिला देती थी . फिर हंसती भी थीं . लेकिन नहीं ! मेरा मन आज उसे कुछ भी चालू बना कर खिलाना न चाहता था ! मैं चाहती थी कि कुछ ……
“चलो, कुछ बना लाती हूँ !” मैंने उस से कहा था और किचिन में दौड़ गई थी . मेरे पैरों में न जाने कहाँ से दौड़ने की सामर्थ उग आई थी …? मैं जल्दी में थी . और अब कुछ ऐसा बना डालना चाहती थी कि वह उंगलियां चाटता रह जाए ! “ओए, ….पो ….” नहीं,नहीं ! मैंने पोलू को नहीं पुकारा था !
लेकिन क्या करती ….? यहाँ तो एक संग्राम मच गया था ! कहीं कुछ भी ठीक होता न दिख रहा था ! पर मैं थी कि ….पूरी सामर्थ के साथ लगी थी …! कुछ भी बना रही थी ….अकेली ….!! ‘उ-ई, माँ !’ मैं चीख पड़ी थी . मैं जल गई थी . क्या करती …? हाथ ठीक से काम ही न कर रहे थे . उस के लिए ‘कुछ’ बना रही थी ….न ….!!
“क्या हुआ …..?” मेरी चीख सुन कर वह भागा चला आया था . “अरे,रे …! बहुत जल गई हो ….!!” उस ने मेरा हाथ थाम लिया था . “बाई , गॉड ….!!” उस ने आह रिताई थी . “अरे, कोई है ….?” वह जोरों से चीखा था . पोलू भागा चला आया था . “बरनौल ले कर आओ ….!” उस ने हुकुम दागा था .
अब वह मेरे जले पर वर्नौल लगा रहा था . आहिस्ता …आहिस्ता …बड़े ही सधे अंदाज़ में वह अपने काम में लींन था ! मैं उसे देख रही थी ….सराह रही थी ….चाह रही थी ….! सच मानिए मैं अपनी पीड़ा भूल …उस के किए स्पर्शों का आनंद उठा रही थी …और चाह रही थी कि ये पल ….यूं ही चलता रहे ….टिका रहे ….और ये मेरी मरहम -पट्टी करता ही रहे ….ताउम्र !!
ताउम्र कहते ही मेरे स्मृति-पटल पर अनेकानेक खट्टे-मीठे स्पर्शों की अनुभूति उभर आई है ! उकर आते हैं वो भय भरते स्पर्श ….चीखें उगाते स्पर्श ….दंश देते स्पर्श ….और वो स्पर्श जिन्होंने मुझे इस नरक में धकेल दिया – मेरी सुन्दरता के श्राप-वश !!
“मैं बनाता हूँ, मैं -म …!” पोलू ने कहा था . “आप ने आवाज़ क्यों नहीं दी ….?” उसने पूछा था .
“नहीं, तुम जाओ ! मैं ही बनाउंगी ….!!” मैंने कठोर स्वर में कहा था .
“और मैं मेडम का साथ दूंगा ….!” उस ने कहा था और सच में ही मेरे साथ मिल कर खाना पकाने लगा था .
हे, भगवान् ! ये कैसा संयोग था ….? बिलकुल मेरा माँगा वरदान जैसा ये वक्त मुझे बावला बना रहा था …!!
“मैं अपनी माँ की मदद करता था !” वह बताने लगा था . “अकेली थी . बूढी हो गई थी . मेरे सिवा उस का और कोई नहीं था . उस ने मुझे जान पर खेल कर पाला था., मौना !” वह भावुक था . “घोर गरीबी में भी उस ने मुझे कभी भूखा नहीं सुलाया !” उस की आँखें नम हो आईं थीं .
अब हम दोनों एक दूसरे को आँखों में घूर रहे थे ! हम दोनों अब एक थे ….हम दोनों अब साथ-साथ थे ….! कैसा अनूठा आगमन था – इस आदमी का ….मैं सराहने लगी थी !!
“खिलाओ ….न ….?” उस ने आग्रह किया था . “माँ खिलाती थी तो …..” वह मेरे समीप था …बहुत समीप . “माँ जैसा बना है . कितने दिनों के बाद ….आज पेट भर कर खाया है ! ” उस ने मेरी प्रशंशा की थी . “लो, मेरे हाथ से खाओ !” उस ने मुझे अपने साथ खिलाया था . “का;श ! आज अगर मेरी माँ होती तो ……”
लेकिन फिर मैं …उस के लिए अपनी माँ को भी भूल गई थी !!
और प्रसन्नता के इन पलों में मुझे शरारत सूझी थी ! मैंने जोरों से उस की उंगली काट ली थी ! वह जोरों से चीखा था . उस ने भरपूर आवाज़ में ‘डर्टी डायलोग ‘ बोला था . और मैं ….? मैंने भी जम कर जो मूं आया था – सो बका था !! वह मुझे पकड़ने भागा था . मैं भागी थी . पूरी भोग शाला में ….हम दोनों …दो हिन्दुस्तानी सांडो की तरह जीत-हार का खेल खेल रहे थे !
उस ने मुझे पकड़ लिया था ! मेरी मुश्क बाँध मुझे ज़मीन पर पटक लिया था ! फिर …..फिर वो …मेरे ऊपर चढ़ बैठा था !!
“ओ,ह ….गॉड …….!!!”
………………..
क्रमश;-
श्र्तेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!