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जंगल में दंगल संकट आठ

हुल्लड़ अपने खेमे में पहुंचा था तो प्रश्नों की झड़ी लग गई थी!

“कब तक मर जाएगा आदमी ..?” गोधू हाथी ने पूछा था।

“हुल्लड़ भाई! अब तो कोई खतरा नहीं? आ गये ना आराम के दिन!” लंगड़ा हंस रहा था। “चलो अच्छा हुआ – जो मरा ये आदमी!”

“पर मारा किसने इसे हुल्लड़ भाई?” बोधी कुछ समझ नहीं पा रहा था तो पूछा था। “कुछ बात समझ नहीं आ रही है! आदमी और लोमड़ी गीदड़ों से मात खा जाए?”

“अजूबे नहीं होते क्या?” अब तारा बोली थी। “बुरा वक्त आने पर अच्छे अच्छों के घुटने टिक जाते हैं! आदमी का अजूबे के सामने उठेगा क्या?”

“लेकिन वह अजूबा अभी हुआ कहां है तारा!” हुल्लड़ ने अपनी सूंड़ हिलाई थी। वह किसी गहरे सोच में डूबा था। “यह अजूबा तो अभी होना है! और इसके होने में हमने भी तो साथ देना है!” हुल्लड़ ने बात को आगे बढ़ाया था।

“मतलब ..!” लंगड़ा तन कर सामने आया था। “जंग होगी क्या?” उसने सीधे सीधे पूछा था।

“हो सकती है!” हुल्लड़ ने सर हिलाया था।

“सो तो मर गये! समझो – सत्यानाश!” रो सा पड़ा था लंगड़ा। “जानते तो सब हो हुल्लड़! क्या खा कर लड़ेगा कोई आदमी से?” कराहते हुए बोला था लंगड़ा। “भगवान तक तो डरने लगा है आदमी से! ये साले शेर गीदड़ क्या खाकर लड़ेंगे?”

“सहमत होकर, एक मत होकर, इकट्ठे होकर और सब एक मोर्चा बनाकर अगर लड़े तो हो भी सकता है कि फतह हो जाये!” हुल्लड़ ने एक विचार आगे बढ़ाया था। “तंग तो सभी है और सभी डरे हुए हैं! सब की जान पर बनी है। अब लड़ने के अलावा कोई और रास्ता है क्या?”

“संधि कर ली जाये!” बोधू का सुझाव था।

“हमारे साथ जंग कौन लड़ रहा है? हमें तो हमारा हक मिलता ही है!” तारा बोली थी। “दुख सुख बांट कर हमारे साथ तो वह रह लेता है!”

“प्रेम प्रीत में भी आदमी सबसे अच्छा है!” हुल्लड़ ने तारा का समर्थन किया था। “याद हो तो – आदमी हमारे साथ खूब रहा है – जंगल में! तब तो हम आदमी से आगे थे। उससे कई गुना अच्छे थे, ताकतवर थे और हमारा ही जंगल पर राज था। हम खुले घूमते थे तो वह गुफा बना कर छुप कर रहता था और हम ..!”

हाथियों के झुंड के झुंड जैसे हवा पर तैर आये थे और वक्त एक बारगी ठहर कर देखने लगा था। हाथियों के झुंड पर शेर करता कब था? और न उस झुंड के सामने आदमी ही ठहर पाता था! हवा तक रुक जाती थी। पानी ठहर जाता था। तब हम हाथियों का जंगल में राज था।” हुल्लड़ ने सांस छोड़ कर कहा था।

“क्या अब हमारा राज फिर से नहीं हो सकता?” बोधी का प्रश्न था।

“इस आदमी ने आविष्कार बहुत कर लिये हैं भाई!” हुल्लड़ ने कुछ सोचते हुए कहा था। “अपनी ही मौत मरे – तो मरे!” अब उसने तारा की ओर देखा था।

तारा ने सब ताड़ लिया था!

अभी दिल्ली बहुत दूर थी। आदमी के जिंदा रहने का शोक मनाना ही अभी शेष था। जंगल में जाकर जानवरों का साथ देना ही न्याय संगत था। हार जीत तो किसी की भी मोहताज न थी। ये तो मौके मौके की बात थी। क्या पता – जानवरों का मौका बैठ ही जाए!

“यूं भूखे मरने से तो लड़ना ही अच्छा रहेगा!” हुल्लड़ का यही सुझाव था। “लेकिन अगर आदमी मर जाता है तो ..!”

“तो राज हमारा!” लंगड़ा लपक कर बोला था। “फिर तो वही सैर सपाटे!” वह हंसा था। “हुल्लड़ भाई! तय कर आते ..”

“अब मैं मिलूंगी सुंदरी से!” तारा ने दांत दिखाते हुए कहा था। “सत्ता में हमारा हिस्सा भी तो रहेगा ही?”

“हिस्सा कित्ता नहीं जी!” लंगड़ा बिगड़ गया था। “हम न मानेंगे किसी की! एक छत्र राज हाथियों का ही होगा!” उसने घोषणा की थी। “और अबकी बार हम भी आदमी की तरह आविष्कार करेंगे! आदमी की तरह हम भी .. छा जाएंगे! धरती आकाश .. पाताल सब का सब हाथियों का होगा!” उसने घोषणा की थी।

“लंगड़ा भाई!” हुल्लड़ ने आजिजी से कहा था। “जब हम सब मिल कर लड़ेंगे तो ..?”

“आदमी से सीखो, हुल्लड़!” लंगड़ा हंसा था। “पहले तो सबकी पूजा करता है फिर सब से समझौता करता है और फिर सबको मनाता भुनाता है! और फिर मुबारक मौका आते ही सब गड़प!” उसने आंख उठा कर जमा हाथियों के झुंड को देखा था। “पगलों! इसी गलती में तो मारे गये हम! आदमी के झांसे में आ गये और गये ..!”

सभी हाथियों ने एक साथ महसूसा था कि लंगड़ा ठीक बात कर रहा था। हाथी सबसे बलवान थे! बुद्धिमान भी थे! फिर भी अगर उनका राज न हो – ये क्या तुक थी?

मेजर कृपाल वर्मा

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