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जंगल में दंगल संग्राम तीन

बिजली भी गुल होने लगी थी। सारे काम-काज धीरे धीरे ठप होने लगे थे। कल-कारखाने भी अपना जीवन दे बैठे थे जैसे। उन्हें चलाने वाला आदमी अशक्त था और बीमार हुआ उनके आसपास ही पड़ा था।

पानी का संकट भी शुरू हुआ था। नलों में बहता स्वच्छ पानी एकदम बंद हो गया था। अब लोग कहां से लाएं पानी – समस्या खड़ी हो गई थी। पहले जैसे कुंए तो अब रहे नहीं थे। न ही नदियों में पीने योग्य पानी बचा था। और नाले, पोखर और तालाब तो न जाने कब के सूख गये थे।

आदमी के साथ साथ पालतू पशु भी प्यास से मरने लगे थे।

आदमी का बनाया बसाया स्वर्ग संसार अस्त-व्यस्त होता ही जा रहा था। एक वीरानी थी – जो धीरे धीरे और दबे पांव चलती ही चली आ रही थी। एक भय था, एक अज्ञात का आतंक था और था एक निराशा का अंधकार जो आदमी के दिमाग पर छाता ही जा रहा था।

हर कोई लाचार था, बीमार था, अंधा या अपाहिज था और था मरने को तैयार।

कोई लड़े भी तो किससे लड़े?

सेनाएं तो अपने आप में ही सिमट कर रह गई थीं।

सेना के हथियार, उनकी ट्रेनिंग, उनका लड़ने का अंदाज और उनका युद्ध कौशल उनके किसी काम का नहीं था। सैनिक भी बीमार थे, अंधे थे और अपाहिज थे। उनका अपना पूरा तंत्र ही बैठ गया था। छावनियों में होती चहल-पहल गायब थी। जहां तहां पड़े बीमार और अपाहिज सैनिक किसी अनाम भय से भरे थे और किसी अज्ञात में गुम हो गये लगे थे।

ये सब हो क्या रहा था – किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था।

जो लोग समुद्र के गर्भ में सुरक्षित जा बैठे थे वो भी अनुमान लगाने में अभी तक असमर्थ थे कि आखिर धरती पर कहर ढाता ये राक्षस था कौन? उन्हें न कुछ सूझ रहा था ओर न कुछ बूझ पा रहे थे ये लोग। उनका पूरा तारतम्य धरती से टूट गया था। उन्हें अब स्वयं से ही डर लगने लगा था कि अगर धरती पर यह नरसंहार यों ही चलता रहा तो वह भी समुद्र के गर्भ में ही डूब मरेंगे अकारण।

आसमान पर उड़ता आदमी भी अभी तक कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था कि करे तो क्या करे? उसके पास भी उड़ते रहने के विकल्प कम थे। गैसोलीन खत्म होने के बाद उन्हें भी पृथ्वी पर ही उतरना पड़ेगा वह जानते थे। लेकिन उस दशा में तो मौत के सिवा और कोई विकल्प बचेगा ही नहीं।

हर जीव धारी को अपने प्राणों से ज्यादा प्यारा और कुछ नहीं लगता!

सुरंगों में समा गये आदमी अपने प्राण बचाने के लिए प्राण पण से चेष्टा कर रहे थे।

“ये सब क्या चल रहा है काग भुषंड भाई?” छज्जू बंदर ने डाल पर बैठे विश्राम करते काग भुषंड को पूछा था। “बड़ी जल्दी-पल्दी में हो ओर किसी बड़ी जंग को अंजाम देते लग रहे हो?” उसने प्रश्न पूछा था।

काग भुषंड तनिक हंसा था। वह जानता था कि छज्जू बंदर आदमियों का मुंह लगा था। केले और गुड़ चने खा खाकर वह खूब मोटा हो गया था। और आदमी उसे देवता मानते थे, वह यह भी जानता था। मूर्ख थे ये मनुष्य। बंदरों को माल खिलाते खिलाते इन आदमियों ने कभी कौवों के बारे में तो सोचा ही नहीं।

“अब तो भूखों मर रहे हो?” काग भुषंड ने प्रति प्रश्न किया था। “माल नहीं मिल रहा? अब तो पूजा भी नहीं हो रही लगती?” हंसा था काग भुषंड और उड़ गया था।

बेचारा आदमी! जब वह खुद ही भूखा मर रहा था ओर सड़कों पर बेहोश पड़ा था तो छज्जू के लिए गुड़-धानी कहां से आती?

“बंदरों से बचा जाए!” शशांक ने पहली चेतावनी उछाली थी। “बंदरों को हम पर शक हो गया है। छज्जू ने दुश्प्रचार आरंभ कर दिया है। काग भुषंड ने मूर्खता फिर की है।” शशांक तनिक घबराया हुआ था।

नकुल ने पृथ्वी राज को घूरा था। काग भुषंड पर हर किसी को शक था। वीर होने के साथ साथ वह था महा मूर्ख। जरूर उसने छज्जू से मुंह लड़ाया होगा – यह बात सब को जंच गई थी।

“जरासंध भाई! कर दो बंदरों को भी बावला!” तेजी ने विहंस कर कहा था।

एक महत्वपूर्ण बात थी यह। बंदरों को भी आदमियों के साथ बावला किया जाए कि नहीं? बंदरों का इलाज हो तो क्या हो?

“लालू जी आप की क्या राय है?” नकुल ने बात को मोड़ा था। यों अनायास ही बंदरों से उलझ पड़ना नकुल को भी जंच नहीं रहा था।

लालू भी किसी गहरे सोच में डूबा था। वह तो बंदरों को जानता था। वह उन्हें पहचानता भी था। उसे शक न था कि आदमी के बाद बंदर ही एक ऐसी शै थी जिसे मात देना दुर्लभ था।

बंदरों के आगे जरासंध की भी दो कौड़ी नहीं उठनी – लालू ये जानता था। बंदर तो बीमारियों के बैरी थे। बंदरों की काया आदमियों से कही ज्यादा मजबूत थी। और अगर बंदर बिगड़ गये तो समझो खेल बिगड़ गया।

आदमी मर भी गया तो बंदर पूरी धरती के स्वामी होंगे यह लालू को एक-बारगी समझ आ गया था।

“सारा का सारा दोष बंदरों के सर मढ़ दिया जाए!” लालू ने अपने सोच से उबरते हुए कहा था। “बंदर भगवान के श्राप से ये सब हो रहा है – इस बात को प्रचारित किया जाए शशांक भाई।” लालू ने पृथ्वी राज को घूरा था।

गरुणाचार्य अभी तक मौन थे। उन्हें बंदरों से बहुत डर लगता था।

दूसरी दुनिया के लोग इस दुनिया के आदमी से नहीं लड़ रहे थे – यह बात साफ होने लगी थी।

यह था तो कोई दैवीय प्रकोप। देव अप्रसन्न थे शायद। आदमी से अवश्य ही कोई ऐसी भूल हुई थी कि देव रूठ गये थे। और अब देव अपना प्रकोप दिखा रहे थे और आदमी को उसके गुनाहों का दंड दे रहे थे।

बचेगा कोई नहीं यह बात तकरीबन तय हो चुकी थी।

हर आदमी अब अपने मरने का इंतजार कर रहा था। सब ने अपनी तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं को ताक पर रख कर देवी देवताओं की पूजा आरंभ कर दी थी।

लालू अति प्रसन्न था। उसका दूसरा तीर भी ठिकाने पर लगा था।

मेजर कृपाल वर्मा
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