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जंगल में दंगल संग्राम पंद्रह

हुल्लड़ ने अब तक की स्थिति पर काबू पा लिया था। उसने अपने दस्तों को एक साथ टूट पड़ने के आदेश दे दिए थे। पुरानी सिखलाई के आधार पर वह तो जानता था कि आदमी हमला कैसे करता था। एक साथ, एकजुट और एकमत होकर किया हमला पार जाएगा – उसने घोषणा की थी।

जंगलाधीश हाथियों की पीठ के पीछे ही खड़ा था। हर मुसीबत के दांत कीलना उसे आता था। आदमी की परछाई भी दिखाई दी तो वह उन्हें फाड़ कर फेंक देगा।

पृथ्वीराज पूर्ण आश्वस्त था कि संगठित होकर किया हुआ उनका आक्रमण अवश्य ही कामयाब होगा।

पहला वार हुल्लड़ ने ही किया था। आदमी के भेजे यंत्र तंत्रों पर हाथियों का हुआ हमला जानलेवा तो था और कामयाब भी रहा था। हुल्लड़ के रणबांकुरों ने उन सामने आए यंत्र तंत्रों को सूंड़ में भर भर कर फेंक चलाया था और सब को अस्त व्यस्त कर डाला था। पहले पैरों तले रौंदा था और फिर उन्हें पेड़ों से मार मार कर तोड़ा था।

दूर की पहाड़ियों पर जा गिरे थे यंत्र तंत्र और जब कुल्हड़ों की तरह गिर गिर कर टूटे थे तो शेरों की हंसी छूट गई थी।

हुल्लड़ ने भी आंख उठा कर हुई विजय को देखा था। वह भी हंसा था। वह महा प्रसन्न था और सूंड़ उठा कर जोरों से खरहारा था।

सर्पों के होंसले भी बुलंद हो गए थे। हाथियों और शेरों को मिली सफलता ने उनके भी होंसले बुलंद कर दिए थे। वह मान गए थे कि यह मात्र आदमी की गुमराह करने वाली एक चाल थी। असल में तो वह हार ही गया था और छुप गया था .. शायद भाग गया था।

“भाग कर कहां जाएगा!” मणिधर ने फुंकार कर कहा था। “धरती तो अब हमारी होगी। हम इसे रहने क्यों देंगे?” उसने घोषणा की थी।

सांपों के झुंड के झुंड आदमी पर हमला करने के लिए दौड़ पड़े थे। आदमी तो बेखबर था। वह तो प्रभु का गुणगान कर रहा था। उसे तो सर्पों के होते हमले का भान तक न था।

मणिधर बेहद प्रसन्न था।

लेकिन जब उसने हुल्लड़ की चीख पुकार सुनी थी तो वह सन्न रह गया था।

एक दैवीय प्रकोप जैसा ही हुआ था। पहाड़ पर खुले पड़े उन टूटे फूटे यंत्र तंत्रों में से ही कुछ चमका था। तलवार की धार जैसी तेज रोशनी भागी थी और उसने हमला करते करते हाथियों की सूंड़ काट कर फेंक दी थी। यों जमीन पर कट कर गिरी सूंड़ को देख कर हाथी चीखे थे, चिल्लाए थे, उछले थे और फिर भाग खड़े हुए थे।

एकाएक धरती पर बहता खून शेरों के भी पंजे रंगने लगा था। अब शेर भी सकपकाए थे। हमले के लिए तैयार तो हुए थे लेकिन तभी उन पर भी वार हुआ था। एक अजब गजब सी रोशनी दौड़ी थी और उनके शरीरों के आर पार हो गई थी।

शेर न अब शेर थे, न गीदड़ थे, न उनके दांत थे और न उनके पंजे थे। एक तरह से नपुंसक हो गए थे शेर। और अब भागते भी तो कैसे। ओर जाते भी तो कहां जाते।

अजीब तरह का बाय बेला उठ खड़ा हुआ था।

शशांक की आंखें नम थीं। वह सामने के दृश्य को देख दहल गया था। वह अब कुछ समझ रहा था और सोच रहा था। लेकिन उसके भी होश उड़ गए लगे थे।

“सर्पों को कहो कि ..!” पृथ्वीराज कहते कहते रुक गया था। उसने भी एक अजीब तरह की आवाज सुनी थी। कोई एक रोता बिलखता स्वर था ..

नकुल के पीछे पीछे चलती तेजी को भोली ने चोरी से झपट्टा मार कर अपने पंजे में भर लिया था। तेजी बिलबिलाई थी। तेजी चीखी थी जोरों से चिल्लाई थी। लेकिन भोली ने उसका मुंह भी बंद कर दिया था।

“हां हां! ये आवाज तो है ही तेजी की!” पृथ्वीराज के विवेक ने उसके शक की पुष्टि की थी। “लेकिन .. तेजी ..? जहां वह तेजी को बिठा कर आया था वहां तो किसी का पीर भी नहीं पहुंच सकता था। तेजी – और वह किसी के चंगुल में फंस जाए? नहीं नहीं! उसे कोई भ्रम हो रहा था।”

“अरे ओ पृथ्वीराज!” अबकी बार आवाज भोली की आई थी। “ले जा अपनी इस दुल्हन को!” भोली कह रही थी। “मुझसे मिलने आई थी। गंगा मइया का प्रसाद देना था। सो मैंने इसे दे दिया है।” भोली कह रही थी। “अब तू राजा बन गया है न। गंगा मइया का आशीर्वाद भी तो तुझे चाहिए!” भाली का स्वर शहद सा मीठा था। “आ! मैंने तो तेरा आज ही राज तिलक करना है। आजा मेरे लाल!” भोली ने आग्रह किया था। “शुभ घड़ी है! शुभ मुहूर्त भी है। कहीं निकल न जाए?”

पृथ्वीराज हैरान था। भोली को कैसे पता था ये सब? तेजी कैसे और क्यों भोली के पास जा बैठी थी? क्या भोली ने सच में ही ..?

“सर्पों का हमला हो!” पृथ्वीराज ने हुक्म दागा था। “मैं अभी आया!” कह कर उसने अपनी बाईं ओर देखा था। कमाल ही था। नकुल कहीं गायब था।

तेजी की आंखों ने नकुल को जाते हुए देखा था। वह रुका नहीं था। मुड़ा भी नहीं था। बस चला गया था। अब तेजी को पृथ्वीराज के आने की उम्मीद थी। शायद पृथ्वीराज ही उसे बचा ले! शायद मौसी आज पृथ्वीराज का राज्याभिषेक कर दे .. और ..?

महारानी बनने की आशा तेजी के भीतर अभी भी जिंदा थी।

सर्पों ने हमला किया था। लेकिन न जाने कहां से और कैसे वही लपलपाती रोशनी की लहर दौड़ी थी और हमला करते सर्प जलकर भस्म हो गए थे। सर्पों में भगदड़ मच गई थी। मणिधर की भी घिघ्घी बंध गई थी। चारों ओर सर्पों की लाशें ही लाशें बिछ गई थीं।

आदमियों के टोल निर्बाध गति से भजन कीर्तन में मस्त थे।

“ले आ! तेरी आरती उतारती हूँ।” भोली ने सामने आए पृथ्वीराज को देख कर कहा था।

लेकिन पृथ्वीराज भोली के पंजे में दबी भोली को देखकर दंग रह गया था। इससे पहले कि वह संभलता भोली ने उसे भी अपने पंजे में दबोच लिया था। अब वह दोनों भोली के दोनों पंजों में दबे दबे लाशों से लटकर रहे थे।

दो अनारों की तरह भोली उन दोनों को कुतर कुतर कर खा रही थी।

संतो हैरान थी। उसकी समझ में भोली का यह आचरण न आ रहा था।

“अब न ले जाऊंगी तुझे गंगाजी नहाने!” संतो ने स्पष्ट कहा था। “तू तो बहुत भूखी है री।” संतो ने उलाहना दिया था। लेकिन संतो को कहानी पता कब थी?

पृथ्वीराज की मौत के बाद तो अंत ही अंत था।

“समझौता कर लो आदमी से लालू!” गरुणाचार्य की राय थी।

“ना आचार्य! आदमी के लालच से मैं कभी भी समझौता नहीं करूंगा!” लालू ने दो टूक कहा था।

गरुणाचार्य भी फिर आहिस्ता आहिस्ता अलोप हो गए थे।

लालू अकेला बैठा रह गया था। सिर्फ अकेला – लेकिन अडिग!

मेजर कृपाल वर्मा
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