Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

जंगल में दंगल संग्राम पांच

“तनिक सा सहारा मुझे मिल जाए आचार्य तो मैं इस आदमी को सुरंगों जाकर मार दूं। मुझे वाहन चाहिए। मुझे चाहिए – सवारी।”

“मिलेगी महाबली।” पृथ्वीराज अपनी सोच से उबर कर बोला था। “चूहों की सवारी करो। आज से चूहे आप का वाहन होंगे।” उसने घोषणा की थी। “चूहों को भी तो सूरमा कहलाने का अवसर मिलेगा!” उसने आंखें उठा कर पूरी सभा को देखा था। “गिद्धों को तो देखिए। और उनके जौहर को देखिए। इन जांबाजों ने उड़ते आदमी की नाक में नकेल डाल दी है।”

एक उल्लास था – जो पृथ्वीराज से चल कर पूरे आसपास पर छा गया था।

अप्रत्याशित सफलताएं मिल रही थीं। बेजोड़ पराक्रम सामने आ रहे थे। ऐसे ऐसे अजूबे हो रहे थे जो कभी आदमी ने भी नहीं किए थे।

“यह तो तय हो गया है महाराज कि हम आदमी से किसी मायनों में कम नहीं हैं।” चुन्नी कह रही थी। “महाबली काग भुषंड ने आदमी के छक्के छुड़ा दिए हैं।” उसने हंस कर कहा था। “विजय भी अब ..”

“घमंड मत करो चुन्नी।” गरुणाचार्य ने वर्जा था। “आदमी को कम मत आंको। अंधी का भाई बांहों में आ जाए – तब मानो।” पहेली बुझाई थी गरुणाचार्य ने।

“महाबली महाराज ने चूहों को शहीद होने का अवसर दिया है – हम इसके लिए बहुत आभारी हैं।” लख्खी चूहा विनम्रता पूर्वक बोला था। “और जरासंध महाबली का वाहन बनने का सौभाग्य हमें मिला है – ये कम आदर की बात नहीं है।” उसने तेजी को घूरा था।

तेजी बहुत प्रसन्न थी। उसकी अपनी बिरादरी का नाम भी शहीदों की बिरादरी में आ जुड़ा था – उसे अच्छा लग रहा था। चूहे का संबोधन आज तक कमजोर के ही संदर्भ होता रहा था। लेकिन आज के बाद चूहों को भी सैनिकों के दल में शामिल कर लिया जाएगा – वह जानती थी।

“मेरा काम अब बहुत आसान हो गया है राजन।” जरासंध कह रहा था। “अब न आदमी बचेगा और न आदमी की जात।” उसने गरुणाचार्य को घूरा था। “आशीर्वाद दो आचार्य! आज के बाद आपको नए जौहर भी देखने को मिलेंगे।” वह हंस रहा था।

“आयुष्मान हो – वत्स।” गरुणाचार्य ने आशीर्वाद दिया था। “लेकिन रहना सावधान!” उन्होंने चेतावनी दी थी। “आदमी है जालिम। जितना अच्छा है उतना बुरा भी है। अगर गलती से पकड़ में आ गये तो ..?”

“मैंने हमला ही वहां करना है जहां उसका सोच सोता है आचार्य!” जरासंध कह रहा था। “सोते सोते – सोता रह जाएगा!” वह खिलखिलाकर हंस पड़ा था। “मुझे बड़ा ही आनंद आ रहा है आचार्य। इस आदमी से सभी तंग आ चुके हैं।” कहता हुआ वह चला गया था।

चूहों की कमर पर सवार होकर जरासंध सुरंगों में छुपे आदमी की तलाश में चल पड़ा था। चूहों को तो धरती के आर पार आना जाना आता ही था। बिल के परे बिल और फिर बिल के बाद बिल उन्हें खोदना बनाना आता था। वह इस कला में आदमी से कहीं कई गुना निपुण थे। आदमी की बनाई सुरंगें तो नकली थीं, जग जाहिर थीं, सपाट और सीधी थीं। लेकिन चूहे के बिलों का आरपार तो भगवान को भी अता पता नहीं था।

जरासंध ने योजना के अनुसार सोते आदमियों पर कारगर हमला किया था। लोग चौंके थे। लोगों को शक हुआ था। लोग बचाव के लिए भी भागे थे लेकिन संभव कुछ भी न हो पाया था। जहां वो आ बैठे थे वह एक कैदखाना जैसा ही तो था। यहां से तो निकल भागना भी कठिन था और अब तो उन्हें जान बचाना भी मुश्किल था।

आदमी लाश होने लगे थे। आदमी – विवश, बेहोश, बीमार, अपाहज, अंधे, लंगड़े लूले और पागल तक होने लगे थे।

कौन था जो उनका इस बेरहमी से संहार कर रहा था?

धरती के लाल धरती की गोद में बैठ कर भी जीवन दान नहीं पा सकते थे।

“लक्ष्मण की खोज का जिक्र में जरूर करूंगा महाराज!” लख्खी चूहा दरबार में हाथ जोड़ कर खड़ा था। “लक्ष्मण ने जिस सुरंग का पता लगाया है उसे आदमी के अलावा और कोई खोज ही नहीं सकता था।” लख्खी का स्वर ऊंचा था। “सुरंग क्या है भगवन एक अलग से बसा बसाया संसार है। कमाल किया है इस आदमी ने। अगर यह सुरंग हमारी आंख से चूक जाती तो हमारा किया कराया सब व्यर्थ हो जाता।”

“लक्ष्मण के अलावा और किसने देखा है इस सुरंग को?” नकुल ने प्रश्न किया था।

“महाबली जरासंध ने ..”

“जरासंध की देखी नहीं चलेगी लख्खी सेठ।” लालू ने तुरप लगाई थी। “इसे शशांक को दिखाओ।” उसने प्रस्ताव रक्खा था।

“लेकिन शशांक का वहां पहुंचना ..?”

“यह शशांक पर छोड़ दो।” नकुल ने बात का तोड़ कर दिया था। “वह भी तो जिम्मेदार है। एक पूरा तंत्र संभाल रहे हैं शशांक। अपने हिसाब से देखेंगे वो इस नई सुरंग के संसार को।”

शशांक को पहली बार एहसास हुआ था कि जिम्मेदार होना कितना कठिन काम था। जहां चूहा भी कठिनाई से पहुंच सकता था वहां अब खरगोश को पहुंचना था। पहुंचना था तो पहुंचना था। वक्त करने या मरने का ही तो था। चारों ओर बलिदान दिए जा रहे थे। बढ़ चढ़ कर सभी प्राणी अपने प्राणों पर खेलकर नई सत्ता के पत्ते बांट रहे थे।

“चूहों से भी ज्यादा तो इस आदमी ने जमीन को खोखला कर डाला है।” तेजी एक असमंजस में डूबी थी। “और बावली बौराती इस संतो का भी क्या पता – इसने कितना और कहां ले जाकर छुपा रक्खा है? मैं तो कहती हूँ नकुल भाई साहब ये संतो का पत्ता पहले साफ कर दो।” तेजी का स्वर धीमा था। “कानों कान पता न चले और ये सौख साफ हो जाए।”

नकुल कई पलों तक तेजी को देखता ही रहा था। संतो के बिलबिलाते स्वर आसमान पर गूंज रहे थे। कपड़े फाड़ती संतो, गालियां बकती संतो और थूक झाग डालती संतो – अब वह संतो न थी जिसे कभी लोग सेठानी जी कहते थे, जुहार करते थे, उसके पैर छूते थे और उसके आदर में चादरों की तरह बिछ बिछ जाते थे।

“ये मर जाए तो ही अच्छा रहे।” नकुल का विचार भी तेजी के विचार से आ मिला था। “किसी भी पल यह हमारे लिए खतरनाक बन सकती है।” नकुल भी गंभीर था।

“मणिधर को ये काम सोंप दो।” तेजी का सुझाव था।

“ठीक कहती हो भाभी।” नकुल ने स्वीकार में सर हिलाया था। “मणिधर के सिवा इसका कोई और रोग नहीं काट सकता।” नकुल ने दूर देखा था। “भोली उसके आस पास ही बनी रहती है और एक पल भी उसे अकेला नहीं छोड़ती।”

तेजी आज बहुत प्रसन्न थी। संतो का कांटा आज अंतत: निकल ही जाएगा – उसे पूर्ण विश्वास हो गया था।

“बहुत चतुर हो देवर जी।” तेजी ने नकुल की प्रशंसा की थी।

“देवर भी तो आप का ही हूँ भाभी जी।” नकुल ने मुसकुराकर कहा था।

उल्लास ही उल्लास था जो फतह हासिल करते जानवरों को उठाए उठाए डोल रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version