Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

जंगल में दंगल संग्राम ग्यारह

मणिधर को कुछ होश और कुछ होंसला लौटता लगा था।

हुल्लड़ हुक्म मिलने के अनुसार ही धरती पर रेंगते आते उन जुगनुओं की तलाश में निकल पड़ा था। मस्त हाथियों के टोल के टोल धरा को रोंदते ही चले जा रहे थे। वह अजेय थे – ऐसा एहसास उन्हें हो रहा था। एक बार इस आदमी का कांटा निकल जाए फिर तो उनका मुकाबला था ही नहीं।

जंगलाधीश का दल भी छलांगें लगा लगा कर पूरी धरती को नापे दे रहा था। उन्हें किसी भी प्रकार के जुगनुओं का डर नहीं था। आदमी के भी कांपते कुकियाते स्वर उन्हें याद थे। अब उनका कोई मुकाबला था ही नहीं।

सुंदरी को भी अपना सपना साकार होता लगा था। आदमी तो केवल आज ही की रात का मेहमान रह गया था। उसके मरने के बाद तो जंगलाधीश ही था जिसका परचम लहराना था। लालू तो गीदड़ था। उसे तो एक भभकी में भाग जाना था।

काग भुषंड की समझ में पूरा का पूरा खेल आ रहा था। आधा राज तो वह पा ही चुका था। शेष आधा राज और हथियाने का आंकड़ा उसकी आंख में आ अटका था। वह अब मौका चूकना न चाहता था। वह नहीं चाहता था कि वक्त उसे दगा दे जाए।

कांटे से कांटा निकालना कौवे से ज्यादा कौन जानता था। काग भुषंड जोरों से हंसा था।

“महाराज की जय हो!” काग भुषंड चहका था। “जान सलामती का वायदा दें तो मैं कुछ अर्ज करूं?”

सारी सभा एक सन्नाटे से भरती लगी थी। काग भुषंड यों ही कोई बात नहीं कहता था – यह सभी जानते थे। जबकि वह जान सलामती की अर्जी भी साथ लगा रहा था – तो जरूर कुछ न कुछ गुल-गपाड़ा होगा ही। अपने अपने कांपते कलेजों को संभाल कर सब अब पृथ्वीराज की ओर देख रहे थे।

पृथ्वीराज भी अकेला उन सब सभासदों को घूर रहा था जो उसके मित्र भी थे और शत्रु भी थे।

“हुआ क्या काग भुषंड जी?” पृथ्वीराज ने औपचारिक प्रश्न पूछा था।

“राज द्रोह!” काग भुषंड ने आंखें नचाते हुए कहा था।

सभा में एक और सनाका निकल गया था। राज द्रोह जैसा जुर्म कौन और कब कर बैठा था? शशांक के पास तो इस तरह की कोई सूचना थी ही नहीं। फिर काग भुषंड ये दूर की कौड़ी कहां से ले आया था?

“ये मजाक करने का वक्त नहीं है काग भुषंड जी!” नकुल ने तनिक तीखी आवाज में कहा था। “सब जानते हैं कि हम युद्ध लड़ रहे हैं और अब ये युद्ध अब एक ऐसे मोड़ पर है .. कि ..”

“आर या पार!” लालू ने बात पूरी की थी।

कोई भी हंसा नहीं था। सबके सब गंभीर थे। काग भुषंड की बात कोई भी टालना नहीं चाहता था।

“तेजी और नकुल से राज द्रोह का अपराध हुआ है महाराज!” काग भुषंड ने चहकते हुए घोषणा की थी। “तक्षक की मौत का सबब तेजी और नकुल हैं!” उसने स्पष्ट कहा था। “तक्षक को मणिधर ने किसके आदेश पर संतो को डसने के लिए भेजा – इस बात का खुलासा किया जाए!”

“प्रयोजन ..?” करामाती कबूतर कूद कर सामने आ गया था। “व्यर्थ की बातों का वक्त है कहां? ओर इसका क्या प्रयोजन है कि ..?”

“है ..! प्रयोजन है करामाती!” काग भुषंड भी कूद कर सामने आ गया था। “तक्षक की दी सूचना ने ही हमारा भंडाफोड़ किया है। सब करा धरा चौपट हो गया है। आदमी को भनक लग गई है और अब आदमी मैदान में आ रहा है।” काग भुषंड ने सीधा करामाती को देखा था। “इससे बड़ा राज द्रोह और होगा क्या भाई?”

गाज गिरी थी पृथ्वी राज पर! वह कई पलों तक के लिए अंधा हो गया था। नकुल तिलमिला कर रह गया था। तेजी के प्राण सूख गए थे। मणिधर भी एक साजिश में शामिल हुआ लगा था। तक्षक की मौत और उसके घातक परिणाम एक बार फिर सबके गले की हड्डी बन गए थे।

लगा था – सारे साम्राज्य के होने के सपने एक एक कर उड़ने लगे थे। गायब होने लगे थे। अब अंधकार था, निराशा थी, लाचारी थी और था घोर सन्नाटा जो उन सबको खाए जा रहा था।

“राज द्रोह जैसा इसमें क्या है काग भुषंड जी?” पृथ्वीराज ने विनम्र स्वर में पूछा था। “ऐसी भूल-चूक तो होती रहती हैं! और फिर तेजी तो ..?”

नकुल ने आंख उठा कर पृथ्वीराज को देखा था। तेजी को बगल में छुपा कर वह अब नकुल की गर्दन में फांसी डालने की सोच रहा था – नकुल ताड़ गया था।

“ये है तो राज द्रोह ही!” लालू जी ने दृढ़ स्वर में कहा था। “हमारी सारी की सारी योजना चौड़े में आ गई! और अब अगर आदमी का हाथ बैठ गया तो ..?”

काग भुषंड कूद कर फिर से सामने आ गया था।

“दोनों को मृत्यु दंड की सजा सुनाई जाए महाराज!” काग भुषंड ने मांग सामने रख दी थी।

पृथ्वीराज के सामने अब एक घोर संकट आ खड़ा हुआ था। वह काग भुषंड को जानता था और पहचानता भी था! काश! वह इस जालिम काग भुषंड को तब क्षमादान न देता तो ..? काश! वह इस नालायक नकुल को अपना महामंत्री न नियुक्त करता तो? ओर ये तेजी? अब क्या करे तेजी का? बलिदान की इस बेला में क्या वह भी एक कदम आगे आए और मृत्यु दंड सुना दे उन दोनों के लिए?

साम्राज्य को बचाए या कि तेजी को बचाए पृथ्वीराज समझ ही न पा रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा
Exit mobile version