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जंगल में दंगल संग्राम एक

चूंकि जरासंध की जिंदगी केवल सात दिन की थी अतः जंगलाधीश ने पूरे संग्राम को सात दिन में ही समाप्त कर देना था। कुल सात दिन में आदमी का सदियों से संजोया वैभव शून्य हो जाना था।

धरती का नया रूप स्वरूप समस्त जानवरों के सामने आ खड़ा हुआ था।

लहलहाते जंगल, स्वच्छंद पानी से प्रवाहित नदियां, पानी से लबालब भरे ताल तलैया और पोखरें, फलों से लदे वृक्ष, फूल-फुलवारी से महकता पूरे विश्व का प्रकारांतर और धरा पर स्वच्छंद विचरते प्राणी – भय विहीन, आतंक हीन और मस्त मलंग।

“महाराज की जय हो!” शशांक खबरों के पुलिंदे लाया था। “लालू जी का किया प्रचार रंग ला रहा है। लोगों को पूरा यकीन हो गया है कि धरती पर दूसरी दुनिया से आये लोगों का हमला होने वाला है।” शशांक ने नकुल को घूरा था। “प्रमाण के लिए लोग भागते नजर आ रहे हैं। हवाई जहाज आसमान पर सन्ना-मन्ना रहे हैं। समुद्र के गर्भ में जा घुसा है आदमी! धरती के भीतर बनी सुरंगों में समाता जा रहा है .. और ..!”

“कायर!” पृथ्वी राज ने प्रसन्न होकर कहा था। “व्यर्थ में ही डरते हैं हम इस आदमी से।” उसने तनकर बैठे लालू को प्रशंसक निगाहों से देखा था। “इस आदमी को तो आप की अफवाहें ही मार देंगी, लालू जी!” वह हंस पड़ा था।

एक उल्लास का वातावरण बन गया था। भागता, डरता और बौखलाया आदमी उन सब को भा गया था।

“हमले की घड़ी है काग भुषंड!” जंगलाधीश ने हुक्म जैसा दागा था। “समय बहुत कम है हमारे पास! यह पहला संग्राम का दिन होगा! मैं चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा ..”

“इससे पहले कि ये आदमी हमारी पकड़ से बाहर भाग जाए मैं अनुरोध करूंगा कि नर संहार बहुत तेजी से हो!” जरासंध ने चेतावनी दी थी।

“इसकी आप चिंता न करें महाबली!” हुल्लड़ गरजा था। “देखना आप कि काम किस चतुराई से होता है।” उसने जानवरों की जमा भीड़ को घूरा था। “हमने तो संग्राम लड़े हैं भाई! हमें तो विध्वंस करना आता है।” वह हंस रहा था।

“संतो पागल हो गई है।” करामाती ने सूचना दी थी। “कपड़े फाड़ रही है। विलाप कर रही है।” करामाती इस हुए करिश्मे पर हैरान था। “धन्य हों महाबली जरासंध!” उसने प्रार्थना में हाथ जोड़े थे।

तेजी का चेहरा गुलाबों सा खिल गया था। नकुल ने मोहक निगाहों से तेजी को देखा था।

“अब न चूकें, वत्स!” पृथ्वी राज का हुक्म था। उसने काग भुषंड को फिर से घूरा था। “बावले हुए आदमी पर सब टूट पड़ें!”

“अभी क्या है, अभी तो आदमी अंधा होगा, फिर अपाहिज होगा, बीमार होगा और होगा पूरी तरह से असमर्थ। फिर आसानी से काबू में आ जाएगा!” चुन्नी चहकी थी। “विजय श्री अब हमसे ज्यादा दूर नहीं है श्रीमान!”

“व्यर्थ की बातों में समय नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है राजन!” गरुणाचार्य का गंभीर स्वर एक चेतावनी की तरह चला आया था। “शुभस्य शीघ्रम!” उन्होंने वेद पाठ का सा उच्चारण किया था। “जूझा जाए! फतह हासिल की जाए!”

गरुणाचार्य की उद्घोषणा अंतिम आदेश था।

जंगलाधीश ने भी रणभेरी बजा दी थी। हुल्लड़ ने भी सूंड़ उठा कर युद्ध के आरंभ का शंख फूंका था। काग भुषंड ने उड़ानें भरी थीं और पल छिन में आग सी लहका दी थी। हर ओर युद्ध आरंभ हो गया था।

अंधे हुए आदमी को मारने में कितनी आसानी हो रही थी! एक आनंद ही था जब मरता आदमी हाय हाय से डकराता था और यह भी न जान पाता था कि वह आखिर मर क्यों रहा था?

हाथियों के झुंडों को प्रभावित सफलता मिल रही थी। भागता आदमी, चीखता चिल्लाता आदमी उनके पैरों तले तरबूजों की तरह फूट फूट कर धरती को लहूलुहान किए दे रहा था।

शेरों का प्रकोप अलग से आदमियों के चिथड़े किए दे रहा था। शेरों की ललकारें सुन सुन कर अंधे और अपाहिज आदमी यही सोच सोच कर मर रहे थे कि ये लोग दूसरी दुनिया के लोग थे और नाना प्रकार के वेश धारण कर आदमी को धराशायी कर रहे थे।

मणिधर का हमला सबसे ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा था।

मात्र एक फुस्कार से आदमी मर जाता। काया में विष व्याप्त होते ही उसके प्राण पखेरू उड़ जाते!

लेकिन आदमी की तीसरी आंख होते इस नरसंहार को लगातार देख रही थी।

व्योमासुर की तरह आसमान पर चढ़ा आदमी अपने कैमरों में एक एक पल को कैद करता जा रहा था। तीसरी दुनिया से आये हमलावरों का अभी तक कोई अता-पता न लग पा रहा था।

एक भ्रम था। एक भय था। एक अनिर्णय था जो आदमी को रोके खड़ा था। क्या करे, कैसे करे, किसके खिलाफ करे, उसकी कुछ समझ में ही न आ रहा था।

“उपयुक्त समय है शेरों!” जंगलाधीश गरजा था। “गिन गिन कर मारो। उतार दो आज इस आदमी का बदला! इस आदमी ने कितनी बेरहमी से मारा है हमें! चूकना मत मेरे सिंहों!” वह ललकार रहा था।

“अब मत रुकना बहादुरों!” हुल्लड़ की भी धारदार आवाज गूंजी थी। “धरती को आदमी से विहीन करके ही दम लेना है।” उसने घोषणा की थी। “अब ज्यादा दम बचा कहां है आदमी में! अब तो वह भय के आतंक से स्वयं ही मरता जा रहा है।” हुल्लड़ हंसा था। “जिस आदमी के साथ मिलकर हम लड़े थे वह तो न जाने कब का धराशायी हो गया।” उसने आज के और कल के आदमी का अंतर स्पष्ट किया था।

“अय्याश है आज का आदमी!” काग भुषंड ने निष्कर्ष सामने रक्खा था। “नपुंसक संतान है उन महावीरों की जो कभी लड़ा करते थे, जय पराजय का स्वाद चखा करते थे ओर युद्ध भूमि से लहूलुहान होकर लौटा करते थे।”

“हंसी आती है केंचुआओं की तरह बिलबिलाते आदमियों को देख कर!” मणि धर का मत था। “हमने भी उस दबंग आदमी को देखा है भाई! लेकिन यह आदमी तो निरा नकली लगता है।”

और आदमी हारता ही जा रहा था .. भागता ही जा रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा
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