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जंगल में दंगल संग्राम दो

काग भुषंड के पंखों पर जैसे बिजली आ बैठी थी। उसकी उड़ानें और भी तेज हो गई थीं। लड़ाई के सभी मैदान उसे एक साथ दिखाई दे रहे थे। हर मोर्चे पर जानवरों की विजय के संकेत मिल रहे थे।

आदमी कांप रहे थे। आदमी अशक्त हुए सोच ही न पा रहे थे कि उनपर ये कौन सी गाज गिर रही थी। अगर दूसरी दुनिया के लोग उनसे लड़ने आ गये थे तो थे कहां? थे किधर? थे कैसे?

“उनका कोई हमारा जैसा रूप स्वरूप नहीं होता भाई।” आदमियों के मत चल पड़े थे। “ये बिना शरीर के होते हैं। हवा होते हैं जैसे कि कथित भूत-प्रेत और जिन्न-जांगड़े!”

“पहली बार ही यह बला आई है।” लोग सोच रहे थे। “न कभी ऐसा पहले सुना न कभी देखा।”

“आखिर हो क्या रहा है?” कुछ लोग पूछ रहे थे। “क्या सभी लोग अंधे और अपाहिज हो चुके हैं? क्या हमें बचाने वाला कोई नहीं बचा?”

आदमी के पास प्रश्न ही प्रश्न थे लेकिन अभी तक किसी भी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं आया था।

काग भुषंड जल्दी में था। जरासंध भी अपने काम में तेजी लाता जा रहा था। झूम झूम कर आदमी पर हमला हो रहा था। दौड़ दौड़ कर आदमियों की लाशें बिछाई जा रही थीं। गांव के गांव और शहर के शहर तबाह होने लगे थे। एक अजीब विभ्रम का जाल फैल गया था। अब न कोई अपना था न पराया। हर किसी को अब अपनी जान के लाले पड़े थे।

“ये जानवर आदमी को क्यों मार रहे हैं?” आसमान पर उड़ते आदमियों ने पहला प्रश्न पकड़ा था। “यों बावले मतवाले हुए ये हाथी आदमियों का संहार क्यों कर रहे हैं? शेरों को क्या हुआ है जो भूख से नहीं किसी सीख से हमला कर आदमियों को मार रहे हैं? और ये सर्प, ये बिच्छू और ये गिद्ध? ये सब क्यों आदमी की जान लेने पर जमे हैं?”

उत्तर नहीं थे। केवल प्रश्न ही प्रश्न थे।

समस्या भी बहुत गंभीर थी। इसको रोकने का उपाय भी अभी तक सामने नहीं था। सेना तो पहले ही बावली बन चुकी थी। आधे से ज्यादा लोग अंधे हो चुके थे। कुछ लोग बीमार थे, कुछ पागल हो गये थे और बहुत सारे अपाहिज हो चुके थे।

पूरे विश्व में आज आदमी को कोई बचाने वाला नहीं था।

क्या आदमी की अंतिम घड़ी आ चुकी थी? आदमी ही प्रश्न पूछ रहे थे ओर आदमी ही सोच रहे थे कि ..

“ये सब क्या हो गया रे!” संतो विलाप कर रही थी। “मेरी पूजा-पाठ का क्या यही फल है, भगवान?” उसने पागलों की तरह आसमान की ओर देखा था। “मैंने कौन से ऐसे पाप कर डाले जो तुमने मुझे पागल बना दिया, प्रभु?” उसकी आंखों से चौधार आंसू चुचा रहे थे।

मस्त सोई पड़ी भोली की नींद खुली थी।

संतो को इस बुरे हाल में देख कर भोली सनाका खा गई थी। संतो के बाल बिखरे थे, आंखें फटी फटी आसमान को देख रही थीं, उसके कपड़े भी अस्त-व्यस्त थे और हुलिया भी बेहद बिगड़ा हुआ था। आखिर हुआ क्या था?

भोली की आंखों से नींद उड़ गई थी। संतो – जिसे वह जान से ज्यादा प्यार करती थी आज न जाने कौन सी बेबसी के घेरे में घिर गई थी।

बंदरों को भी यों मरता और प्राण देता आदमी बुरा लगा था। उन्हें कुछ कुछ समझ आ रहा था। उड़ता फिरता काग भुषंड उन्हें हत्या की जड़ जैसा लगा था। कुछ तो था जो शायद जानवरों ने ही मिल मिला कर आदमियों के खिलाफ खड़ा कर दिया था।

बंदर तो आदमी के रक्षक थे। आदमी तो उनकी पूजा करता था। फिर यों होता नरसंहार सहन कर लेना तो बुरी बात थी। ये तो उनकी कौम की बदनामी थी।

कुत्ते भी लगातार भोंक रहे थे! उनके भोंकने का सब ने पहले तो यही अर्थ लगाया था कि दूसरी दुनिया के लोग धरती पर पहुंच गये थे और कुत्ते ही थे जो उन्हें देख पा रहे थे और उनपर भोंक रहे थे। भोंक भोंक कर बेदम हुए कुत्ते कुछ कह तो रहे थे पर उनकी बात आदमियों की समझ में न आ रही थी।

चहकते तोते, बिलबिलाती मैना ओर विवश हो कर टेरता मोर सब के सब एक साथ संकट में आ गये लगे थे।

और इन सब का अभिन्न मित्र आदमी बेमौत मरता ही जा रहा था।

आदमी की सदियों से ईजाद की व्यवस्था एक दम ठप हो गई थी।

रेल गाड़ियों का आना जाना रुक गया था। जो जहां खड़ा था, वहीं खड़ा था। यातायात जो कभी धमनियों में दौड़ते खून की तरह लगातार बहता चला जाता था – अब रुक गया था। सड़कों पर खड़ी अस्त व्यस्त गाड़ियों ने सब रोक टोक दिया था। मृत प्रायः आस पास पड़े लोग हिम्मत ही न कर पा रहे थे कि उठें और आम में जुट जाएं।

बहुत कोशिश करने के बाद भी किसी का कहीं टेलीफोन बजकर ही न दे रहा था। न कोई खबर आ रही थी न जा रही थी।

लोगों के घरों में लगे टेलीफोन भी बंद पड़े थे – मर गये थे जैसे। ये चौबीसों घंटे दहाड़ते टेलीफोन एक साथ दम कैसे तोड़ बैठे थे? चौबीसों घंटों की खबर भेजते टेलीविजन न जाने कौर सी बीमारी का शिकार हुए थे। लोग जान ही न पा रहे थे कि ..

मेजर कृपाल वर्मा
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