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जंगल में दंगल संग्राम चौदह

एक सन्नाटा लौटा था – पैदा हुई गर्मी को पीता हुआ सन्नाटा। एक चुप्पी ने उन सब के होंठ सिल दिए थे। किसी के भी पास लच्छी की विपत्तियों का उत्तर तो था ही नहीं। समुद्र मंथन से आती सफलता – हाथ से सरक गया एक सुअवसर ही था जहां आदमी परास्त होते होते बच गया था।

आदमी ने समुद्र को फिर से जीत लिया था। आदमी ने आकाश को भी ले लिया था। और अब धरती की बारी थी। अगर धरती भी हाथ से जाती है तो ..?

“धरती पर हम उसे पटक देते हैं।” लालू ने गर्जना की थी। “आकाश पाताल की बात को जाने दें। अब जंग तो जमीन पर जुड़ेगी।” उसने मणिधर को देखा था। “वक्त है भाई! हमला करो। एक भी आदमी जिंदा न बचे। कहो – अपने नागों को – लाश के ऊपर लाश पाट दें और धरा को आदमी से विहीन कर दें।”

मणिधर को जोश के साथ होश भी लौटा था। वह भी जानता था कि हमला करने के अलावा उसके पास कोई और विकल्प बचा ही न था। और वह भी तो नहीं चाहता था कि जीती बाजी हार जाए। अगर सर्प विजयी होते हैं तो अब राज भी उसी का होगा – वह समझ रहा था।

पूजा प्रार्थना के स्वर कम नहीं हुए थे। आदमी भगवान को लगातार टेरता चला जा रहा था। ज्यों ज्यों उसे होश लौट रहा था त्यों त्यों वह भगवान की शरण में लेटता ही जा रहा था। खड़ताल मंजीरे, ढोल-ढमाके और अनेकानेक बजते वाद्य यंत्रों से हवा भी गुलजार होती जा रही थी।

जीवन तो था और अब फिर से लौटने लगा था। मौत से जंग करता हुआ, धरती को फिर से निहाल करता जीवन – मिटना नहीं चाहता था।

“महाराज की जय हो!” शशांक बुरे हाल में लौटा था। “महाराज ..! महाराज ..!” शशांक कुछ बोल ही न पा रहा था।

“अब क्या हुआ भाई?” झल्लाते हुए लालू ने पूछा था। “हमला होगा भी या कि ..?” वह क्रोध से भभकने लगा था।

“हुल्लड़ के तो होश उड़ गए हैं।” शशांक ने सांस साध कर बताया था। “जंगलाधीश के भी पैर कांप रहे हैं।” शशांक?”क कठिनाई से कह पाया था।

“लेकिन क्यों? माजरा क्या है शशांक?” पृथ्वीराज ने धीरज रखते हुए पूछा था। “आखिर हुआ क्या है मित्र?”

शशांक कई पलों तक मौन बना रहा था। इसका यह मौन सब को बुरा लगा था। यों साहस पीता ये मौन बड़े से बड़े दुश्मन से भी भारी लगा था।

“कहो भी कुछ ..?” लालू ने ही शशांक को टोका था।

“यही महाराज कि वो जानलेवा तंत्र मंत्र किसी को भी आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं।” शशांक ने डरते डरते खुलासा किया था। “कुछ हवा में है। कुछ ऐसा है जो वार करता है लेकिन दिखाई नहीं देता है।”

“दिखता नहीं है? पर वार करता है?” लालू ने प्रश्न दोहराए थे। “तो फिर देखते क्या हो भाई? चढ़ाई करो!”

लेकिन पृथ्वीराज गंभीर था। वह समझ रहा था कि अब आदमी जरूर कोई अगली गोट चल गया था जिसकी काट खोजना अब इतना आसान नहीं था – वह समझ रहा था।

“मणिधर महाबली! आप की सफलता ..?” हिचकते हुए पूछा था पृथ्वीराज ने। “अगर कोई आपत्ति हो तो ..?” अब वह जान लेना चाहता था कि आदमी ने अब और क्या क्या गुल खिला दिए थे।

“मैं तो आर पार की लड़ाई लड़ूंगा महाबली!” मणिधर का उत्तर था। “मैं एक वार में और एक हाथ में सब को साफ कर दूंगा!” उसका उत्तर था।

अब जंग आ जुड़ी थी। जोश, होंसले, वीरता और बहादुरी – सब वही थे जो आदमी युद्ध लड़ते वक्त अपनाता था। लेकिन आदमी की ओर से एक खामोशी आ रही थी जिससे उन्हें लड़ना पड़ रहा था। और लग रहा था जैसे वह आदमी की किसी किराए पर लिए एजेंट से लड़ रहे थे – आदमी से नहीं।

“आदमी तो कहीं नहीं है फिर इस बला का नाम ..?” लालू ने प्रश्न पूछे थे। “न डोलते इन हवाई जहाजों में आदमी बैठा है और न ही इन यंत्र-तंत्रों को आदमी चला रहा है। आदमी तो बेचारा भगवान की शरण में पड़ा पड़ा खड़ताल बजा रहा है।” वह तनिक हंसा था। “मौका है मणिधर महाबली हमला करो .. और हल्ला बोलो। सही वक्त है – कर दो आर पार मेरे यार!” लालू ने परामर्श दी थी।

सर्पों का हमला आरम्भ हो गया था।

मेजर कृपाल वर्मा
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