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जंगल में दंगल संग्राम छह

लालू की सूझबूझ और शशांक की सोच ने मिलकर एक नया खेल कर दिया था। शशांक ने सूचना दी थी कि आदमी समुद्र के गर्भ में भी जा घुसा है। पानी के जहाजों पर चढ़ चढ़ कर वह जमीन से नाता तोड़कर भाग गया है। जरासंध का वहां पहुंचना संभव नहीं है। किसी भी सूरत में समुद्र को फतह करना अब आवश्यक था – यह पृथ्वीराज का आदेश था और गरुणाचार्य भी बहुत चिंतित थे।

पानी के ऊपर और पानी के भीतर आदमी से लड़ने के लिए आदमी से बड़ा ही कोई तोड़ निकलना था। अगर आदमी समुद्र की शरण में जाकर जिंदा बच गया तो उनका सब किया धरा नष्ट हो जाना था।

जरा सी खबर लगते ही आदमी उन सबके प्राण ले लेगा – यह सब जानते थे।

“कैसी हो लच्छी भाभी!” लालू ने तनिक विहंस कर लच्छी से पूछा था। “मजे में तो हो?” उसका प्रश्न दोहरा था।

“खाक मजे में हैं, देवर जी।” लच्छी ने मुंह बिचका कर कहा था। “आदमी खाए जा रहा है। इसका पेट ही नहीं भरता। छोटी को खाता है, मोटी को खाता है और जिंदा को खाता है, मरी को खाता है। न बच्चे छोड़ता है न वंश।” उसने लालू की आंखों में झांका था। “लेकिन आप तो हमें भूल ही गए।” उलाहना दिया था लच्छी ने। “सरकार कब बनी आपकी – हमें बताया ही नहीं।”

“उसी के लिए तो बुलाया है आपको भाभी।” लालू गंभीर था। “आदमी का इलाज मुझे करना था इसी लिए वहां से चला आया था। अब देखिए जंग जुड़ी है। आदमी का सफाया होता जा रहा है। सब को पूर्ण स्वराज मिलेगा ये मेरा दावा है। एक ऐसा समाजवाद मैं लाऊंगा जो कभी जानवरों को तो छोड़ो आदमी ने भी कभी सोचा समझा नहीं होगा।”

लच्छी को सरकार बना लालू भा गया था। जहां उसकी बातों में रस था वहीं उसकी जबान में एक दम था। आदमी से लड़ना और फतह पाना कोई बच्चों का खेल तो नहीं था न।

“हम किस काम आ सकते हैं, देवर जी?” लच्छी ने विनम्रता पूर्वक पूछा था।

“आप ने एक जलजला लाना है।” लालू ने कहीं दूर देखा था। “समुद्र के बाहर और भीतर एक ऐसा जलजला जहां भाग कर छुपा ये जलील आदमी मौत के हवाले हो जाए।” लालू की आंखों में रोष था।

“लेकिन ..?”

“शशांक से मिलो! सब कुछ साफ साफ समझ आ जाएगा।” लालू ने परामर्श दी थी। “काम जल्दी होना है – होशियारी से होना है और ..”

“मुझे गैर न मानो देवर जी।” हंस गई थी लच्छी। “आपके लिए तो जान हाजिर है।” उसने वायदा किया था।

शशांक ने लच्छी की मदद से समुद्र में एक अजीब तरह की आग लगा दी थी। ये आग किसी भी दावानल और बड़वानल से कम न थी।

“हिम्मत तो देखो इस आदमी की कि हमारे जिस्म की बोटियां-बोटियां काट कर हमें डिब्बों में बंद कर देता है और बाजार में बेच देता है।” लच्छी ने केकड़ों, शार्कों और कछुओं को समझाया था। “हमारे संसार पर भी इसके कैमरों की आंख तैनात है। हम जैसे इसकी जागीर हैं और हमारे शरीर इसका भोजन हैं। यहां तक कि हमारे अंडे बच्चे भी जैसे उसी के माल असबाब हों?” उसने प्रश्न पूछा था।

“पर करना क्या होगा देवी जी?” कलीम कछुए ने प्रश्न किया था।

“विध्वंस!” लच्छी का आदेश था। “जमीन पर आज आदमी को जो मार पड़ रही है – आप लोग सोच भी नहीं सकते। मैं तो देख कर आ रही हूँ। अंधा हो गया है आदमी ओर अब अपाहिज हुआ घूम रहा है। बीमार है – बेकार है। मर रहा है – भाग रहा है।”

“परियोजन?” अबकी बार कालिया केंकड़े ने पूछा था।

“हमारा राज। माने कि लालू राज। समाजवाद! आदमी से भी अच्छा समाजवाद।” लच्छी कहती रही थी। “लालू जी हमारे नेता हैं। पृथ्वीराज हमारे महाराज हैं। और हम हैं उनकी लड़ाकू सेना।”

“हमें क्या करना होगा?”

“विध्वंस! समुद्र को रण भूमि में बदल दो! भाग कर आए इस आदमी का अंत ला दो।”

लच्छी की बातों में दम था। आदमी के आतंक से समुद्र के जीव जंतु भी तो तंग आ चुके थे। आदमी ने इन का भी तो जीना हराम कर दिया था। आदमी अब सब का दुश्मन बन चुका था।

कलीम, कालिया और कांता परी तीन गुट में बंट कर समुद्र के चारों ओर अब आदमी की फिराक में निकल पड़े थे। चतुराई से, चालाकी से और चोरी छुपे हमले हुए थे। सबसे पहले पानी के गर्भ में आ बैठी पनडुब्बियों को उलट-पुलट दिया गया था। वेलों से मिल कर हमले हुए थे। शार्कों ने भी उनका साथ दिया था। जहां कछुए अपना काम कर रहे थे तो वहीं केंकड़े भी अपना अलग से दम लगा रहे थे।

विशालकाय तैरते पानी के जहाजों पर अब सरे शाम हमले होने लगे थे। इन जहाजों पर आकर मरता आदमी अचानक सकते में आ गया था। न कोई तूफान, न हवा और न ही कोई ज्वार-भाटा? फिर जहाजों का पत्ते की तरह हिलना डुलना और डूबने डूबने को होना – आदमी की समझ में नहीं आ रहा था।

जब जहाज डूबने लगे थे, पलटने लगे थे और आदमी मरने लगे थे तब फिर वही बात मुड़ कर सामने आई थी – देवीय प्रकोप!

देव आदमी से खफा हो गया था और वह आदमी को हर हाल में, हर जगह और हर तरह से खत्म करने पर तुला था। समुद्र का यों बुरी तरह से आंदोलित हो उठना – एक अजूबा ही तो था।

अब न पानी के ऊपर खैर थी और न पानी के भीतर ही सुरक्षा थी।

धरती से टूट गये संपर्क एक अलग चिंता का विषय था। न कोई सूचना आ रही थी न जा रही थी। यों अकेले में कब तक जिंदा रह पाते ये आदमी – किसी को पता नहीं था।

धरती पर होते विध्वंस को सभी असमंजस के साथ देख देख कर अब अपनी और आ गई मुसीबत के साथ नाप रहे थे। यहां अब कोई भी सुरक्षित नहीं था। आज नहीं तो कल सबको मरना ही था।

“अब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।” लच्छी ने गर्म जोशी के साथ लालू के साथ हाथ मिलाया था। “अब तो आदमी का काम तमाम हुआ धरा है देवर जी!” वह हंस रही थी। “आदमी की औकात है कितनी? हम लोग तो शराफत में ही मर रहे थे।” उसने अपना मत जाहिर किया था।

छज्जू से बरदाश्त नहीं हो रहा था। वह भूखा था, प्यासा था और उदास था। उसे अपनी भूख प्यास की उतनी चिंता नहीं थी जितनी कि दम तोड़ते आदमी की। वह अब किसी भी तरह आदमी के काम आ जाना चाहता था। वह आदमी को संकट से बचा लेना चाहता था। लेकिन अफसोस कि वह अभी तक कुछ भी न कर पाया था।

जब कुत्तों ने आदमी के साथ मिलकर जंग आरंभ की तो बंदरों ने भी उनका साथ देना स्वीकार कर लिया था। हाथी और शेरों के जमघट जब आदमी पर हमला करने पहुंचे थे तो उनका मुकाबला कुत्तों ने ही किया था। बाद में गधों भी आकर मोर्चा संभाला था और हाथियों और शेरों से सीधी टक्कर ली थी।

“यह खबर तो अच्छी नहीं है शशांक!” लालू का भेजा घूम गया था। “घर का भेदी ही लंका ढा देता है मित्र! हमारे ही ये लोग हमारी पराजय का कारण बन सकते हैं।” वह चिंतित था।

“फिर किया क्या जाए महामना?” शशांक भी सकते में आ गया था।

“इन्हें भी आदमी के साथ साथ दफन कर दें! चुन्नी का कहना था।

नादान थी चुन्नी – यह लालू जानता था।

“मैं तक्षक को भेजता हूँ।” मणिधर ने नकुल से वायदा किया था। “तक्षक के काटे का कोई इलाज है ही नहीं!” वह हंसा था। “संतो का तो सफाया हुआ ही मानो!” उसने कहा था।

घात लगा कर बैठी भोली की सब समझ में आ गया था। वह सनाका खा गई थी। उसकी तो नींद उड़ गई थी। संतो का अंत आता देख वह एक पल के लिए अंधी हो गई थी।

“हे भगवान! ये हो क्या रहा है?” उसने पहली बार अपनी मालकिन की तरह ईश्वर को याद किया था। “संतो सेठानी ने इन सब का क्या बिगाड़ा है?” वह सोच ही न पा रही थी।

तेजी और पृथ्वीराज कितने मक्कार थे – ये भोली जानती तो थी।

“काश! मैंने इन दुश्मनों को पहले ही खा लिया होता तो शायद सेठानी जी इस जिल्लत से बच जातीं।” भोली बिलख रही थी। “कुछ सोचना होगा – जल्दी से कुछ न कुछ तो करना ही होगा! इससे पहले कि वह नाग – तक्षक सेठानी को डस ले उसे नष्ट कर देना होगा। पृथ्वीराज और तेजी को वह छोड़ेगी नहीं – भोली ने कसम उठाई थी।”

“तक्षक चुपके से आएगा भाभी।” नकुल तेजी को बता रहा था। “उसे दूध पिलाना न भूलना। दूध पी कर जब फन मारेगा तब मान लो कि संतो गई।” वह हंसा था।

“बे फिक्र रहो देवर जी।” तेजी प्रसन्न थी। “तक्षक का स्वागत है। इस बहाने मेरा उनसे परिचय भी हो जाएगा।” उसने नकुल का आभार व्यक्त किया था।

भोली ने सोते सोते सब सुना था। वह सो कहां रही थी? उसे अब नींद आती कहां थी।

“तुझे मैं देखूंगी सौख!” भोली ने प्रतिज्ञा की थी। “वंश मिटा दूंगी तेरा तो मैं तेजी!” उसने दांत किटकिटाए थे।

मेजर कृपाल वर्मा
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