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जंगल में दंगल समर सभा छह

जंगलाधीश अपना लाल हुआ चेहरा लेकर चुपचाप बैठे थे। काग भुषंड ने भी अपनी जबान को लगाम दे दी थी। एक छोटा सा कलह युद्ध दोनों पक्षों को हताहत कर गया था। संग्राम जीतते जीतते सब हार कर बैठ गये थे।

और एक आदमी था कि अब भी उन सब के लिए अजेय बना हुआ था।

जब से आदमी को शत्रु मान कर उसपर विजय पाने की बात आरंभ हुई थी तभी से उन सब के दिमाग में आदमी को परास्त करने का क्रम जारी था। हर कोई कोई न कोई युक्ति सोचने में संलग्न था। हर किसी को हरी भरी धरती पर स्वच्छंद विचरना एक सपने की तरह बार बार याद आ जाता था।

चुन्नी ने कई बार आदमी को परास्त करने की युक्ति सोची थी!

उसे हर बार एक ही बात पूर्ण सच सा लगी थी। अगर आदमी के हाथ काट दिये जाएं – तो काम बन सकता था। आदमी के पास दो हाथ ही तो थे जो अजब गजब ढा देते थे। हाथ कटने के बाद आदमी का शेरों, हाथियों और रीछ बघेरों के सामने क्या उठेगा?

यह एक पूर्ण और परिपक्व विचार था।

“मेरे विचार में आचार्य अगर आदमी के हाथ काट दिये जाएं तो युद्ध हमारे पक्ष में चला जाएगा!” चुन्नी ने समर सभा में छाई चुप्पी को तोड़ा था। वह चलकर नकुल के पास आ गई थी। “न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!” वह हंसी थी। “उसके हाथों का ही तो करिश्मा है – जो ये आदमी ..”

“लेकिन हाथ काटेगा कौन?” हुल्लड़ ने सूंड़ हिलाते हुए पूछा था। “अलग से कोई सेनापति ..”

बात फिर बहने लगी थी। बैठा बैठा काग भुषंड मुसकुरा रहा था। चुन्नी को भी अब अपनी छीछालेदर होती नजर आने लगी थी।

“मेरा तो विचार है भाई साहब!” चुन्नी ने उत्तर देना चाहा था।

“मेरा विचार तो कब का आदमी को हरा चुका है बहिन जी!” शशांक ने गंभीर आवाज में कहा था। “मेरे विचार से तो हमारा साम्राज्य कब का स्थापित हो चुका है!” चुन्नी बहुत बौनी हो गई लगी थी। उसे अपने दिये सुझाव पर शर्म आई थी। कैसा विचित्र था सत्ता का ये खेल! एक बेहद सच लगने वाला विचार भी कितनी बड़ी बेवकूफी लगने लगता है – कमाल ही था।

नकुल की निगाहें एक बेचैनी से भरी थीं। कोई भी कारगर विचार सामने नहीं आ रहा था। तेजी भी अधीर होती जा रही थी। पृथ्वी राज भी चिंतित था। उसे लग रहा था कि ये समर सभा यों ही इकट्ठी कर ली थी उसने! इन सूरमाओं में कोई था ही नहीं जो आदमी को परास्त कर देता!

मणिधर को पृथ्वी राज की बेचैनी का भान हुआ था।

मणिधर भी अपनी युक्ति सोचे बैठे थे। लेकिन वो डर रहे थे कि अगर किसी तरह उनकी युक्ति स्वीकार नहीं हुई तो जग हंसाई होगी। लेकिन अब वो तनिक आश्वस्त थे। जब चुन्नी अपनी बात खुलकर कह सकती थी तो वह तो थे मणिधर। उन्होंने समर सभा को नई आंखों से तोला था।

“आचार्य!” मणिधर ने आदर सहित गरुणाचार्य को पुकारा था। “आज्ञा दें तो मैं भी कुछ अर्ज करूं?” उन्होंने प्रार्थना की थी।

“हॉं हॉं! बोलिए मणिधर!” आचार्य ने साधिकार स्वीकृति प्रदान की थी।

“क्यों न विष का प्रयोग किया जाये?” उनका सुझाव था। “विष – माने कि कारगर प्रयोग होगा क्योंकि इसका इस्तेमाल तो होता ही रहा है। और आदमी भी तो ..”

“लेकिन मणिधर जी ..” हुल्लड़ ने सूंड़ उठा कर टांग मारी थी।

“लेकिन इनकी बात को पूरा तो होने दो हुल्लड़!” गरुणाचार्य ने टोका था। “विचार को पूरा सामने आने तो दो! तभी तो बहस होगी!”

गरुणाचार्य की बात सभी को उचित लगी थी। मणिधर को भी तनिक सा सहारा मिल गया था।

“जितने भी विषैले जीव जन्तु हैं सभी का सहयोग लेकर हम आदमी पर एक योजनाबद्ध हमला करें! हम सब एक साथ डस लें आदमी को! विष व्याप्त होने के बाद चाहें तो ..” मणिधर ने जंगलाधीश की ओर ताका था।

मणिधर का विचार तो अधूरा था लेकिन उद्देश्य कथन के साथ साथ सिद्ध हो रहा था।

“छोटा मुंह बड़ी बात!” शशांक बोल पड़ा था। “सब जानते हैं कि अब आदमी न सर्प से डरता है और न उसके विष से!” शशांक ने जंगलाधीश की ओर देखा था। “फिर भी आदमी की विषैली हुई काया का कोई क्या करेगा?” शशांक ने दूर की कौड़ी फेंकी थी। “न खाते बनेगा, न फेंकते! सड़ सड़ कर जो और विष फैलेगा – सब गुड़ गोबर कर देगा। कहां कर पाएंगे हम लोग ..? एक बार विष फैला तो ..”

शशांक की बात में दम तो था। विष तो विष था। अगर फैला तो उसका कोई अंत नहीं था। जिस धरा को वह सब मिल कर आदमी से बचा लेना चाहते थे अगर वही विषैली हो गई तो उनका तो मुद्दा ही मिट गया!

“कुछ और अनूठा सोचो मित्रों!” नकुल ने विचार को अस्वीकार करते हुए निवेदन किया था। “ऐसा कोई विचार ..”

“जो बातों में ही बात बन जाए!” हुल्लड़ ने व्यंग बाण छोड़ा था। “गप्पन के छप्पन मारने से समर नहीं लड़ी, नकुल!” उसने सूंड़ उठा कर कहा था। “हमने तो रक्त की नदियां बहती देखी हैं! हमने तो युद्ध को लड़ कर देखा है। आदमी से अखाड़ा लेना है तो जान माल की परवाह किये बिना ..”

“पागलों की तरह भिड़ जाना है!” भालू ने हुल्लड़ का समर्थन किया था।

एक बार फिर बात कांटे पर आ तुली थी। युद्ध की घोषणा कर और आंख मूंद कर आदमी पर चढ़ाई कर देने का विचार फिर से उनके सामने आ खड़ा हुआ था।

पृथ्वी राज थर थर कांप रहा था और तेजी के भी पसीने छूट रहे थे! अगर लड़ाई का बवाल उठा तो खैर तो किसी की भी नहीं थी।

“गधों के सींग तो होते नहीं!” चुप बैठा काग भुषंड अचानक चहक उठा था। “अक्ल के दुश्मन अगर युद्ध लड़ेंगे तो तबाही के सिवा कुछ मिलेगा तो नहीं!”

“अकेले तुम्हीं एक अक्लमंद हो?” लालू उछल कर आगे आया था। उसे रोष आ गया था। वह तो काग भुषंड पर पहले से ही खफा था। “आंखों के अंधे नाम नयन सुख!” उसने जुमला कसा था।

“अगर गीदड़ अपनी औकात भूल जाए और शेर बन जाए .. तो ..?” काग भुषंड ने पंख फड़फड़ाए थे। उसने अब सामने बैठे शेर को भी घूरा था।

“तिरस्कार नहीं ..!” गरुणाचार्य की आवाज एक चेतावनी की तरह तड़की थी। “किसी का भी तिरस्कार नहीं!” उसने पूरी समर सभा को संबोधित किया था। “इस तिरस्कार के पेट से ही गद्दारी के राक्षस का जन्म होता है। गद्दार बड़ी से बड़ी तबाही ला देता है। गद्दार बड़े से बड़े साम्राज्यों को सटक जाता है!”

गरुणाचार्य ने अपने समर्थन के लिए पृथ्वी राज की ओर देखा था।

“हम तो किसी का भी तिरस्कार करना नहीं चाहते!” पृथ्वी राज विनीत स्वर में बोला था। “हम तो चाहेंगे कि हमारे साम्राज्य में सबक आदर सत्कार समान हो।”

नकुल और तेजी ने एक साथ पृथ्वी राज को घूरा था। वह उन्हें आज पहली बार सम्माननीय लगा था।

“आप ठीक कह रहे हैं महाराज!” गरुणाचार्य बोले थे। “सब ईश्वर के बनाए ही तो जीव हैं! न कोई छोटा है न कोई बड़ा!” उन्होंने अपना दर्शन सामने रक्खा था। “जिस साम्राज्य की हम कल्पना कर रहे हैं उसमें न तो किसी का तिरस्कार होगा और न ही किसी का हक मारा जाएगा!” समर सभा गरुणाचार्य के विचारों को आदर पूर्वक सुनती रही थी।

फिर न जाने कहां से एक तूफान उठ खड़ा हुआ था!

गरुणाचार्य जिंदाबाद! गरुणाचार्य अमर रहें के नारे लगने लगे थे!

काग भुषंड का मुंह लटक गया था – न जाने क्यों?

मेजर कृपाल वर्मा
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