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जंगल में दंगल समर सभा तेरह

आज दरबार पहली बार लगा था।

नकुल ने हर तरह की तैयारियां की थीं। तेजी का दिमाग तेजी से चला था और नकुल को हर तरह की ऊंच नीच समझा कर पृथ्वी राज को हर तरह का सहारा और सहयोग देने का वायदा उसने ले लिया था। पृथ्वी राज भी आज एक नए अंदाज और अदा के साथ सिंहासन पर बैठा था। वह छोटे बड़े की संज्ञा भूल एक सम्राट के दायित्वों के प्रति वचन बद्ध हुआ लगा था।

अन्य सभी दरबार में अपनी अपनी जिम्मेदारियों और अपने अपने दायित्वों के हिसाब से हाजिर थे।

कुछ नया नया था, जो हवा में फैल कर पल रहा था और बढ़ रहा था। एक नई सुगंध थी – सत्ता की सुगंध जो जानवरों ने पहली बार सूंघ कर देखी थी। सत्ता का तो नशा ही अलग था – उन लोगों ने पहली बार महसूसा था।

गरुणाचार्य ने वायदे के अनुसार काग भुषंड को दरबार में हाजिर किया था। करामाती एक गवाह के रूप में पहले से ही हाजिर था। जरासंध की पड़ती प्रति छाया हर किसी के जेहन पर तारी थी। एक शाही अदल कायम हो गया लगा था।

पहली बार काग भुषंड को अपने गुनाह गिनने का मौका मिला था। अभियुक्त बना काग भुषंड आज आधा रह गया था। उसने भी कभी सम्राट बनने का सपना देखा था लेकिन आज की ये अभियुक्त बनने की बात उसके गले न उतर रही थी। आरोपित हुआ वह कातर दृष्टि से लगे दरबार में दया क्षमा खोज रहा था। वह खोज रहा था – अपना कोई सगा सहोदर जो उसके पक्ष में खड़ा हो जाए और उसे इस विकट संकट से उबार ले।

हुल्लड़ वहां था, हाजिर था लेकिन था असंपृक्त। आज काग भुषंड उसकी कमर पर बैठ कर कूद फांद करने के लिए स्वतंत्र नहीं था। आज तो उसका बोलना तक बंद था। वह आज अभियुक्त था।

दूसरी ओर खड़ा करामाती जुड़े दरबार को अपनी घायल काया दिखा दिखा कर काग भुषंड के किए जुर्मों का खुलासा कर रहा था। उसकी कोमल काया लहूलुहान थी। उसकी आंखों से भी पीड़ा टपक रही थी। उसकी जबान तो बंद थी पर जो वह कहना चाहता था, वह बिन बोले सब को सुनाई दे रहा था।

काग भुषंड के किए बे रहम हमलों का जिक्र स्वतः ही हवा में तैरने लगा था। यह कि काग भुषंड निर्दयी था, जालिम था, मक्कार था, घोर स्वार्थी और धूर्त था – सभी दरबारियों को जंच गया था।

काग भुषंड अपराधी था – यह निर्विवाद तय हो गया था।

काग भुषंड की निगाहें नीची थीं। वह सहमा, डरा, घबराया और बौखलाया सा चुपचाप बैठा था।

नकुल ने चतुराई से करामाती के शरीर पर लगी चोटों को और घावों को चिह्नित किया था। करामाती अब एक कमाल का विज्ञापन लग रहा था जो दर्द और पीड़ा का इजहार शब्दों में नहीं बल्कि भावों में व्यक्त कर रहा था।

गरुणाचार्य एक अडिग भव्यता के साथ अपने आसन पर आ बैठे थे। उनके पास आ बैठी खामोशी अब चुप न थी।

पृथ्वी राज भी अपने आप को मौके के हिसाब से तैयार करने में लगा था।

उसे सजा सुनानी पड़ेगी – वह सोच रहा था। करामाती उसका अपना था लेकिन काग भुषंड तो उसका प्रतिद्वंद्वी था। आज जैसा मौका कल आये न आये – कौन जाने? अतः आज ही उसे काग भुषंड को हमेशा हमेशा के लिए कांटे की तरह निकाल फेंकना था। चतुराई से, चालाकी से, और सूझ-बूझ के साथ उसे कुछ ऐसी सजा सुनानी थी जो सबको सही लगे लेकिन उसका अपना हित साधन भी हो जाए!

सजा सुनाने के बाद की प्रतिक्रिया का भी पृथ्वी राज को खयाल था।

दरबार में बैठे जंगलाधीश को आज बहुत अटपटा लग रहा था। जहां उसे मुंहफट काग भुषंड का अभियुक्त बना रूप स्वरूप भला लग रहा था वहीं सिंहासन पर बैठा चूहा पृथ्वी राज उसे अखर रहा था। छोटी मोटी झड़प या वाद विवाद को इतना बड़ा तूल दे देना उसकी समझ में नहीं आ रहा था। लहूलुहान हुआ करामाती उसे बेहूदा सा एक वाकया लग रहा था – जिसका कोई अर्थ ही नहीं था।

करामाती को अपने लिए खुद ही लड़ना चाहिये था। उसे किसी ने रोका था क्या कि वह काग भुषंड पर वार न करे! अगर वो कमजोर था – तो कमजोर था। उसे कोई कब तक बचाएगा और क्यों बचाएगा?

“अच्छे कानून कायदे किसी भी साम्राज्य के लिए एक बुनियाद का काम करते हैं।” गरुणाचार्य ने बात आरम्भ की थी। “कानून और कायदों के साथ जुड़े अदब और ओहदे किसी भी व्यवस्था को गतिमान रखते हैं।” उन्होंने दरबार में जमा हर किसी को बारी बारी देखा था। लालू का चेहरा आज गुलाबों सा खिला हुआ था तो शशांक पर अलग से एक रौनक सवार थी। “ये कानून और कायदे सब के हित में होते हैं! कमजोर और बलवान को ये कायदे और कानून समान धरातल देते हैं। सब के हक-हुकूक का ध्यान रखता है कानून और व्यवस्था को चलाते हैं कायदे!” गरुणाचार्य ने मुड़ कर पृथ्वी राज को देखा था।

अजब तमाशा था इन कायदे और कानूनों का जिन्हें सभी जमा जानवरों ने एक साथ महसूसा था। तभी शायद आदमी ने इन्हें ईजाद किया था ओर ये सब शायद जरूरी ही थे सब के जीने के लिए! वरना तो कोई भी समाज इनके बिना निरंकुश हो जाएगा और कैसी भी भली व्यवस्था नहीं चल पाएगी।

शेर और बकरी को एक घाट पानी पिलाने का लालू का नारा आज सभी को साकार हुआ लगा था। शायद समाजवाद का यह पहला आगमन ही था, जहां काग भुषंड चुपचाप बैठा अपने किए की सजा सुनने के लिए विवश था।

मेजर कृपाल वर्मा
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