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जंगल में दंगल समर सभा नौ

“जैसे शेर हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता वैसे ही आदमी भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता!” काग भुषंड अपनी शेखी बघार रहा था। “हम तो अजर अमर हैं!” उसने घोषणा की थी। “तुम्हें शक नहीं होना चाहिये चुन्नी कि हम एक दिन इस पृथ्वी के मालिक जरूर बनेंगे!” उसने पंख फड़फड़ा कर कहा था।

“हमें क्या फायदा?” चुन्नी ने मुंह ऐंठ कर पूछा था। “हमने तुम्हारा साथ दिया, हमने सहयोग भी किया और तुमने की गद्दारी!” चुन्नी उखड़ पड़ी थी। “अपनी पूरी शाख खो बैठे हो नयन सुख जी!” उसने उलाहना दिया था।

काग भुषंड तनिक तिलमिला गया था। हुई गलती का उसे अब तनिक एहसास हुआ था। कम से कम उसे गरुणाचार्य से तो नहीं ही लड़ना चाहिये था। गरुणाचार्य के सहयोग से बात बन सकती थी। लेकिन उसने सुनहरी अवसर को गंवा दिया था। और चुन्नी को भी दरकिनार कर उसने अपना नुकसान ही किया था।

ढपली बजाने वाला कोई ओर हो तो असर दुगना होता है लेकिन अपने आप ही मियाँ मिट्ठू बनने से तो बात बिगड़ जाया करती हैं।

“साथ आने का अब क्या लोगी चुन्नी?” काग भुषंड सौदेबाजी पर उतर आया था। “अगर तुम साथ आ जाओ तो बात अभी भी बन सकती है।” वह कह रहा था।

“चुन्नी एकबारगी सकते में आ गई थी। वह प्रसन्न भी थी और चिंतित भी। कहीं गहरे में वह कभी काग भुषंड को चाह तो गई थी लेकिन पैंतरा बदलता काग भुषंड उसे कहीं से बहुत घटिया लगा था। अगर कल को कौवों का साम्राज्य बन भी गया तो चलेगा नहीं – चुन्नी की अपनी राय थी।

राजा बनने के लिए एक अलग से गरिमा होना जरूरी होता है। एक अलग से और एक भिन्न प्रकार की शालीनता होना राजा बनने के लिए आवश्यक होता है। और पृथ्वी राज में वह गरिमा थी। लेकिन ये काग भुषंड तो कोरा शठ था।

“सोचना पड़ेगा नयन सुख जी!” विहंस कर उत्तर दिया था चुन्नी ने। वह काग भुषंड को नाराज करना भी नहीं चाहती थी। क्यों कि वह जानती थी कि अप्रसन्न हुआ काग भुषंड उसका जीना हराम कर सकता था। “आप के साथ हमारा एका तो है ही। मौका पड़ने पर हम आप के ही होंगे।” चुन्नी ने काग भुषंड को एक मीठी गोली पकड़ाई थी।

काग भुषंड उड़ गया था। वह उत्तर पाते ही जान गया था कि चुन्नी को अब फिर से जीतना असंभव था।

छूट गया तीर कभी लौटता नहीं। मुंह से निकली बात कभी मिटती नहीं!

“काम का तो है ये कौवा!” गरुणाचार्य नकुल को बता रहे थे। “सिर्फ बेवकूफ है! दुष्टता तो उसके स्वभाव में है।” वह तनिक मुसकुराए थे। “लेकिन ..”

“हमें तो इसकी जरूरत है।” नकुल ने भी मान लिया था। ” आचार्य कसी तरह से ये बेल मढ़े नहीं चढ़ सकती?” नकुल ने सीधा प्रश्न दागा था। “कोई ऐसी सीधी सी सूरत बने जिसमें आदमी से हमें निजात मिले .. और ..”

“पृथ्वी राज क्या सोच रहा है?”

“कुछ भी नहीं! चिंतित है! आहत है! दुखी है!”

“अकारण ये दुख क्यों?”

“सत्ता हाथ से चली गई तो?” नकुल ने गरुणाचार्य को सीधा आंखों में घूरा था। “स्वामी कहलाना ही अपने आप में एक नशा है, आचार्य! फिर आप तो ज्ञानी हैं, आप तो ..”

“मैं सब समझता हूँ नकुल!” आचार्य बोले थे। “सत्ता चलाना है तो टेढ़ा काम!” वह तनिक चुप हुए थे। “बहुत टेढ़ा काम है यह, भाई!” उनका स्वर गुरु गंभीर था। “कभी कभी तो इस खेल में सब कुछ लुट पिट जाता है, नकुल!”

नकुल की आंखों में निराशा की हवाइयां उड़ रही थीं!

“चिंता मत करो नकुल!” गरुणाचार्य ने उसे धीरज बंधाया था। “लालू से तो बात चल पड़ी है। अगर हुआ तो काग भुषंड को भी बुला भेजूंगा!” उन्होंने उदास बैठे नकुल को देखा था। “चिंता छोड़ो मित्र ये काम काज तो वक्त बेवक्त निपटता ही रहता है! अगर पृथ्वी राज की प्रारब्ध है कि वो राजा बने तो वो बनेगा!” गरुणाचार्य ने दार्शनिक की तरह कहा था। “होनी बहुत बलवान होती है नकुल! जो होना है – सो होगा! अगर आदमी को परास्त होना है तो वो जरूर परास्त होगा। वह चाहे जितना बढ़े, बलवान बने, विद्वान बन जाये लेकिन होनी के सामने किसी की भी दो कौड़ी नहीं उठती।” वह मुसकुराए थे। “चिंता छोड़ो! होने दो – जो हो रहा है।”

गंगा स्नान कर संतो लौट आई थी।

भोली संतो की गोद में बैठी थी। बहुत सुंदर लग रही थी दोनों – एक दूसरे के साथ! जब संतो ने भोली को छोड़ा था तो वह कूद कर आंगन में आ खड़ी हुई थी। उसने अपने सिमटते बदन को फैला फुला कर छोटा बना लिया था। फिर उसकी निगाहें पूरे घर बार में डोलने लगीं थीं। उसे अचानक याद आया था कि उसने बहुत दिनों से एक भी चूहा नहीं खाया था।

भोली का मन अब चूहा खाने के लिए लरज आया था।

तेजी छुप कर सारा स्वांग देख रही थी। उसका मन तो हुआ था कि पहले उस फूहड़ संतो सेठानी का मुंह पीटे ओर फिर इस भोली को भी संभाल दे! लेकिन ये दोनों ही बात उसके बूते से बाहर की थीं। अभी तक तो संतो ही सेठानी थी। पूरे माल असबाब की मालकिन और भोली की हमजोली थी – सेठानी। वह चाहकर भी उन दोनों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी।

तेजी को एकबारगी पृथ्वी राज पर ही रोष हो आया था। और उस नकुल – नपुंसक का भी क्या फायदा था? पूरी पंचायत उठ कर चली गई ओर सारी बात बह गई! कितना सुंदर सपना था वह। तेजी – इस धरा धरती की महारानी और ये सारा माल असबाब उसका!

“हे भगवान!” तेजी ने अभिमान त्याग कर अब प्रार्थना का सहारा लिया था। “क्या आप कभी हमारी नहीं सुनेंगे?” उसने प्रभु से प्रश्न किया था।

“धरा का स्वामी तो पृथ्वी राज ही होगा!” तेजी के भीतर से एक आवाज आई थी। “तनिक धीरज धरो तेजी, आदमी का वक्त अब करीब आता जा रहा है!” तेजी सुनती जा रही थी। “हो सकता है आदमी स्वयं आदमी को ही मिटा दे!”

तेजी की आंखों में एक चमक लौट आई थी।

“कहां है रे पृथ्वी राज!” भोली ने आवाज लगाई थी। “आ रे इधर! ले गंगा मैया का प्रसाद!” उसने विहंस कर कहा था।

“फुर्सत नहीं है – मुझे मौसी!” पृथ्वी राज का उत्तर था।

“तो भेज दे तेजी को!” मौसी का आदेश था।

अब तेजी की जान सूख गई थी। साम्राज्य का सपना देखते देखते आसन्न मृत्यु के दर्शन कर वह मरने मरने को हो गई थी। क्या था – यों मात्र एक चूहा होना? उन्हें भी शेर ही होना चाहिये था ताकि इस भोली जैसी कमीनी को नोच कर खाया जा सकता।

“सारे पाप धो कर लौटी हो मौसी!” तेजी ने बड़े ही मधुर स्वर में कहा था। वह नहीं चाहती थी कि मौसी से रार मोल ले। कौन जाने कल को कोई वास्ता निकल ही आये तो राजा तो वो थे ही। फिर भोली का उठता क्या था? सेनापति शेर को केवल आदेश ही तो देना था – बिल्ली गायब! “फिर से पाप चढ़ा कर नरक की राह क्यों लेती हो?” तेजी ने प्रार्थना जैसी की थी। “पाप तो वो करें जो भूखा मर रहा हो!” तेजी तनिक हंसी थी। “तुम तो खूब माल खाती हो मौसी!”

“तेरा क्या खाती हूँ री?” भोली बोली थी।

तेजी कहना तो चाहती थी – है तो ये सब हमारा ही। कल को हमें सत्ता मिली तो तेरे मुंह मुछीका न लगाया मैंने तो मेरा नाम भी तजी नहीं।

“किसी का भी सही! खाती तो खूब हो मौसी!” तेजी हंस रही थी।

तभी संतो उजागर हुई थी। उसने झपट कर भोली को गोद में भर लिया था। तनिक सा दुलार कर उसने कहा था चल भोली! तरा भी ब्याह रचा देती हूँ!”

संतो को देख कर तेजी का कलेजा काला पड़ गया था!

अभी तक तो सब संतो का ही था। उनके पास अभी तक न तो संतो का कोई इलाज था और न ही भोली का कोई विकल्प था।

हे राम! कुछ तो करो! तेजी ने फिर से प्रार्थना की थी।

मेजर कृपाल वर्मा
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