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जंगल में दंगल समर सभा ग्यारह

“क्यों? खोज की संभावनाएं तो हमेशा खुली होती हैं!” गरुणाचार्य ने लालू को घूरा था। “विकल्प तो हमेशा ढूंढना पड़ता है बंधु!” हंसे थे गरुणाचार्य। “सम्राट बनना चाहते हो तो ..!” गरुणाचार्य ने लालू के भीतर बैठा चोर पकड़ लिया था। “स्वयं भी तो कुछ करो मित्र। दूसरों के कंधे तुम्हें कहीं तक भी न ले जाएंगे।” गरुणाचार्य ने बात समाप्त कर दी थी।

“तुम रहोगे गुलामों के गुलाम ही।” काग भुषंड चहका था। आज वह बहुत क्रोधित था। करामाती ने आज उसे ललकारा था। एक कबूतर की इतनी हिम्मत देख कर काग भुषंड हैरान था। “तेजी ने दो चार दाने आंगन में डाल दिये होंगे। तुम खा कर हो गये लट्टू ..”

“तेजी भाभी की बाबत कुछ कहा तो मुझसे बुरा ..” करामाती गरजा था।

“तो तू क्या कर लेगा – कबूतर?” भभक आया था काग भुषंड। “तेरी औकात क्या है रे?”

“और तेरी भी औकात क्या है रे कनैटा।” ललकारा था करामाती ने – काग भुषंड को।

काग भुषंड से सहन नहीं हुआ था। यों भी वह बहुत दिनों से करामाती का आना जाना देख देख कर शकों के सागरों से भरा था। करामाती उसे नकुल का जासूस लगा था। वह ताड़ गया था कि उसकी हर चाल की सूचना ये करामाती नकुल को दे आता था।

“आज मैं तेरा मिजाज ठीक कर देता हूँ जासूस।” काग भुषंड ने करामाती पर तोहमत लगाई थी। फिर उसने अपनी पैनी चोंच को भाले की तरह उठा कर करामाती पर वार कर दिया था।

काग भुषंड से भिड़ जाने के अलावा करामाती पर और कोई विकल्प बाकी नहीं बचा था। अपनी पूरी ताकत लगा कर उसने काग भुषंड के आते डैनों के वार को रोका था। फिर वह चोंच के प्रहार से बचा था, फड़फड़ाया था, चीखा चिल्लाया था और दौड़ा भागा भी था लेकिन काग भुषंड ने उसे लहूलुहान कर डाला था।

“कबूतरों को दासों का दर्जा मिलेगा – मेरे साम्राज्य में।” काग भुषंड घोषणा कर रहा था। “करामाती मैं आज तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगा ..” उसने अधमरे हुए करामाती को एक और पलटी दी थी। “तुझे पता नहीं है कि मैं कितना जालिम हूँ ..”

खेतों में खेलते बच्चों में से एक ने गुलेल से वार किया था। गोल छोटा पत्थर काग भुषंड की गर्दन के बिलकुल पास से सन्नाता निकल गया था। काग भुषंड ने मुड़कर हंसती खिलखिलाती बच्चों की उस चांडाल चौकड़ी को देखा था। वह डरा था, उड़ा था और भाग निकला था।

“वक्त आने दो। मेरा राज आने दो! कमीनों मैं तुम्हें भी बख्शूंगा नहीं।” काग भुषंड कहता जा रहा था। “आदमी का अंत अब आने को है और आकर रहेगा।” वह शपथ जैसी लेता जा रहा था।

करामाती बहुत बुरी तरह से घायल हो गया था। सामर्थ्य विहीन हुए शरीर को उसने किसी तरह से संजोया था और उठ खड़ा हुआ था। उसका मन तो आया था कि आज आत्महत्या कर ले। कौवे की पैनी चोंच के प्रहार उसे अब भी चुभ रहे थे। अपनी छोटी चोंच और बेकार पंजों पर उसे रह रह कर रोष आ रहा था। क्या करें – उसकी कुछ समझ में ही न आ रहा था।

अत्याचार और आतंक के खिलाफ आवाज उठाना आज उसे और भी ज्यादा अनिवार्य लगा था। काग भुषंड जैसे नालायकों के हाथ अगर गलती से भी सत्ता आ गई तो खैर किसी की भी नहीं थी।

“क्या हुआ?” करामाती को लहूलुहान हुआ देख कर नकुल सकते में आ गया था। “क्या किसी आदमी ने ..?” उसने प्रश्न पूछा था।

आदमी ही अब उन सब का आम कोप भाजन बन चुका था। उन सब का दिमाग अब आदमी के आतंक के बारे में ही सोचता रहता था।

“नहीं मित्र!” लड़खड़ाई आवाज में करामाती ने कहा था। “यह उस कनैटा कौवे की करामात है जो राजा बना फिर रहा है।” उसने कराहते हुए कहा था। “शुक्र है उन मनचले छोकरों का जिन्होंने गुलेल दाग दी थी। वरना आज मेरी तो जान ही चली जाती।”

तेजी और पृथ्वी राज दोनों सकते में आ गये थे। काग भुषंड का आतंक उन्हें भी याद था। वास्तव में ही बेलगाम हुए ये कौवे तो धरती पर कहर ढा देंगे – ये उनकी भी समझ में आ गया था।

“झगड़ा क्यों हुआ?” तेजी ने पूछा था।

“ये कौवा आपके ऊपर ..” करामाती ने सीधा तेजी को घूरा था। “कह रहा था कमीना कि .. मैं आपका गुलाम हूँ ..”

“फिर ..?” पृथ्वी राज तनिक चौंका था।

“फिर क्या – मैंने भी उसे सुना दी। तेजी भाभी के खिलाफ .. मैं ..”

तेजी का मन भर आया था। उसकी खातिर लहूलुहान हुआ करामाती उसे किसी शहीद से कम न लगा था।

“इस काग भुषंड को दंड दिया जाए महाराज!” तेजी ने क्रोध से कहा था। “सजाए मौत का ऐलान कराओ नकुल!” तेजी का आदेश था।

न जाने क्यों महाराज के संबोधन मात्र ने पृथ्वी राज के भीतर एक अजीब सा कंपन भर दिया था। शब्द थे – जो स्वयं उसकी जबान पर उग आये थे, त्यौरियां तन आई थीं ओर स्वर भी गंभीर था। उसने नकुल की ओर भी मुड़ कर देखा था।

“दोषी है ये काग भुषंड।” पृथ्वी राज कह रहा था। “दुष्ट भी है।” उसने गरजते हुए कहा था। “और .. और ये है भी ..”

“सजाए मौत का ही ऐलान कर देता हूँ!” नकुल ने घायल और कराहते हुए करामाती को देखा था। करामाती प्रसन्न हुआ लगा था। लगा था उसे इच्छित वरदान मिला हो। उसने नकुल को प्रशंसक निगाहों से देखा था। “मौका है! इसे अगर इस बार छोड़ दिया तो ..?”

“धरा पति बन जाएगा महाराज!” करामाती ने कहा था। “वो तो पागल हुआ घूम रहा है।” करामाती ने सूचना दी थी। “आप को तो वह भुनी मोठ भी नहीं मानता महाराज।” करामाती ने एक महत्वपूर्ण बात बताई थी। “बुरा न मानें महाराज तो मैं कुछ कहूँ?”

“कहो कहो करामाती – खुल कर कहो!” पृथ्वी राज ने अनुमति दी थी।

“सत्ता को हासिल करें, किसी से मांगें नहीं।” करामाती ने दो टूक कहा था।

एक सन्नाटा लौटा था। एक पटाक्षेप हुआ था। पृथ्वी राज के दिमाग ने न जाने क्यों और कैसे एक पलटा खाया था। तेजी ने भी महसूस किया था कि आज पहली बार पृथ्वी राज ने भी वही देखा था जो वह भी देखती आ रही थी। नकुल ने भी अपनी मूक सहमति प्रदान की थी।

“लेकिन ..! लेकिन ..! मित्र करामाती ..” पृथ्वी राज तिलमिला कर रह गया था।

“अवश आप हैं नहीं महाराज!” घायल हुए करामाती ने एक दरवेश की तरह गुहार लगाई थी। “आप अपनी शक्ति को भूले बैठे हैं।” उसने तनिक उचक कर कहा था। “जरासंध को पुकारिए, ललकारिए लालू को और फिर सत्ता का वरण कीजिए।” अब करामाती ने तेजी और नकुल को एक साथ देखा था। “घात प्रतिघात के दिये घाव तो हरे होते ही रहते हैं महाराज। दी मौतें ही फैसला करती हैं। तो मौत ही बांटें, प्रहार करें और खुलकर सामने आएं।” करामाती कहता ही जा रहा था। उसका लहूलुहान हुआ शरीर युद्ध की विभीषिका को दर्शा रहा था। “इन दुष्टों का संहार तो करना ही होगा।” करामाती ने एक फतवा जैसा जारी किया था।

मेजर कृपाल वर्मा
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