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जंगल में दंगल समर सभा दस

“मैं तो हैरान हूँ ये देख देख कर कि ये संतो करती क्या है?” तेजी पृथ्वी राज और नकुल के साथ बैठकर अपने आश्चर्य बता रही थी। “न जाने कौन कौन से देवी देवताओं की पूजा करती रहती है। आए दिन कोई न कोई व्रत रखती है। हर रोज भूखे नंगों को दान बांटती है। कभी इस तीर्थ पर जाती है तो कभी उस तीर्थ पर!” तजी ने आंख उठा कर पृथ्वी राज को देखा था। वह मंद मंद मुसकुरा रहा था। “घंटों ठाकुर जी के सामने आंखें बंद कर बैठी बैठी न जाने क्या क्या मांग लेती है?”

नकुल और पृथ्वी राज ने एक दूसरे को देखा था। तेजी का यह प्रश्न बड़े महत्व का था। संतो के ये आचरण कुछ अर्थ तो जरूर रखते थे।

“हममें और आदमी में यही फर्क तो है तेजी!” पृथ्वी राज कह रहा था। “आदमी अपने से आगे औरों के बारे में भी सोचता है। लेकिन हम ..”

“इस भोली को ही ले लो!” नकुल ने आंखें नचा कर कहा था। “संतो की संगत दिन रात करती है लेकिन मजाल है कि अपने कमीनपन से बाज आ जाए! चूहे तो जरूर ही खाएगी ..”

“सोचेगी नहीं और समझेगी भी नहीं!” पृथ्वी राज ने भी समर्थन किया था। “असल बात तो सोच और समझ की ही है, नकुल! आदमी सोचता है – अपने लिए और दूसरों के लिए भी। आदमी कल्पना भी करता है। उस कल्पना का पीछा भी करता है। सपने देखता है। उन्हें साकार भी करता है।” पृथ्वी राज कहीं दूर देख रहा था। “यही सब तो है जो हम सब के लिए भी अनुकरणीय है।”

“हम यह सब कैसे कर सकते हैं जी!” तेजी ने एक अजीब तेहे के साथ तुरप लगाई थी। “अगर आप का राज आया तो – मैं तो ..” तेजी ने नकुल की ओर देखा था।

“नहीं भाभी!” नकुल ने गंभीर स्वर में कहा था। “भइया ठीक कहते हैं! अगर हमारा राज आता है तो हमें आदमी से भी एक कदम आगे जाना होगा।”

“वो कैसे ..?”

“सच्चा समाजवाद हम लाएंगे!” नकुल ने बताया था।

“हम वह सब करेंगे – जो आदमी अभी तक नहीं कर पाया है।” पृथ्वी राज ने हामी भरी थी। “चींटी और हाथी में फर्क क्या है?”

“गरुणाचार्य तो कहते हैं – सब जीव अंश हैं। बराबर हैं।” नकुल बोला था।

“बिल्कुल ठीक बात है। जीव धारी सब समान हैं। आकार तो प्रकृति तत्वों पर आधारित है।”

“लेकिन इससे होता क्या है?” तेजी चहकी थी। “शेर और ..?”

“मैं यही प्रयास तो करूंगा कि शेर की भी समझ में आ जाए कि ..”

“वह भी सोचे, समझे, कल्पना करें और सपने देखे!” नकुल ने बात का समर्थन किया था।

तेजी को वो दोनों मित्र तनिक से मूर्ख लगे थे। क्यों कि जो वैभव तेजी चाहती थी, उसका तो वो दोनों जिक्र ही नहीं कर रहे थे।

“आप लोगों की इस सोच ने ही तो काम खराब किया है।” तेजी ने उलाहना दिया था। “अब शेर लौटेंगे ही क्यों? वह काग भुषंड तो इस पूरी समर सभा को ही आडंबर बता रहा है।” तेजी ने नई सूचना दी थी। “वह तो अब अकेला ही जिहाद छेड़ेगा और पृथ्वी का अकेला ही स्वामी होगा।”

“हो सकता है! क्यों नहीं ..” नकुल ने हामी भरी थी।

“संभावनाओं को कभी भी नकारना नहीं चाहिये तेजी!” पृथ्वी राज ने दार्शनिक ढंग से कहा था। “अजूबे भी तो घट जाया करते हैं।”उसने चेतावनी जैसी दी थी।

लालू और गरुणाचार्य एकांत में बैठे थे। ये उन दोनों की पहली मुलाकात थी। दोनों के पास एक दूसरे से मिलने के अलग अलग मुद्दे थे।

जहां लालू एक साजिश के तहत पृथ्वी का स्वामी बनने की सोच रहा था, वहीं गरुणाचार्य कोई ऐसा विकल्प खोजने में लगे थे, जहां सब के सब प्राणी सुख और शांति से इस धरती पर रह सकें।

गरुणाचार्य को केवल आदमी के लालच का डर था। आदमी अब घोर स्वार्थी होता जा रहा था। वह अपने साथ रह रहे अन्य जीवधारियों के प्रति एक दम असंपृक्त हो गया था। अब उसे सब कुछ अपने लिए चाहिये था। परिणाम स्वरूप जो मरे सो मर जाए।

लेकिन लालू दो कदम आगे की बात सोच रहा था।

सत्ता एक बार लालू के हाथ में आ जाए तो वह तो आदमी से भी आगे का वैभव प्राप्त करेगा। गीदड़ों का वर्चस्व स्थापित कर वह उनके कायर होने के कलंक को मिटा देगा। वह कोशिश करेगा कि गीदड़ों को इज्जत से देखा जाए, उन्हें मान सम्मान दिया जाए और ..

समाजवाद उसका नारा तो था – पर था वह उसके अपने हित के लिए! उसके पास इससे बड़ा और कोई हथियार नहीं था जिससे वह लड़ लेता।

“क्या कोई संभावना शेष है आचार्य?” लालू ने गंभीर स्वर में पूछा था। वह तो सब के हित में इस समर सभा को जोड़ कर बैठा था। लेकिन काग भुषंड ने सब गुड़ गोबर कर दिया था। लालू उदास था। “जंगलाधीश को अभी भी क्या हमला करने के लिए राजी किया जा सकता है?” लालू ने प्रस्ताव सामने रख दिया था।

“जंगलाधीश तो जान दे देगा – ये मैं जानता हूँ लालू! लेकिन ..?” उसने लालू को घूरा था। “उसके लिए आत्महत्या होगी यह!”

“लेकिन क्यों?”

“क्या हित होगा किसी का?”

लालू कहना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन चुप रह गया था।

शेर का कांटा ही अगर निकल जाता तो क्या कम था – वह सोच रहा था। ये शेर सगा भी किसका था? जंगल में आदमी के बाद उसका ही तो आतंक था और उससे सभी जानवर परेशान थे!

“तो फिर कोई हित की बात सोचो आचार्य!” लालू ने प्रार्थना जैसी की थी। “इस आदमी से ..”

“खतरा तो है बंधु!” गरुणाचार्य भी गंभीर थे। “खतरा है – बहुत बड़ा खतरा है। अब आदमी भी बहुत आगे बढ़ चुका है।” वह गंभीर थे। “यह हमारा सौभाग्य ही है कि आदमी हमारी भाषा नहीं जानता! लेकिन वो चाहेगा तो जान लेगा!” गरुणाचार्य ने खबरदार किया था लालू को। “और फिर तुम जानते हो कि हम सब की खैर नहीं!”

“मुकाबला है तो बड़ा – मैं मानता हूँ आचार्य!” लालू ने आखिरी प्रयास किया था। “लेकिन अगर आप चाहें तो आचार्य ..?”

“संभावनाएं तो हैं मित्र! लेकिन हमें खोज करनी होगी!” गरुणाचार्य ने एक नई बात सुझाई थी। “हां! आदमी की तरह ही हमें कोई खोज करना होगी लालू, जहां हम आदमी से बहुत आगे हों!”

मेजर कृपाल वर्मा
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