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जंगल में दंगल महा पंचायत सात

शशांक का अचानक आगमन गरुणाचार्य के लिए चौंकाने वाला सबब था।

गरुणाचार्य आजकल कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने लगे थे। जब से उनका चुनाव महा पंचायत के अध्यक्ष पद के लिए हुआ था तब से ही बहुत सारे उलट फेर हो रहे थे। उनका तो अपना जीवन और जान भी पराए हुए लगे थे। उनपर हर किसी का अधिकार हुआ लगा था। वह हर किसी के प्रति जिम्मेदार हुए लगे थे।

कुछ विचित्र ही था जो हो गया था। एक अत्यंत साधारण जीवन से गुजरते हुए अब वह नितांत असाधारण जीवन में प्रवेश पा गये थे – अचानक ही और अनचाहे में।

उनकी इच्छाएं, उनकी आवश्यकताएं, उनका खान-पान और यहां तक कि उनका रहन-सहन भी सबका सब पराया हो गया था। उनसे ज्यादा उनकी चाहना की चिंता औरों को थी। अचानक ही उनके सुख दुख भी पराए हो गये थे।

उन्हें ताती बयार भी न लगे – ऐसे प्रयत्न पराए लोग उनके लिए कर रहे थे। यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी गरुणाचार्य के लिए!

“आप कैसे हैं भगवन!” शशांक ने सामने आते ही उनकी खैरियत पहले पूछी थी। “जंगलाधीश ने आपके लिए ..”

“क्यों कष्ट किया भाई!” गरुणाचार्य भी औपचारिकता में बोल गये थे। क्योंकि आज कल उनके पास खाली हाथ तो कोई आता ही नहीं था। “अमन चैन तो है ..?” उन्होंने भी शशांक को एक औपचारिक प्रश्न पूछा था।

“आप के रहते कष्ट किसे हो सकता है भगवन!” शशांक ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था।

“मेरे होते क्यों शशांक?” वह चौंके थे। “अभी तक तो जंगलाधीश ही ..?”

“वो तो नाम के रह गये हैं – राजा!” मुसकुराया था शशांक। “हवा तो कब की मुड़ गई!” उसने गरुणाचार्य को घूरा था। “अब तो आप राजा बनेंगे!” उसने दो टूक कहा था।

गरुणाचार्य सकते में आ गया था। वह कई पलों तक शशांक को घूरता ही रहा था। शशांक की बातों से उसे किसी साजिश की बू आ रही थी। जंगलाधीश का सेवक शशांक उसी की सत्ता का सौदा कर रहा था। लेकिन क्यों?

“नहीं भाई! मैं तो केवल महा पंचायत का अध्यक्ष हूँ! और केवल उस समय तक ..”

“लम्बे समय तक अब आप ही शासन में रहेंगे, भगवन!”

“मैं समझा नहीं शशांक!”

“आधा राज आपका!”

“क्या ..?”

“जंगलाधीश तो स्वयं ही चलकर आने वाले थे। लेकिन ..”

“ऐसा क्या हुआ शशांक .. जो ..?”

“ये समय की मांग है भगवन!”

“समय की मांग? पर कैसे ..?

“जी हां!” अब कूद कर शशांक उनके आगे आ बैठा था। “आप जितना विद्वान महान त्यागी और तपस्वी दूसरा है कौन?” शशांक ने गरुणाचार्य की प्रशंसा की थी। “अब हम सब ने मिल कर फैसला किया है कि ..”

“पर फैसला तो पंचायत का होना है भाई!”

“वो तो होता रहेगा!” शशांक हंस रहा था। “इससे पहले कि ये धूर्त लोग मक्कारी से सत्ता हथिया लें राय यही बनी है कि सारे बलवान और विद्वान एक हो जाएं!” शशांक ने गरुणाचार्य को फिर से परखा था।

एकाएक गरुणाचार्य का रंग बदल गया था। न जाने क्यों और कैसे शशांक ने सीधी चोट उसके मर्म पर की थी। धूर्त लोग आम तौर पर ही सत्ता हथिया कर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं और ज्ञानी, विद्वान और सज्जन सभी उनके आतंक के नीचे जीने के लिए विवश होते हैं!

“लेकिन शशांक ..”

“सब कुछ तय हो चुका है भगवन! आप आगे की चिंता बिलकुल छोड़ दें!” शशांक बहुत विनम्र हो आया था। “अब आपकी और जंगलाधीश की किसी मुबारक मौके पर मुलाकात होगी और फिर ..”

जाता हुआ शशांक गरुणाचार्य को एक अजूबा लगा था। उन्हें हवा का रुख वास्तव में ही मुड़ता लगा था! राज पाठ ओर सत्ता ..? अचानक गरुणाचार्य का सर चकराने लगा था।

गरुणाचार्य को अपना सारा तप, तपस्या और त्याग बलिदान मिट्टी में मिलता नजर आया था। अगर सत्ता के गलियारों में वह जा पहुंचे तो उनका पराभव निश्चित था। वह जानते भी थे कि सत्ता का सुख किसी भी दारुण दुख से ज्यादा कष्टप्रद होता है! लेकिन ..

न जाने क्यों एक मति भ्रम उनके ऊपर तारी होता लगा था। सत्ता का मद, सत्ता का नशा न जाने क्यों उनके मन प्राण में समाता ही चला जा रहा था ..!

“एक बार सत्ता हाथ में आ जाये तो सात पीढ़ियों तक का आनंद हुआ मानो!” अब उनका बागी हुआ मन उन्हें समझा रहा था। “क्या धरा है इस फकीरी में मित्र! रहो ठाठ बाट से! चलाओ दूसरों पर हुक्म! चराचर के मालिक हो जाओगे दोस्त! और तुम्हें तो होना भी चाहिये! तुम तो हो ही बड़े ..”

अचानक ही गरुणाचार्य की जीत के नगाड़े बजते सुनाई देने लगे थे। गरुणाचार्य तो क्या किसी को भी पागल बनाने के लिए इन नगाड़ों का शोर नाकाफी नहीं था!

“बचाइये प्रभु!” प्रार्थना की थी गरुणाचार्य ने। “सत्ता के इस मद से बचाइये! इसके नशे से मुक्ति दिलाइये! मैं भ्रमित होता जा रहा हूँ .. क्या करूं भगवन?”

“क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मौसी!” नकुल भोली के साथ बैठ कर विलाप कर रहा था। “मैं तो इसे पृथ्वी पति बनाने के लिए लड़ रहा था लेकिन इसने ..?”

“पागल तो तुम ही हो – नकुल!” मौसी ने सपाट स्वर में कहा था। “चूहों के लिए लड़ना तुम्हें कहां ले जाएगा?” मौसी ने उलाहना दिया था।

“जरासंध के जोर पर ये क्या जीत लेगा?” नकुल ने मौसी को आने वाले खतरों से खबरदार किया था। “मुझे दुत्कारने का सबब केवल जरासंध है मौसी – मैं जानता हूँ!”

“नहीं!” मौसी ने आंखें मटकाई थीं। “इसका सबब है तेजी!” मौसी ने हंस कर बताया था। “नकुल! कमजोर हमेशा ही अपनी जोरू पर जोर जमाता है! जानते हो क्यों ..?”

“क्यों ..?” नकुल ने पूछ लिया था।

“क्योंकि उसे शक होता है कि कहीं उसकी जोरू ..”

“नहीं नहीं मौसी ..!” नकुल तड़प सा गया था। “मैं तो उसका मित्र, स्वामी भक्त और वफादार दोस्त हूँ! और ..”

“ये सब की सब बेईमानी है नकुल!” भोली कह उठी थी। “कोई किसी का वफादार नहीं होता!” उसने दो टूक कहा था। “ये तो मौके मौके की बात होती है!”

अब नकुल खड़ा खड़ा सोच रहा था कि उसे पृथ्वी राज से हुई अपनी बेइज्जती का बदला तो लेना ही होगा!

लेकिन वह यह भी सोच रहा था कि कल को अगर पृथ्वी राज सत्ता में आ गया तो उसे उसी के साथ रहना होगा ओर हॉं तेजी भी तो उसे सहारा दे सकती थी!

मेजर कृपाल वर्मा

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