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जंगल में दंगल महा पंचायत पांच

कौवे को चुन्नी पर शक था। उसे चुन्नी की ईमानदारी, निष्ठा और लगन का खयाल नहीं था। उसने तो चुन्नी का एहसान तक नहीं उतारा था। कैसे चुन्नी काले को सफेद कह कह कर काग भुषंड को सत्ता के सोपान चढ़ाती रही थी – उसे तो अब याद तक नहीं था!

“छोटे की विडंबना ये है शशांक कि उसका बिना बड़ों के गुजारा नहीं है!” टीस कर कहा था चुन्नी ने। “हमें किसी न किसी के साथ तो शामिल होना ही पड़ता है!” उसने छोटों की मजबूरी बयान की थी।

“जरूरी नहीं है, चुन्नी!” शशांक ने मौका पाते ही पत्ते फेंके थे। “छोटे लोगों का हित अगर छोटे लोग ही नहीं देखेंगे – तो बड़ों की बला से!” वह तनिक हंसा था। चुन्नी पर होती प्रतिक्रिया उसे भली लग रही थी। “हमें अपने हित अहित स्वयं ही देखने होंगे!” उसने एक सुझाव सामने रख दिया था।

बहुत गूढ़ बात थी। चुन्नी की समझ से परे का सौदा था। वह सकते में आ गई थी। एक बार तो उसे लगा था जैसे शशांक उसे बातों के जाल में फंसा कर उलझा रहा था। वह जरूर कोई दुखती रग पकड़ कर उसका इस्तेमाल कर लेना चाहता था।

चुन्नी यह भी जानती थी कि शशांक अव्वल दर्जे का दूत था! खबर लेना ओर खबर देना उसका पेशा था! देते देते – ले लेना शशांक को आता था। अब चुन्नी खबरदार हो कर बैठ गई थी!

“फिर होना क्या चाहिये, मान्यवर?” चुन्नी ने संभल कर प्रश्न दागा था। वह शशांक का मंतव्य जान लेना चाहती थी।

“व्यवस्था ..!” शशांक गंभीर था। “एक ऐसी व्यवस्था चुन्नी जहां सब का हित सर्वोपरि हो!”

“असंभव है मान्यवर!” चुन्नी ने अपनी चोंच को संभला था। “एक दम असंभव!” उसने दोहराया था। “तुला पर तोल कर सत्ता का भोग संभव ही नहीं है!” चुन्नी ने दो टूक कहा था।

“लेकिन अंकुश तो अनिवार्य है?” शशांक ने भी प्रश्न पर प्रश्न दागा था।

“हॉं! अंकुश तो अनिवार्य है – मैं यहां तक सहमत हूँ!” चुन्नी तनिक प्रसन्न थी। लगा था उसने कुछ पा लिया था। जरूर शशांक के पास कोई मुद्दा था – जो आज तय हो जाना था।

“हम सब मिल कर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जहां हम सब का राज हो!”

“मतलब ..?”

“मतलब ये चुन्नी कि जो भी सत्ता में रहे – हमारे नीचे रहे!”

“मतलब ..?”

“मतलब कि निरंकुश न रहे!” शशांक ने फिर से खुलासा किया था। “हम छोटों की भलाई इसमें है कि हम बड़ों को अपने नीचे रक्खें! उनसे काम लें! उनसे ठीक ठीक काम करने को कहें! ओर अगर वह किसी कारण वश काम हमारे अनुसार न कर पाएं तो हम उनकी छुट्टी कर दें!”

“ये कैसे संभव है?”

“हमारे पास दूसरा विकल्प तैयार रहना चाहिये!” शशांक ने दार्शनिक की तरह चुन्नी को देखा था। “शेर अगर अच्छा राजा नहीं सिद्ध होता तो हम कौवे को नियुक्त करें और अगर कौवा भी अयोग्य सिद्ध होता है तो हम चूहे को राज काज दे दें!”

चुन्नी शब्दों के महा जाल में फंस गई थी। उसे इन गूढ़ बातों का ज्ञान बिलकुल नहीं था। वह तो बड़ों की बेहूदगी बरदाश्त करने की आदी हो चुकी थी। वह तो समझ बैठी थी कि शायद बड़ों का जन्म ही छोटों को रौंदने के लिए होता है। आज पहली बार ही था कि बड़ों पर अंकुश लगाने की बात सामने आई थी!

कुछ तथ्य थे जो आश्चर्यों की तरह चुन्नी के सामने आ बैठे थे!

शशांक की बातों में दम था। फिर वह एक काग भुषंड को लेकर ही पागल क्यों बने? जो योग्य हो वह राजा जो अयोग्य हो वह प्रजा! राजा बनाने और न बनाने का अधिकार उनका हो जिनके लिए राजा बनाया जाये! स्वयं ही चुनाव करें कि कौन बड़ा हो और कौन छोटा!

“न कोई बड़ा है न कोई छोटा!” शशांक ने चुन्नी की चलती विचारधारा को बल दिया था। “शरीर से छोटा बड़ा होना कोई माने नहीं रखता चुन्नी! बुनियादी तौर पर तो हम सब प्राणी ही हैं!”

चुन्नी की तीसरी आंख खुली थी और अब आ कर शशांक की कही बात – कि चूहे को राजा बना दें, उसकी समझ में आ गई थी। चूहे से अच्छी व्यवस्था की उम्मीद रखना वाजिब बात थी! शेर निरंकुश होने पर खतरनाक हो जाता है .. लेकिन चूहा ..?

“हमें गरुणाचार्य के सामने यही प्रस्ताव रखना होगा चुन्नी!” शशांक ने अपनी बात समाप्त की थी। “पंच मिल कर इस बात का ध्यान रक्खें कि सत्ता उसे सौंपी जाये जिसे सर्व हित की चिंता हो!”

“मसलन कि ..?” चुन्नी ने प्रश्न पूछ ही लिया था।

“मसलन कि – गीदड़!” शशांक ने तुरंत एक नाम सुझाया था। “लालू को ही ले लो! उसे तो सब की चिंता है! एक बहुत बड़ा समाज वादी है – वह! और सत्ता संभलने में निपुण भी है!”

“लेकिन वह शेर ..?”

“मिथ्यावादी है!”

“और वह सुंदरी?”

“बहुत चालाक है!”

मेजर कृपाल वर्मा

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