लालू और शशांक का आगमन पृथ्वी राज को चौंकाने के लिए कम महत्वपूर्ण न था। वह यह सुनकर ही सकते में आ गया था कि लालू और शशांक उससे मिलना चाहते हैं। आखिरकार ये चाहते क्या थे? क्या लालू उसे धमकाएगा? शेर का डर दिखा कर क्या वह उसे राजा बनने से रोक लेगा?
पृथ्वी राज बुरी तरह से डर गया था। वह अंदर बाहर से आतंकित हुआ लगा था। उसे लगा था जैसे धरती और आसमान आज एक हो गये हों! उसका तो शरीर भी सन्निपात की गिरफ्त में आ गया लगा था।
“तेजी ..!” उसने कठिनाई से आवाज लगाई थी। तेजी ही उसे ऊपर आई इस मुसीबत का एक मात्र विकल्प लगी थी। “तेजी ..! अरे कहां हो भाई?” उसने कराहते हुए कहा था। “सब कुछ छोड़ छाड़ कर ..”
“लो आ गई सब कुछ छोड़ छाड़ कर!” तेजी ने हाजिर होते हुए कहा था। “अब कौन सी मुसीबत आ गई?” उसने कड़क स्वर में पूछा था। “सब कुछ तो तय हो चुका है ..”
“मुसीबत ..! मुसीबत ही तो चल कर आई है तेजी!” कठिनाई से कह पाया था पृथ्वी राज। “जंगलाधीश .. माने कि शेर के पायक लालू और शशांक ..” वह कठिनाई के साथ कह पा रहा था। “अब क्या होगा तेजी? अब तो सब चौपट हुआ मानो! ये शेर तो है भी पाजी। वह किसी की सुनता कब है? अब धौंस मारेंगे ये दोनों और मैं अकेला?”
“हम अब धौंस में नहीं आएंगे जी!” तेजी ने दो टूक कहा था। “कहते हो तो जरासंध को खबर कर दूं?”
पृथ्वी राज तनिक होश में आया लगा था। पास खड़ी तेजी एक बड़ा ही सहारा लगी थी उसे।
“मैं अपनी कोई कमजोरी जाहिर करना नहीं चाहता तेजी!” एक लंबी सोच के बाद बोला था पृथ्वी राज। “जरासंध को ज्यादा चढ़ाना भी अच्छा नहीं होगा।” उसने तर्क दिया था।
“तो फिर नकुल भाई साहब ..?”
“हॉं हॉं! नकुल ही ठीक रहेगा।” पृथ्वी राज ने तेजी को घूरा था। “रास्ते पर तो हैं न साहबजादे?” उसने पूछ ही लिया था।
“आपका तो महामंत्री है!” मुसकुराई थी तेजी। “आप ही ज्यादा जानें!” तेजी ने व्यंग किया था।
“चलो बुला लो उसे फिर आज हम भी जान लेंगे कि ..” पृथ्वी राज ने भी उलटा कटाक्ष किया था। “और हॉं! तब तक तुम ही तनिक सूंघ कर देख लो – इन दोनों को!” पृथ्वी राज ने सलाह दी थी। “दोनों ही अव्वल दर्जे के काइयां हैं। क्या पता कौन सी खिचड़ी पका कर लाए हों?”
“और क्या पता – क्या क्या ले जाएं?” तेजी हंस कर चली गई थी।
लालू और शशांक अपने अपने पत्ते संभाल कर बैठे थे। उन्हें आज मिल कर एक महत्वपूर्ण खेल खेलना था। वह दोनों चाहते थे कि वो दोनों बिना कुछ खोए बहुत कुछ पा जाएं। बातों का ही तो विनिमय होना था – लेन देन तो सब बाद की बातें थीं।
“जंगलाधीश अब राजा तो रहेंगे नहीं लालू भाई।” दो टूक बात की थी नकुल ने।
“राजा तो अब कोई रहेगा ही नहीं!” शशांक ने भी समर्थन किया था नकुल का।
“जो होगा – वो तो सबका सेवक होगा!” लालू ने चतुराई से बात को पकड़ लिया था। “आप हों .. मैं हूँ .. या फिर पृथ्वी राज हों, जो भी हों होंगे तो सब सेवक ही!” लालू ने बात को और भी बड़ा किया था। “मैं भी तो इसी समाजवाद के विचार को बड़ा करने में कब से व्यस्त हूँ!”
पृथ्वी राज चलते संवाद को ध्यान से सुन रहा था। कुछ था तो जरूर जो उसके पक्ष में आता लग रहा था। लालू और शशांक शेर के डर का तो इस्तेमाल कर ही नहीं रहे थे।
“तय भी यही होगा कि जो भी सेवक चुना जाये – वह सर्व सम्मति से चुना जाए।” अब नकुल ने भी अपना पैंतरा संभाला था। “और अभी तक की सहमति तो पृथ्वी राज के पक्ष में ही है।”
“तो ठीक है!” शशांक अब कूद कर सामने आ गया था। “बिल्कुल ठीक है नकुल श्रीमान!” उसने नकुल के प्रस्ताव का स्वागत किया था। “लेकिन जिस होने वाली जंग की बात हम करते हैं और वह भी आदमी के साथ हम लड़ कर हम सारी पृथ्वी को हथिया लेना चाहते हैं – इस जंग को कौन लड़ेगा भाई? वह सेवा में शामिल तो नहीं है?”
शशांक की बात एक बम की तरह विस्फोट होकर उन सभी के दिल हिला गई थी। जंग तो जंग थी। उसे लड़ना आसान न था। उसे लड़ने के लिए तो लड़ाके चाहिये थे। और फिर एक ऐसी जंग जो आदमी के साथ लड़ी जा रही हो ..
“जरासंध हमारे साथ हैं भाई!” मुसकुराते हुए पृथ्वी राज ने अपना पत्ता फेंक दिया था।
“लेकिन अकेले जरासंध क्या जीत लेंगे?” अबकी बार लालू बोला था। “आदमी जितना जालिम है .. उतना तो कोई और ..?” लालू ने चेतावनी दी थी। “जरासंध भाई का तो न मुंह है न माथा! न सांस हैं न शरीर! और फिर ये आदमी ..?”
“फिर आपके श्रीमान शेर किस मर्ज की दवा हैं?” नकुल ने प्रश्न किया था। “अरे भाई जंग क्या हम अकेले लड़ने जा रहे हैं?”
“सर्व हिताय, सर्व सुखाय साम्राज्य में तो सभी का साझा होगा भाई साहब!” तेजी ने भी अपना पत्ता फेंका था। “जब सब सुख में साथ साथ होंगे तो जंग भी साथ साथ ही लड़ेंगे। और आपके ये शेर श्रीमान सबसे आगे होंगे क्योंकि ..”
“होंगे जरूर होंगे!” शशांक चहका था। “वो तो जंग में आगे होंगे ही!” उसने स्वीकारा था। “लेकिन ..?”
बात एक बड़े मुद्दे पर आकर ठहर गई थी। लालू अब पके आम से कांटा खींच लेना चाहता था।
“और बदले में उनका मान सम्मान, हौदा हौसला और अन्य सब कुछ उन्हें देना ही होगा। मसलन कि सुंदरी से उनकी शादी ..?”
“और फिर उनका राज्याभिषेक?” नकुल ने कटाक्ष किया था। “बेबुनियाद बातें कर रहे हैं लालू श्रीमान!” नकुल कूद कर अखाड़े में आ खड़ा हुआ था। “फिर तो सब शेर का ही हुआ?” उसने रोष में कहा था। “फिर तो वह सब को मारेगा भी और रोने भी नहीं देगा?”
बात बिगड़ती लगी थी। सब कुछ बहने लगा था। शशांक की समझ में बात की नजाकत समा गई थी।
“कौन राजपाट भोग रहा है यहां भाई?” उसने चढ़ा तीर कमान से उतार लिया था। “लेकिन अगर सूरमा को उसके करतब का भरपाया न मिलेगा तो वह लड़ेगा क्यों?” उसने प्रश्न को मोड़ कर खड़ा कर दिया था। “हम अब सर्व हिताय की बात कर रहे हैं।”
“मिलेगा क्यों नहीं जी मिलेगा!” नकुल ने स्वीकार में सर हिलाया था।
“लेकिन हक हकूक भी हिसाब से ही बांटे जाएंगे भाई साहब!” तेजी ने तुरप लगाई थी। “यूं तो फिर हाथी भी मांगेंगे, बघेर, शेर, चीते ओर भालू सभी हक को लेकर अड़ जाएंगे! और ..”
“जंग लड़ने से पहले एक दूसरी जंग आरम्भ हो जाएगी!” अब पृथ्वी राज ने बात को पकड़ा था। “ये बात बटवारे की नहीं है भाई! ये बात संगठन की है ओर एक ऐसा संगठन जो ..”
“जो सबको दे!” नकुल ने बात का समर्थन किया था।
“और जो सब से ले!” तेजी ने हंस कर बात से हुए घाव पर मरहम लगाया था। “ये मात्र आदान प्रदान होगा श्रीमान लालू जी!” उसने बात को समझाया था। “शेर तो शेर रहेगा और चूहा चूहा! हम अपना काम करेंगे तो शेर अपना काम करेगा!”
“सब को गुण ज्ञान के आधार पर आंका जायेगा!” पृथ्वी राज ने बात का तोड़ कर दिया था।
लालू को लगा था कि बात बनते बनते बिगड़ गई थी।
“चलेंगे श्रीमान!” शशांक ने लालू का इशारा पाकर इजाजत मांगी थी।
“मांगने से कभी कुछ मिला नहीं करता!” लालू ने उठते उठते एक चेतावनी उछाली थी। “हम खून खराबा नहीं चाहते थे – इसीलिए चलकर आये थे।” शशांक ने चलते चलते एक गंभीर चेतावनी उछाल दी थी।
चारों ओर सन्नाटा छा गया लगा था। पृथ्वी राज दहला गया था। वह तो जानता था कि ये दोनों चुगल जाते ही शेर के कान भरेंगे!
“गरुणाचार्य के ऊपर आखिरी फैसला क्यों नहीं छोड़ देते?” नकुल ने एक जाती आशा किरण को पकड़ा था।
लालू और शशांक ने अब पलट कर देखा था। कहीं एक उजाला सा हुआ लगा था। गरुणाचार्य का नाम बीच में आने से वह दोनों एक साथ प्रसन्न हो गये थे।
“हमें तो गरुणाचार्य पर पूरा भरोसा है! विद्वान है और निष्पक्ष न्याय करता है।” शशांक ने कहा था। “वही बात तय करें तो उचित रहेगा!”
बात एक आम मुद्दे पर आकर ठहर गई थी। गरुणाचार्य फिर से एक वक्त की जरूरत के तौर पर उदय हो गया था।
जहां स्वार्थ टकराते हैं वहां बिचौलिया ही बचाते हैं!