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जंगल में दंगल महा पंचायत चार

काग भुषंड ने अपने हाथियों के साथ हुए समझौते का ऐलान कर दिया था। जंगल की हवा थर्रा गई थी। एक शोर और एक शांति साथ साथ जंगल में टहलने लगे थे। जहां कुछ खेमों में खलबली थी वहीं कुछ खेमे बिलकुल शांत थे!

जोड़ तोड़ जमीन और जहन दोनों पर चल रही थी। और एक दौड़ भाग थी जो गुपचुप चल पड़ी थी। सबका प्रयास था कि एक बड़े गुट के रूप में उभरें और आदमी से राज पाट छीन कर पृथ्वी के स्वामी बन जाएं!

अब जैसे आदमी का मरना तो तय हो ही चुका था – केवल सत्ता का बंटवारा ही था जिसका आधा साझा होना था!

“इस कौवे के काटे की कोई काट नहीं!” शशांक ने टीस कर कहा था। “हाथियों को साथ लेकर ..?”

“जाएगा कहां?” लालू गर्जा था। “हाथी भी कोई चीज हैं यार!” उसने मुंह ऐंठा था। “खा खा कर गोबर करते हैं बस!” लालू ने अपनी दलील में दम डाला था। “अपने जंगलाधीश की एक दहाड़ से इनके कलेजे कांपते हैं!”

“मैं मानूंगा नहीं!” जंगलाधीश ने अपनी दुम को उठा कर कमर पर रख लिया था। “मैं आज ही हाथियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दूंगा!” उसने गर्जना की थी।

“मारना चोर को नहीं है जंगलाधीश!” शशांक मुसकुराया था। “वो जो चोर की मां हैं ना – काला कौवा! इलाज तो उसका होना है!” उसने सुझाव दिया था।

अब कौवे का इलाज हो तो क्या हो? शेर की पकड़ में आज तक कभी कोई कौवा आया ही नहीं था!

धूर्त से लड़ना कितना कठिन होता है – ये पहली बार जंगलाधीश की समझ में आया था। कौवे के साथ मोल ली दुश्मनी उसे महंगी पड़ सकती थी – जंगलाधीश ये जान गया था!

“गरुणाचार्य से मिलो शशांक!” लालू ने सुझाव दिया था। “बताओ उसे कि किस तरह उसका ये काग भुषंड उसी की बदनामी करता फिर रहा था।”

“इससे क्या होगा?” जंगलाधीश ने तुनक कर प्रश्न किया था।

“होगा ..! आप का चाहा सब होगा – जंगलाधीश!” लालू ने मुसकुराकर कहा था। “और हॉं!” अब वह शशांक की ओर मुड़ा था। “कह देना शशांक – आधा राज उसका! लेकिन जीत हमारी ही होनी चाहिये!”

“ये क्या कहा ..?” भड़क उठा था जंगलाधीश। “अरे! राजा होकर मैं रिश्वत दूंगा! और वह भी उस पंछी को ..?”

“इसे रिश्वत नहीं कहते महाराज!” सुंदरी ने मुसकुरा कर कहा था। “ये तो सत्ता के पत्ता हैं! हमेशा से इसी तरह बंटते रहते हैं!” वह हंस रही थी।

जंगलाधीश फिर एक बार सकते में आ गया था! अब उसकी समझ में कुछ भी न आ रहा था!

“लार टपक जाएगी गरुणाचार्य की!” एक किलक लीलते हुए शशांक ने कहा था। “इस आधे राज की चाल पर तो चित्त हुआ समझो गरुणाचार्य को!” उसने मुड़कर जंगलाधीश की ओर देखा था। “अब आपका ये कांटा कौवा यह गरुणाचार्य निकाल देगा महाराज!” वह कूदकर शेर के सामने आ गया था। “अब आप चिंता बिलकुल मत करो!”

“कांटे को कांटा ही तो निकालता है!” सुंदरी ने भी शेर को पुचकारा था। “वैसे भी ये कौवा आप के हाथ के बाहर की बला है!” अब उसने लालू को परखा था। “अब आएगा कलूटा .. काबू!” सुंदरी हंस रही थी।

चुन्नी और शशांक की बैठक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर हुई थी। दोनों दो बड़े गुटों के प्रतिनिधि थे। कई महत्वपूर्ण समझौते उन दोनों की सलाह पर होने थे। आगे आने वाला वक्त एक ऐसी अनोखी व्यवस्था को जन्म देनेवाला था जहां समान अधिकार और कर्तव्यों की व्याख्या ही नहीं होनी थी – उन्हें अमल में भी लाना था!

अब तक तो आदमियों की धांधलियां चलती थीं। लेकिन अब अगर जानवरों में भी ये धांधलियां चलीं तो सब चौपट हो जाना था! अगर बड़ा छोटे को खाता ही रहा – तो फिर विध्वंस तो निश्चित ही था!

“मैं हमेशा से एक बात मान कर चला हूँ, चुन्नी!” शशांक कह रहा था। चुन्नी न जाने क्यों शशांक की बातों में रस ले रही थी। उसे शशांक बहुत अच्छा लगता था। और वह था भी अच्छा! हमेशा दूसरों की भलाई ही उसके जीवन का मूल मंत्र था! “हमें छोटे छोटे युद्ध पहले तय कर लेने चाहिये!” उसने चुन्नी को निगाहों में लेकर तौला था। “मसलन के काग भुषंड की तरह शोर शराबा मचाने से सत्ता नहीं चला करती! और न ये जोड़ तोड़ भी किसी काम के हैं!” शशांक ने धीरे से बात को आगे सरकाया था। “तुमने इस कौवे को आगे बढ़ाया और इसने तुम्हें ही पीछे धकेल दिया!” शशांक ने अपनी गोल गोल आंखें नचाई थीं। “सत्ता का यही विचित्र खेल है चुन्नी!” शशांक चुप हो गया था।

चुन्नी कहीं टीस कर रह गई थी। कांटे की तरह उसके भीतर कुछ चुभ गया था। काग भुषंड के साथ वह भी सत्ता के दो चार सोपान चढ़ जाना चाहती थी। लेकिन आज यही काग भुषंड चुन्नी को धता बता कर सत्ता के शीर्ष पर जा बैठा था!

मेजर कृपाल वर्मा

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