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जंगल में दंगल – संकट दो

रात का अंधकार अब उजाले में बदल गया था।

लालू था कि जंगल में भीतर ही भीतर भागता ही जा रहा था। उसे लग रहा था जैसे उस आदमी की छोड़ी वो गोली अभी भी उसका पीछा कर रही थी। उसके दिमाग में एक आतंक भरा था। भागते भागते आदमी के प्रति एक रोष, एक घृणा ओर एक दुश्मनी पक्की होती जा रही थी।

“इस आदमी का इलाज तो खोजना ही होगा!” वह जैसे शपथ ले रहा था – बार बार! “नाक के नीचे आई लच्छी के न मिलने का गम उसे खाए जा रहा था। “चलते हैं जंगल के राजा के पास!” उसने ठान लिया था। “साफ साफ कह देते हैं कि जंगल में दंगल नहीं मंगल होना चाहिये! अरे, आदमी ने भी तो अपने लिए स्वर्ग तैयार कर लिया है! तो हम क्या दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा सकते?”

भागते भागते लालू के कदम अटक गये थे।

वह जो देख रहा था – वह किसी घट जाने वाले घोर अनिष्ट जैसा ही था। जंगल में ग्रहण लगा हुआ था। गये दिन कुछ न कुछ अशुभ घटता ही रहता था। न जाने और कौन से दुर्दिन आने थे! जो वो देख रहा था – वह तो निरा धोखा था .. फरेब था! आदमी का बिछाया हुआ जाल आज न जाने किसकी जान लेगा – लालू समझ नहीं पा रहा था।

पेड़ के तने से एक तंदुरुस्त बकरा बंधा था। लालू ने अपनी चतुर दृष्टि से पेड़ पर बैठे चार पांच लोगों को ताड़ लिया था। उनके हाथों में लगी बंदूकों को देख उसका कलेजा फिर से हाथ में आ गया था।

उसका मन हुआ था कि जोरों से हुआं-हुआं चिल्लाए और पूरे जंगल में इस खतरे की मुनादी कर दे! कहे – खबरदार! यह आदमी की चाल है। ये बेजबान बकरा नहीं – खतरा है! जो इसे खाएगा – जान से जाएगा!

लेकिन शिकारियों का डर उसपर इस तरह तारी था कि उसकी जबान खुल तक न पाई थी और उसकी रुलाई उसके गले में ही अटकी रह गई थी।

तभी उसने सामने की झाड़ियों में एक सरसराहट को होते देखा था। वह अनुमान से ताड़ गया था कि जरूर बकरे की सूंघ के पीछे चला आया ये जंगलाधीश ही था! उसकी टांगें कांपने लगी थीं। फिर उसने एक बार प्रयत्न किया था कि जोरों से हूकरी दे और कहे – जंगलाधीश! ये लालच का बकरा है। मत खाओ इसे! बुरा हो जाएगा। बेमौत मरोगे मेरे राजा!

शेरों में अक्ल का इतना अभाव क्यों होता है – लालू आज समझने का प्रयत्न कर रहा था!

लेकिन जब घरघरा कर जंगलाधीश ने बकरे पर हमला किया था तो उसका ध्यान उचट गया था। अरे रे! ये तो रानी थी! आश्चर्य हुआ था उसे! नर के बदले मादा? फिर क्या नरों ने जंगल में भी चूड़ियां पहन ली थीं और मादाओं को आगे कर दिया था? कमाल ही था कि शेरों ने भी घास खाना छोड़ दिया था!

“धांय धांय धांय .. शिकारियों की बंदूकें जो चलीं तो चलती ही चली गईं थीं। लेकिन रानी की उछांट में दम नहीं था। लालू ताड़ गया था कि रानी गर्भवती थी। देखते ही देखते वह लहूलुहान हो कर जमीन पर चित आ गिरी थी!

रानी के जख्मों से खून बह रहा था और लालू जारो कतार हो हो कर रो रहा था! वह करता भी तो क्या? वह तो जंगलाधीश को ही कोस रहा था। वह समझ ही न पा रहा था कि रानी का यों गर्भवती होकर भी शिकार करने चले आना क्या अर्थ रखता था?

शिकारी मन की पाई मुराद की तरह रानी के शव को कंधों पर उठा ले जा रहे थे!

जंगल में दिन दहाड़े पड़ते इन डाको को कोई रोक क्यों नहीं पा रहा था? कब तक चलेगा ये जंगल राज – लालू समझ नहीं पा रहा था!

तभी दहाड़ता .. फड़फड़ाता .. दुमकारता जंगलाधीश उसे आता नजर पड़ा था। उसका कलेजा जल उठा था। मन तो आया था कि उस बेशर्म के मुंह को पीट दे और कहे – नपुंसक! उस गर्भवती रानी को मरवाने से तुझे क्या मिला? तेरा तो वंश ही मिट गया जन्म जले! तू मर कहां रहा था? जोरू की कमाई खाना तूने कब से सीख लिया? आदमी की नकल अक्ल सीखने में क्यों नहीं करता, मूर्ख!

“छोड़ूंगा नहीं!” दहाड़ा था जंगलाधीश। “एक एक को फाड़ कर फेंक दूंगा! लाशें बिछा दूंगा! खून का बदला खून है! रानी की मौत का मतलब होगा ..”

“खाक!” लालू सामने आ कर एंठ कर खड़ा हो गया था। “थूह!” उसने तिरस्कार से थूका था। “घमंड करते हो राजा होने का और मादा की आड़ में ऐश करते हो?”

“कसम ले ले लालू! यही नहीं मानी थी। आ तो मैं ही रहा था पर बोली – रात भर के थके मांदे हो! सो लो। ये बकरा तो में अब लाई!”

“अब क्या करोगे?” लालू ने पूछा था।

“हमला ..! आक्रमण!” लाल लाल आंखें तरेर कर जंगलाधीश ने कहा था। “जंग का ऐलान करूंगा – इस आदमी के खिलाफ ..”

“अकेले ..?”

“हॉं!” जंगलाधीश ने छाती ठोक कर कहा था। “मैं किसी से डरता हूँ क्या? मेरा मुकाबला है कहां! शेर हूँ शेर!”

“आदमी के आगे अब आप गीदड़ भी नहीं हो भाई!” लालू तिरस्कार से बोला था। “व्यर्थ की शेखी मत बघारो! जान से जाओगे – कहे देता हूँ!” लालू ने चेतावनी दी थी।

“डरा रहे हो?” जंगलाधीश ने अपने तन आये तेवर और भी तेज कर लिए थे। “तुम्हारी तरह मैं गीदड़ नहीं हूँ! आन के लिए जान देना मुझे आता है!”

“तभी तो उजड़ते चले जा रहे हो राजा!” लालू हंसा था। “आन के लिए जान देने की ये झूठी संज्ञाएं तुम्हें समूल नष्ट कर देंगी!” लालू ने ऑंखें तरेरी थीं। “आदमी को नहीं देखते? मौके के लिहाज से लड़ता है पट्ठा! भागना जरूरी हो तो भाग लेता है और अगर छुपना जरूरी हो तो – ढूंढें नहीं मिलता!”

“कायर है!”

“नहीं! चतुर है!”

मेजर कृपाल वर्मा

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