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जंगल में दंगल समर सभा चार

समाजवादियों की जीत हुई थी। इससे चुन्नी बहुत प्रसन्न हुई थी। उसने चोर निगाहों से लालू को घूरा था। शेर की दुम को पकड़े खड़ा ये गीदड़ कितना बुद्धिमान था – वह सोचे जा रही थी। लालू का समाजवाद अब आकर ही दम लेगा – ऐसा लगने लगा था।

“बेबुनियाद है पालतू जानवरों से आदमी के खिलाफ कोई उम्मीद करना!” नकुल ने एक घोषणा जैसी की थी। “पुगली कुत्ते को देखा है!” उसने जमा भीड़ के सामने वफादारी के प्रतीक पुगली कुत्ते का नाम उजागर किया था। “क्या मजाल है कि उसके मालिकों के खिलाफ जूं भी रेंग जाए! फाड़ कर खा जाता है।”

“कुत्तों से और क्या उम्मीद रखते हो भाई!” शशांक की सहज प्रतिक्रिया थी।

“यही भ्राता शशांक कि कुत्ते कभी आदमी से गद्दारी नहीं करेंगे। ये हमारा साथ कभी नहीं देंगे।” अब नकुल ने काग भुषंड को घूरा था।

लगा था – जैसे एक बना बनाया काम बिगड़ गया हो। पालतू जानवरों का एक अलग से जखीरा था। अगर ये सब आ मिलते तो आधा काम आसान हो जाना था।

“घोड़ों की ही बात ले लो!” लालू ने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था। “अरे भाई आदमी को महान बनाने में घोड़ों का ही तो योगदान है। पूरी धरती पर दौड़ दौड़ कर और आदमी को पीठ पर ढो ढो कर इन्होंने ही उसे महामना, महाराजा, राजाधिराज और न जाने क्या क्या नहीं बना दिया?”

“और अब ये किये के सर बैठे हैं! पूछ रहा है इन्हें कोई आदमी? भूखों मर मर कर जान जा रही है इनकी!” चुन्नी ने मुंह बिचकाया था।

“आदमी का कोई बाप है तो वह है उसकी जरूरत – बस! उसके आगे तो ये अपने बाप को भी नहीं पूछता!” मणिधर ने विष वमन किया था। “हमारी भी तो पहले ये पूजा करता था – लेकिन अब ..?”

“यही बात तो इन भोले पालतू भाइयों को मैं गा गा कर बताऊंगा मित्रों!” काग भुषंड फिर से उछला था और ऊंची डाल पर जा बैठा था। “तोता मैना से लेकर भेड़ बकरियों तक और गाय भैंसों से लेकर मुर्गी मछलियों तक मेरा प्रचार चलेगा!” वह चहका था। “भूखा मार दूंगा आदमी को अकेला – मैं!” उसने मुड़ कर हुल्लड़ को घूरा था।

“उसके बाद हम हैं!” हुल्लड़ ने भी हामी भरी थी। “भूखे पेट आज तक कोई लड़ पाया है क्या?”

हुल्लड़ और काग भुषंड ने अकेले हाथों जंग जीत ली थी – जैसे। एक सन्नाटा पूरी समर सभा पर छा गया था। जंगलाधीश को कोफ्त होने लगी थी। हर बार ही काग भुषंड पारी को अपने पक्ष में कर लेता था। उसने मुड़ कर लालू को ललकारा था। लालू ने चोर निगाहों से शशांक को घूरा था।

“बड़ा मूंह और छोटी बात!” शशांक सामने आया था। “लेकिन मैं अपना विनम्र निवेदन किये बिना रह नहीं सकता! इससे हम सब का भला हो सकता है इसलिए मैं ..”

“कहने को अब रह क्या गया है भाई साहब!” चुन्नी ने प्रश्न किया था।

“यही बहिन जी कि जो पृथ्वी राज की मौसी जी हैं भोली क्या उनका कोई इलाज काग भुषंड जी के पास है?”

शशांक का दागा प्रश्न गोली की तरह काग भुषंड के सीने से पार हो गया था। हुल्लड़ ने भी महसूसा था कि ये शशांक जितना भोला लगता था उतना था नहीं! तीर और तलवार से भी गहरा घाव दे जाता था बोलने के बाद!

लालू प्रसन्न था। जंगलाधीश ने भी शशांक को प्रशंसक निगाह से घूरा था। और शशांक भी एक अजेय योद्धा की तरह समर सभा में तना खड़ा था।

भोली मौसी का रूप स्वरूप रह रह कर पृथ्वी राज को सता रहा था। तेजी के भी पसीने छूट रहे थे। उसे संतो की गोद में बैठ कर माल खाती मौसी किसी बम गोले से कम न लगी थी।

नकुल भी बुरी तरह से सकपका गया था। वह भी जानता था कि एक से लाख तक भोली उनके दल में शामिल नहीं होगी। भोली के शरीर से भी नकुल को गद्दारी की बू आती लगी थी।

बिल्लियों को क्या मुसीबत थी जो वह आदमी के सर्वनाश में शामिल होतीं? उन जैसी मौज तो कुछ आदमियों तक को नसीब नहीं थी।

काग भुषंड भी बुरी तरह से झुंझला गया था। उसका वश चलता तो शशांक की आंखें नोच लेता! लेकिन गुर्राता गरजता जंगलाधीश उसके जहन में एक रोक लगाए था। यूं जीती बाजी हार जाना आज फिर उसे बहुत बुरा लगा था।

“सदियों से आदमी के वफादार बने ये पालतू जीव जन्तु एकाएक उसके दुश्मन नहीं बनेंगे!” गरुणाचार्य ने अपना मत पेश किया था। “अब वो आदमी के हो चुके हैं – आदमी के साथ रहने से!” उन्होंने काग भुषंड की पूरी रण नीति पर घड़ों पानी पटक दिया था।

काग भुषंड ने मारक निगाहों से गरुणाचार्य को घूरा था। वह चाह रहा था कि आज इस भरी सभा में फिर वह गरुणाचार्य को गरिया दे! सभा भंग कर दे। और ऐलान कर दे कि उसे भी आदमी के खिलाफ जंग करने का कोई शौक नहीं है। आदमी ने उसका भी क्या बिगाड़ा था जो वह उससे उलझने घूम रहा था?

“लड़ाई लड़ने से पहले ही हम हारते क्यों जा रहे हैं मित्रों?” नकुल ने व्यंग किया था। “इस तरह वाद विवाद ही चलता रहा तो सदियां बीत जाएंगी!” उसने पृथ्वी राज की तरफ देखा था। “महाराज आप आदेश दें! आदमी पर हमला करने के आदेश आप अपने सेनापति को दीजिए!” महामंत्री नकुल ने पृथ्वी राज को याद दिलाया था कि वह हुक्म देने का अधिकार पा चुका था।

लेकिन पृथ्वी राज का दिमाग एक सन्निपात से भरा था। अब उसे शेर को हुक्म देना था! जंगलाधीश के सामने आज उसे मुंह खोलना था। बार बार प्रयत्न करने के बाद भी उसकी जबान हिल नहीं पा रही थी! क्या आदेश दे, और कैसे आदेश दे? जंग होगी तो कैसे? जंग का क्या आरम्भ होगा ओर क्या अंत? उसने तो कभी बिल से बाहर निकल कर लड़ती बिल्लियों को भी नहीं देखा था!

“जंग का ऐलान किया जाए! और हमला सीधा किया जाए!” जंगलाधीश ने अपने तेवर कस कर कहा था। “सदियों तक भी गाल बजाते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा भाइयों!”

लालू के मन में लड्डू फूटने लगे थे। जो वह चाहता था वही होने वाला था। शशांक ने अपनी गोल गोल आंखें घुमा कर मातम मनाते काग भुषंड को देखा था!

मेजर कृपाल वर्मा
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