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जंगल में दंगल महा पंचायत दस

सोए पड़े जंगलाधीश को शशांक ने आहिस्ता से जगाया था।

“अब कौन सी मुसीबत है भाई ..?” झल्लाया था जंगलाधीश। “कोई मुझे सोते से जगाये तो मुझे बहुत बुरा लगता है शशांक!” उसने तनिक बिगड़ते हुए कहा था। “अगर अपने राज में भी मैं नहीं सो सकता तो ..?”

“प्रश्न ही टेढ़ा फंस गया है जंगलाधीश।” गिड़गिड़ाते हुए शशांक ने कहा था। “कोई छोटी बात होती तो मैं ही निपट लेता। लेकिन ..”

“क्या कौवे ने फिर से कोई चाल फेंकी है?” सतर्क होकर बैठ गया था जंगलाधीश। “या कि उस गरुणाचार्य ने कोई गड़बड़ी की है?”

“बात ये नहीं जंगलाधीश बात तो आपके राज्याभिषेक की है।” शशांक ने फुर्ती से बात पलट दी थी। “गरुणाचार्य के साथ तो सौदा तय है! और कौवे की ओर से भी कोई अड़चन नहीं है!”

“फिर अड़चन कहां है भाई।”

“अड़चन ये है महाराज कि ..” तनिक रुका था शशांक। “समझ ही नहीं आ रहा है कि ..”

“बोलो भी भाई। अड़चन से तो हम लड़ जाएंगे। तुम बोलो तो ..?”

“प्रश्न ये है कि पहले राज्याभिषेक हो या आपकी शादी?” शशांक ने एक धमाका जैसा किया था। “लालू तो कहता है – शादी पहले। लेकिन मैं कहता हूँ – कि राज्याभिषेक पहले।” शशांक ने आंखें नचाई थीं। “है न गंभीर प्रश्न महाराज?” शशांक ने शेर के गले में जैसे घंटी बांध दी थी।

जंगलाधीश भी चकरा गया था।

प्रश्न तो महत्वपूर्ण था ही। शादी और राज्याभिषेक दोनों ही महत्वपूर्ण घटनाएं थी। दोनों का एक दूसरे से संबंध था। दोनों की अपनी अपनी अलग अलग अहमियत थी। कौन पहले आये और कौन बाद में – ये तो सोचने की ही बात थी।

“क्या सुंदरी से पूछा है?” जंगलाधीश ने गंभीरता पूर्वक पूछा था।

“नहीं महाराज!” शशांक का उत्तर था। “सोचा – पहले आप से ही सलाह ले लूँ।”

अब जंगलाधीश की नींद खुल गई थी। एक बार तो मन हुआ था कि शशांक के हाथ सुंदरी को बुला भेजे और उसे पूछ ले कि पहले शादी मनाएं या कि राजा बनें? लेकिन एक संकोच ने उसे रोक लिया था। वह चाहता था कि इस प्रश्न का उत्तर कोई और ही दे।

“आप कहें तो गरुणाचार्य से परामर्श कर लें?” शशांक ने बहुत विनम्र होते हुए कहा था। “वे तो विद्वान हैं। शास्त्रों का भी उन्हें अच्छा ज्ञान है। हो सकता है कोई भली राय दे दें?” शशांक की जबान से शहद टपक रहा था।

“बहुत खूब!” प्रसन्नता से उछल पड़ा था जंगलाधीश। “बहुत खूब, मित्र!” वह हंसा था। “उससे बड़ा ज्ञानी तो कोई है ही नहीं! ठीक ही विचार बिठाएगा – मैं जानता हूँ!” स्वीकृति दे थी जंगलाधीश ने।

आहिस्ता आहिस्ता लौटता शशांक जंगलाधीश को बहुत प्रिय लगा था। शशांक पर जान भी न्योछावर कर दी जाए तो भी कम था – वह सोच रहा था। शशांक हमेशा ही उसका हित सोचता था। वह बहुत मित भाषी था। बहुत ही विनम्र था। सुंदरी के साथ शादी होने के बाद शशांक को साथ रखने का जंगलाधीश का मन बन गया था।

अच्छे सेवक मिलते कहां हैं?

“पहले शादी होने दो लालू!” सुंदरी समझा रही थी। “बंधन होना ही एक अलग बात होती है। एक बार हमारा संबंध हो जाए फिर तो साथ साथ हम राजा रानी बन जाएंगे।” उसने सलाह दी थी। “सत्ता पाने के बाद कब किसका दिमाग फिर जाए – कोई पता होता है क्या?” सुंदरी ने कांटे की बात की थी।

तेज तेज कदमों से दूर जाता लालू सुंदरी को जादूगर जैसा लगा था – जिसकी झाेली में सब कुछ था और कुछ भी नहीं था। वह चाहकर भी लालू को अभी नंगा नहीं करना चाहती थी। क्या पता – कौन सा असंभव कब संभव बन जाए?

“संभव असंभव की बात ही मत करो, मणि धर!” पृथ्वी राज निडर था। वह मणि धर से दो टूक बात करने पर तुला था। “मौसी को पूछ लो .. हमने कभी भी इन्हें रोका हो या टोका हो!” वह रुका था। उसने समर्थन के लिए मौसी की ओर देखा था। “संतो सेठानी की ही दूध मलाई खाकर ये मस्त रहें – हमें इसकी चिंता नहीं! हमें चिंता है – कि जब ये भूखी रहें! आज तक कभी भी हमने कभी इन्हें रोका हो या कि टोका हो तो पूछ लो!”

“नहीं भाई! सच कहूँगी मैं तो पेट भर कर चूहे खाती हूँ।” भोली मंद मंद मुसकुरा रही थी। “और मेरा खयाल तो तेजी भी रखती है।” वह हंसी थी इस बार!

“और अब आप लोगों का खयाल भी हम रक्खेंगे। हम आपका भोजन हैं – तो हैं। आपको भूखों तो नहीं मरने देंगे देव!” पृथ्वी राज अधीर सा हो आया था। “राजा बन कर अगर हम आपके भोजन भजन का भी प्रबंध न कर पाए – तो लानत है हम पर!”

एक गंभीर प्रश्न मणि धर के सामने आ खड़ा हुआ था। वह चाहकर भी नहीं चाहता था कि सर्प अपना साम्राज्य चूहों के नाम लिख दें।

“और हमारा क्या है?” इस बार तेजी बोली थी। “सब आपका ही तो है। हम तो बस इकट्ठा करते हैं आप लोगों के लिए! हमारी अपनी भूख तो तोले दो तोले की है बस!” तेजी ने भोली की ओर देखा था। “हम जो राजा बनकर भी आपके सेवक ही रहेंगे!” उसने बात को तोड़ पर ला दिया था।

“भाई धरती तो हमारी है।” मणि धर कसक कर बोला था। “हम ही तो धरा पति हैं।” उसने घोषणा की थी। “फिर हम ..?”

“रहिये धरा पति आप!” अबकी बार भोली ने कहा था। “रोकता कौन है आपको?” वह हंस रही थी। “धारे रहिये पृथ्वी को अपने शीश पर!” भोली ने व्यंग किया था। “अगर ये गरीब पृथ्वी राज हम लोगों की सेवा करना चाहता है तो हम इसे क्यों रोकें?” भोली ने दलील दी थी। “अरे भाई! आपको और मुझे तो भरपेट खाने को मिलेगा ही!” वह फिर से चहकी थी। “अब बाकी की बाकी जानें!” उसने कुलांच भरी थी। “मणि धर भाई हॉं कह दो।” भोली ने आग्रह किया था। “आप भी पंच हैं! गरुणाचार्य को तो आप मना सकते हैं! बात को अब पृथ्वी राज के पक्ष में ला दो।” भोली ने पलटकर मणि धर को देखा था।

“आज ही सब तय कर दो नागराज!” अब तेजी चहकी थी। “आप की भूख तो हम बुझाते ही रहेंगे .. अपनी काया दे दे कर हम आपको ..” उसने मुड़ कर भोली की ओर देखा था। “और आप क्या लोगे हम से ..?”

बात तय हुई सी लगी थी। मणि धर को भी सौदा बुरा न लगा था। चूहा उनका प्रिय भोजन तो था ही और वही उन्हें भर पेट मिल रहा था।

अब और कोई मुद्दा तो रह ही नहीं गया था।

मेजर कृपाल वर्मा
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