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जुआरिओं के सिवा तुम किसीऔर को जानते भी हो ?

गतांक से आगे :-….

भाग – ५२

पारुल का मन-मयूरा फिर से अपने प्रेम-देवता को टेर बैठा था ….!!

न जाने कैसे संभव को भूल उसने इस बार चन्दन को पुकारा था. चन्दन के शरीर की सुगंध न जाने कैसे उस तक आ पहुंची थी. न जाने क्यों उसका तन-मन अब हर पल .. हर क्षण केवल चन्दन का ही स्मरण करता था. और उसी से बतियाता रहता था .. संवाद थे .. प्रेम-पगे संवाद थे. और थे शब्द .. रस में भीगे शब्द ! और था चंचल नयनाभिराम .. जो चन्दन को निहारता ही रहता था .. देखता ही चला जाता था .. भिन्न-भिन्न भंगिमाओं में !

“ये देखो मेम !” गप्पा आंधी की तरह दौड़ती चली आई थी. “ये देखिये ‘रिपोर्टर’ का अंक. अभी आया है !” उसने पारुल को एक सुन्दर पत्रिका प्रदान की थी. “देखिये ! चन्दन बोस प्रथम पृष्ट पर हैं !” गप्पा ने पारुल को जताया था. “लेख छपा है !” उसने पारुल की आँखों में घूरा था.

“चर्चा है ..!”

“क्या चर्चा है ?” पारुल उत्सुक हो आई थी.

“शायद उन्हें विश्व शांति पुरूस्कार मिले ..!” गप्पा ने गर्व के साथ कहा था.

“ग्रेट ..!!” पारुल के होंटो से टपका था. “रियली ग्रेट ..!!” वह मुस्कुराई थी. “हमारी पत्रिकाओं में क्या छप रहा है ?” पारुल ने तुरंत पूछा था.

“वह बनिया का लेख ! आपने .. कहा था न कि ..”

“भालो बाशो….” पारुल आल्हादित थी. “नारी कल्याण की बात करो.” उसने कहा था “नारी पर लिखो” पारुल सोचने लगी थी. “हाँ! ‘नर नहीं नारी को पूजो’ शीर्षक पर लेख या कहानी लिखवाओ. उसे कहो ठीक से लिखेगा और मुझे दिखायेगा.” पारुल कहती जा रही थी. “और सुनो ! मुझे चोट का मसाला चाहिए !”

“लिख देगा !” गप्पा बता रही थी. “उसके पास बहुत मसाला है !” वह हंस पड़ी थी. “बड़ा चोर है ..! देखना आप ..”

गप्पा ‘रिपोर्टर’ को’ छोड़ गई थी. पत्रिका के मुख पृष्ट पर छपा चन्दन बोस का चित्र न जाने कैसे बोलने लगा था. पारुल को लगा था कि उसकी आँखें अनवरत पारुल को ही निहार रही हैं. चन्दन बोस उसे अचानक हुस्न का रसिक लगा था. लेकिन नहीं. अगर उसका नाम विश्व शांति पुरूस्कार के लिए जा रहा था तो .. उसे ..

“हाथ कंगन को आरसी क्या ..?” हंसी थी पारुल ! उसने पत्रिका को खोला-टटोला था. उसने पाया था कि चन्दन बोस का लेख ‘ग्रीड्स एंड क्रीड्स’ टाइटल के अंतर्गत छपा था. पढने से पहले पारुल रुकी थी. वह न जाने क्यों तनिक रुक गई थी. उसे लगा था – कि कही चन्दन बोस उसकी औकात के आगे न निकल जाये ….? कही .. ऐसा न हो कि … वह ..

“अ मेन इस अ सिंगल सिटीजन” अंग्रेजी में था लेख. दूसरे पेज पर उसका रूपांतर भी छपा था. “शिकागो में दिए चन्दन बोस के वक्तव्य के अंश – एक आदमी – एक नागरिक ! लिखा था, नागरिक है वो ! परमात्मा की पृथ्वी में उसका सम्पूर्ण साझा है ! लेकिन हम आदमखोर उसका हक़ छीन लेते हैं .. और वह भूखा नंगा रह जाता है ! मेरी चिंता है, मित्रों ! कि हम उसका हक़ न छीने .. उसे भी जीने दें .. क्यों कि ऐसा करना अपराध है .. घोर पाप है, यह !”

कितनी विनम्रता है लेख में और कितना ..

पारुल की आँखें सजल हो गई थीं. उसे लगा था कि वास्तव में ही हम सब चन्दन के बताये चोर थे ! हम सब ही हर विपत्ति का मूल थे .. और हम सभी ..

“सिम्पली ग्रेट !!” कहते हुए पारुल ने ऑंखें पोंछ लीं थीं.

अब वह चन्दन बोस के चित्र को देख रही थी. ‘जीनियस’ उसके होंटो से निकला था. “ही इज अ जीनिअस .. एंड नोट लेस !” पारुल ने चन्दन बोस को मन प्राण से सराहा था. चन्दन बोस के मोटे-मोटे होंटों पर उगी छोटी-छोटी मूछें उसे बेहद पसंद आ गई थीं. आँखों पर लगे चश्मों के पार आती उसकी पारदर्शी दृष्टि जैसे पारुल का अन्दर-बाहर सब देख आई थी – ऐसा लगा था. पारुल को एक विशेष प्रकार का रोमांच हुआ था. क्या था – ये ..? क्या उसे चन्दन बोस से प्यार हो गया था ? उसका फिर मन हुआ था कि चन्दन बोस के काले घुंघराले बालों में उंगलियाँ डाले – उसका सर सहलाये .. उसे स्पर्शों से भर दे .. उसे निहाल कर दे ..

फ़ोन की घंटी बजी थी तो पारुल उछल पड़ी थी!

“राजन, योर ग्रेस ..!!” प्रेम पगी आवाज में राजन बोला था. “हाउ.. इज माय…. क्वीन ?” उसने पूछा था.

“आज कैसे फ़ोन किया ?” पारुल ने उलाहना दिया था. जैसे सदियों के बाद ही आज राजन का फ़ोन आया हो, उसे लगा था.

राजन तनिक झिझका था. वह भी जानता था कि उसने पारुल को आज एक लम्बे अन्तराल के बाद ही फ़ोन किया था. वह इतना व्यस्त हो गया था .. विचित्र-लोक की रचना में कि अपना भी ख्याल भूल गया था. विचित्र-लोक ही जैसे अब उसका जीने का आधार था .. सर्वस्व था और एक चुनौती थी लोगों को दिखाने .. बताने की .. कि राजन आज भी अजेय था .. हीरो था ..

“योर ग्रेस ..!” राजन ने हिचकते हुए कहा था. “आठ अक्तूबर है .. उत्सव की तारीख !” उसने सूचना दी थी. “आप कब आरही हैं ..?” उसने पूछा था.

“कब आऊ ..?” पारुल ने भी पूछ लिया था.

“आज .. अभी .. इसी वक्त ..!” राजन की आवाज में एक प्रेमी की पुकार थी.

“क्यों ..?” पारुल ने तटस्थ रहते हुए प्रश्न दाग दिया था. वह आज जान मान कर किसी प्रेम प्रसंग को जन्म न देना चाहती थी.

“आगंतुकों की सूचि .. आपने ही बनानी है, न …?” याद दिलाया था राजन ने.

“अरे, हाँ !” पारुल भड़की थी. “मेने जो लिख कर लिस्ट दी है .. न ! उसे फाइनल मत करना.”

“क्यों ..?”

“एक नाम और जोड़ना है ! ‘चन्दन .. बोस ..’

“कौन है ये कमीना ….?” राजन पूछ लेना चाहता था पर कह न पाया था. “कहाँ रहते हैं, ये चन्दन बोस ..?” उसने सहजता से पूछा था.

“जुआरियों के सिवा तुम किसी और को जानते भी हो ..?” कटाक्ष किया था, पारुल ने. “चन्दन बोस .. विश्व की एक हस्ती का नाम है !” पारुल ने सगर्व बताया था, राजन को. “बम्बई के पते पर उन्हें निमंत्रण जायेगा.” वह बता रही थी. “माहि लाल को भेज देना ..” पारुल कहती रही थी. “उसे अपनी पूरी तैयारियों के बारे बता दूंगी .. और ..”

लेकिन राजन कुछ नहीं सुन रहा था. काटो तो खून नहीं ! राजन बेसुध था. वह बेहोश था. उसे गहरा आघात लगा था. उसे लगा था – कि वह पारुल को गँवा बैठा था ! उसे लगा था कि …. अब उस का अंत आ जायेगा !

क्या गलत किया था उसने – जो वह पारुल के साथ लम्बे-चौड़े सपने देख बैठा था ? वह तो पूरी इमानदारी के साथ विचित्र-लोक की रचना में संलग्न था. वह तो पारुल को वह कर दिखाना चाहता था .. जो कोई विश्वकर्मा भी न कर पाता ! सच भी था. जो विचित्र-लोक का चित्र छपा था – दुनिया भर में धूम मच गई थी. लास वेगस से लोग दौड़ दौड़ कर काम-कोटि आ रहे थे. जो भी देखता हैरान रह जाता ! राजन ने हर नए विचार को .. हर नए आविष्कार को .. स्थान दिया था .. विचित्र-लोक में ! क्या नहीं था वहां .. संसार का सोचा-समझा सुख, सुधा, हलाहल .. और हलचल !!

लेकिन आज राजन को सब डूबता दिखाई दे रहा था ! नफरत में डूबता .. उसका विचित्र-लोक .. ब्रह्मपुत्र में बहता वह स्वयं और उसकी आकांक्षाओं को डुबोती सोना झील .. को रोकता कौन ? घोर निराशा की बदली उसके मनाकाश पर छाकर अन्धकार उगा रही थी. वह अँधा होता जा रहा था. चढ़ता क्रोध उसे पागल करने लगा था. वह सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए स्वयं को तैयार करने लगा था.

“जुआरियों के सिवा तुम किसी और को जानते भी हो ..?” पारुल का प्रश्न बार-बार आकर उससे जूझ रहा था .. लड़ रहा था .. और उसे मार डालना चाहता था !

जिस औरत के लिए वह पागल हुआ बैठा था .. जिस औरत के लिए उसने अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया .. जिस औरत के लिए ..? रोना चाहता था राजन ! राजन! चिंघाड़ना चाहता था. वह, चीखना चाहता था .. और कहना चाहता था .. ‘बेवफा’ तुम .. पारुल .. योर ग्रेस .. ‘तुम’ बेवफा हो …! तुम .. तुमने .. मुझे .. छला है ! छलना हो तुम ..

“क्या करूँ ..?” राजन ने तनिक होश संभाल कर अपने आप से पूछा था.

“जुआ खेलो ! लगाओ .. दाव !! फेंको पत्ते ..!!!” आवाजें आ रही थीं. “तुम्हे कौन हरा सकता है .. राजन ….?”

“पारुल ..! पारुल हरा सकती है .. डुबो…सकती है .. जान ले सकती है ..!” वह चीखने लगा था.

तभी न जाने कैसे उसकी आँखों के सामने सावित्री का चेहरा आ कर ठहर गया था. और हाँ – उसकी गोद में बैठा वह कृष्ण-कन्हयाँ उसकी ओर देख कर हंस रहा था .. किलकारियों से …..हाथ बढ़ा-बढ़ा कर ..

राजन ने किनारे की तरह उन दोनों को थाम लिया था और जीवन दान पा गया था ..!!

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य

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