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जीने की राह तैंतालीस

“ये सुधा ननकूराम की बेटी है स्वामी जी!” वंशी बाबू बता रहे हैं। “पढ़ी-लिखी है। शादी होने वाली थी लेकिन ..” वंशी बाबू ठहर गये हैं।

मैंने सुधा को देखा है। बड़ी ही सुशील कन्या है। सुंदर है और बड़ी ही आकर्षक युवती है। फिर इससे शादी करने में किसको उज्र होगा? जहां जाएगी, उजाले उगाएगी और ..

“ननकू नालायक है।” वंशी बाबू बताने लगे हैं। “बेटी की शादी से पहले अपनी शादी रचा बैठा है बेवकूफ!” सूचना दी है वंशी बाबू ने। “और उस नई औरत ने इस बेचारी को घर से निकाल बाहर किया है।” वंशी बाबू का चेहरा तमतमाने लगा है। “ननकू ने मुड़ कर भी ..”

अचानक ही मुझे याद हो आया है कि मैं हाथी पर बैठा हूँ और मेरे पिता श्री कानी से ब्याह रचाने जा रहे हैं। मैं प्रसन्न हूँ और बेहद खुश हूँ कि मेरी नई मां आएगी और मुझे झूला झुलाएगी, लोरियां गा गाकर सुनाएगी, दुलराएगी और मैं .. और मैं ..

“विचित्र माया है, प्रभु जी!” मैं बोल पड़ा हूँ। “वंशी बाबू! कोई नहीं जानता कि अगले पल क्या घटेगा।”

“पर इस गरीब का तो जीना तक हराम हो गया है स्वामी जी!” वंशी बाबू बोल पड़े हैं।

और मैं कानी से लात-घूंसे खाता एक रोता-बिसूरता बालक हूँ जो आधी रात गए घर छोड़ कर निकल पड़ा हूँ – अनजान राहों पर। क्या क्या नहीं घटा? और वो गुलनार से मुलाकात? और गुलनार की खातिर पीतू से पव्वा बन जाने की वो घटना ..?

हाहाहा! मैं अट्टहास से हंसा हूँ! वंशी बाबू अब दहला गये हैं। मैंने सुधा को फिर से देखा है और अब मुझे औरत के अनेकानेक रूप दिखाई दे रहे हैं। यही है प्रभु की माया जिसे कोई नहीं जानता लेकिन ..

“इसकी शादी स्वामी जी ..?” वंशी बाबू डरते डरते बोले हैं।

“हां हां! क्यों नहीं? सुधा की शादी आश्रम वाले करेंगे।” मैं चहक कर बोला हूँ। “आप सुधा के पिता की भूमिका में आएं वंशी बाबू .. और ..”

“और आप ..” वंशी बाबू ने भी मुझे पूछ लिया है।

“आशीर्वाद दूंगा कि सुधा का जीवन सुखमय हो!” हंसा हूँ मैं।

आशीर्वाद देने से आगे मेरी कोई सामर्थ्य है भी नहीं। एक संन्यासी के पास कुछ नहीं होता लेकिन होता भी सब है। न जाने कैसे मेरे दिये लंबे-चौड़े आशीर्वाद भी घटित हो जाते हैं। मैं स्वयं भी नहीं जानता कि प्रभु का ये घटनाक्रम चलता कैसे है। खुली आंखों से भी नजर नहीं आता कि कल क्या होगा।

“फिर श्री राम शास्त्री को बता देता हूँ कि शुभ लग्न निकाल दे और सुधा के ब्याह रचाने में ..” वंशी बाबू ने अपने सारे मंसूबे बयान कर दिये हैं।

मात्र श्री राम शास्त्री की चर्चा होते ही जैसे मेरा तीसरा नेत्र खुला है। पाखंडी है – मेरे मन ने कहा है। स्वयं रास्ता भूल गया है लेकिन अभी भी हम सबको पाठ पढ़ाना नहीं भूला है।

सुधा का चेहरा खिल गया है। सुधा ने मेरे चरण छूने चाहे हैं तो मैंने रोक दिया है। उसके सर पर स्नेह का हाथ रख मैंने उसे अंतरमन से आशीर्वाद दिया है। न जाने क्यों मेरा संबंध जुड़ जाता है उन लोगों से जिन्हें पीड़ा पकड़ लेती है। मुझे सुख मिलता है जब मैं उनका दुख बांट लेता हूँ। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब मेरे द्वारा किसी की मनोकामना सफल हो जाती है।

सुधा की शादी का जश्न देखने ननकू नहीं आया!

और मुझे पीटती घसीटती कानी को भी मेरे पिता श्री ने नहीं रोका था – मुझे अभी तक याद है।

घटनाओं को वक्त गढ़ता है और हमें थमा देता है। एक राह सामने आती है और हम उसी पर चल पड़ते हैं।

मेजर कृपाल वर्मा
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