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जीने की राह पचानवे

आज शनिवार था। अंजली और अविकार अमरपुर आश्रम जा रहे थे। कार अविकार चला रहा था। अंजली शांत भाव से साथ वाली सीट पर बैठी थी। लेकिन अविकार के अंदर एक तूफान उमड़-उमड़ कर अंदर आ रहा था। लग रहा था कोई भूचाल था – जो धरा धाम को हिलाए दे रहा था।

सारी भक्ति की शक्ति लगा कर भी अविकार मुक्त नहीं हो पा रहा था। आश्रम में होने वाले कीर्तन को वो भूल ही गया था। न छोटे-छोटे ग्वाल याद थे और न उसे प्रेम दीवानी मीरा के पद सुनाई दे रहे थे। उसके जेहन में एक रौरव भरा था – अवस्थी इंटरनेशनल के लाइलाज हुए घाटे का।

“सब बेच-खोच कर बराबर करते हैं!” अंजली ने अविकार के मनोभाव ताड़ लिए थे। उसे पता था कि अविकार बहुत असहज था। “बड़े बाबू ठीक कहते हैं।” अंजली की राय थी। “बीमारू कंपनियों को कोई खरीदता तक नहीं है। जो कुछ मिले – सो मिले!”

अविकार ने तीखी निगाहों से अंजली को निहारा था। आज न जाने कैसे वो सारा स्नेह, सौहार्द, प्रेम-प्यार हवा हो कर उड़ गया था। उसे अंजली भी अच्छी न लगी थी। वो उसकी भावनाओं को शायद समझ न पा रही थी।

“पापा से कहो न! आश्रम से कुछ धन दिला दें!” अविकार ने अंजली को धूरा था।

अंजली कुछ न बोली थी। वह जानती थी कि उसके पापा किसी सूरत में भी आश्रम से धन न मांगेंगे। लेकिन अविकार के आंसू पोंछना भी जरूरी था।

“कह कर देख लेते हैं!” अंजली मान गई थी।

तनिक सहज हो आया था अविकार। उसे उम्मीद थी कि अमरीश अंकल अवश्य ही उसकी मदद के लिए आगे आएंगे। अवस्थी इंटरनेशनल से उन्हें बेहद लगाव था – वह जानता था।

आश्रम में गहमा-गहमी भरी थी। भक्त लोग बड़ी संख्या में जमा हो रहे थे। स्वामी जी लगी लंबी-लंबी कतारों को आशीर्वाद देने पहुंच गए थे। वंशी बाबू होती धन वर्षा की एक-एक बूंद को सहेज कर रख रहे थे। लेकन अविकार का मन आज भक्ति भाव से विरक्त हो धन-मान का ही गुणगान कर रहा था!

“लेकिन बेटे! कंपनी चल तो रही है। कमा तो रही है?” सरोज का प्रश्न था। “आश्रम से यों पैसा लेना तो ..”

“कमाती है – उससे ज्यादा खाती है!” अविकार की आवाज तल्ख थी। “अम्मा जी! आप खर्चे देखेंगी और कर्ज से हाथ लगाएंगी तो दंग रह जाएंगी! हमें धन तो चाहिए। बैंक नाट गया है। शेयर होल्डरों ने खाते बंद कर दिए हैं। कर्मचारी घात लगाए बैठे हैं .. कि ..”

“मैं तो कहती हूँ कि बिकने के बाद सारे कर्जे उतार देते हैं और जो बचे उससे नया कोई धंधा आरम्भ कर लेते हैं।” अंजली ने फिर से अपनी राय दोहराई थी।

अमरीश जी गुरु गंभीर मुद्रा में बैठे बैठे कुछ सोच रहे थे।

“सेंट निकोलस में क्या सिखाते हैं, अविकार?” अमरीश जी पूछ रहे थे। “किसी कंपनी के इतिहास में क्या है – जो सबसे ज्यादा अहमियत रखता है?” उनका प्रश्न था।

“ब्रांड नेम!” अविकार ने तुरंत उत्तर दिया था।

“बिलकुल ठीक!” अमरीश जी तनिक मुसकुराए थे। “अंजली! अगर तुम नया धंधा डालोगी तो ब्रांड नेम बनाने में तुम्हारी उम्र खप जाएगी बेटी। जैसे कि मेरी और अजय की उम्र खप गई थी। नए माल को ग्राहक नहीं पकड़ता लेकिन ब्रांड नेम से तो माल बिकता है!”

“लेकिन पापा! पैसा तो फिर भी चाहिए!” अविकार की मांग थी।

“तो ले लो न पैसा!” अमरीश जी सहर्ष बोले थे। “अपने डीलर्स और प्रमोटर्स को कहो – लगाओ पैसा!”

“लेकिन पापा ..”

“क्यों? उन्हें मुनाफा नहीं मिला? अवस्थी इंटरनेशनल से कितना कितना कमाया है! और आगे भी कमाएंगे – वो जानते हैं! ब्रांड है सन – अवस्थी इंटरनेशनल! नाम है – हमारा! काम है – हमारा! हमने जिंदगी लगा दी है बेटे!” उन्होंने अविकार की आंखों में घूरा था। “जित्ता मांगोगे उतना मिलेगा बेटे!” उन्होंने अविकार को आशीर्वाद दे दिया था।

और वो शाम – शनिवार की वो शाम और अमरपुर आश्रम उस शाम भक्ति रस में सराबोर हो कर कई बार डूबा था। अविकार और अंजली के स्वर बढ़ चढ़ कर गूंजे थे क्योंकि अविकार और अंजली ने आज नई जीने की राह गही थी!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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