“वो आश्रम से जाना नहीं चाहती स्वामी जी!” शंकर मुझे बताने लगा है। “कहती है – उसका कोई नहीं है। बे घर बार की है। परिवार तो था – पन उजड़ गया!” शंकर ने मुझे देखा है। शंकर को इंतजार है कि मैं कुछ कहूंगा।
आज जैसा आघात तो मुझे कभी पहले नहीं लगा।
उजड़ गया परिवार? पीतू और गुलनार का परिवार उजड़ गया। बह गया वक्त के साथ। कहां गया? कैसे गया? और क्यों गया – कितने प्रश्न एक साथ मेरे जहन में पैदा हो गये है। मैंने अपने आप को कोसा है और दोश दिया है कि अगर मैं पव्वा न पीता तो शायद हमारे परिवार का ये हाल न होता!
“मॉं! ये आदमी और बर्दाश्त नहीं होता!” मैंने अपने छोटे बेटे की आवाज सुनी है। “हद होती है बेवकूफी की!” वह गरज रहा है। “बदनामी ..!”
“इसके बिना काम नहीं चलेगा बेटे!” बेबस आवाज आती है गुलनार की। “है कौन जो इसके मुकाबले की कचौड़ियां बना दे?” गुलनार ने मजबूरी बयान की है। “इस जैसा हुनर बेटे और है कहां?”
मेरे हुनर ने उस दिन मुझे बाल बाल बचा दिया था।
गुलनार का सजा संवरा घर द्वार और सुघड़ सुंदर चार बेटे मेरी आंखों के सामने चुहल करने लगे हैं। कचौड़ियों का फलता फूलता व्यापार भी खूब बड़ा हो गया था। भोजपुर में तो गुलनार कचौड़ी वाली के नाम से जानी जाने लगी थी। उसकी आमदनी भी अब अकूत थी। वह अपने गृहस्थ को लेकर एक सुविख्यात हस्ती अब चुकी थी। एक मैं ही था जो घिनौना, गंदा संदा, पियक्कड़ और पागल था जिसे गुलनार जतन से छुपा कर रखती थी।
मैं अब गुलनार के लिए एक काम का लहोकर भर था। उसका प्रेमी पीतू तो न जाने कब का फरार हो चुका था।
सच में ही मुझे गुलनार की खूब याद आती थी। सजी वजी और सुंदर गुलनार मेरी आंखों में डोलती रहती थी। पव्वा पीने के बाद तो गुलनार मेरी इच्छित परी बन जाती थी। मैं मुग्ध भाव से उसी के कल्पित बदन को सहलाता सहेजता रहता था। बेहोशी मेरा प्रिय ठिकाना बन गया था। मुझे ध्यान ही न रहता था कि मैं कहां पड़ा था और क्यों पड़ा था।
मैं आज पहली बार अपने परिवार के उजड़ जाने के गम में फुक्कार फाड़ कर रोया था। मैं अब कोई स्वामी पीताम्बर दास न था। मैं कुछ भी न था। मैं तो .. मैं तो निरा गंवार था – जो अपनी बसी बसाई गृहस्ति उजाड़ बैठा था।
“पवित्र पुरुष को यों आंसू बहाना शोभा नहीं देता स्वामी पीताम्बर दास जी।” पीपल दास मेरे पास आ बैठे थे। “यह माया है। जो इसके हाथ चढ़ जाता है .. वह तो ..”
“लेकिन मेरा परिवार पीपल दास जी ..?” मैं बिलख रहा था।
“हमारा यहां है क्या?” हंसे थे पीपल दास जी। “चंद दिनों की चांदनी फिर अंधेरी रात!” हंस रहे थे पीपल दास जी। “सब उसी का तो है। उसी ने ही ले लिया! तुम्हारा क्या लिया?”
“मैंने तो सब दे दिया था .. गुलनार को ..”
“तभी तो तुम स्वामी पीताम्बर दास हो!” पीपल दास ने बताया था।
“लेकिन गुलनार ..?” मैंने अहम प्रश्न पूछा है।
“शायद वो भी बच जाये!” मुसकुराए हैं पीपल दास जी। “सेवा का व्रत जो ले लिया है!”
एक सुकून लौट आया है।
सेवा की डगर पर साथ साथ चलते मैं और गुलनार कहीं किसी दूसरे किनारे पर मिलते दिखाई दिये हैं!
गुलनार ने भी जीने की सही राह पा ली है – मैं प्रसन्न हूँ!

