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जीने की राह बत्तीस

“आप का शिष्य गोवर्धन दूसरा ब्याह रचा रहा है!” बंशी बाबू ने हंसते हुए सूचना दी है।

मात्र सूचना ने ही मुझे आहत कर दिया है।

मैं हूँ – अब हाथी पर बैठा कानी को ब्याहने जाते अपने पिताजी के साथ उछल कूद कर रहा हूँ। बेहद प्रसन्न हूँ मैं कि मेरी नई मॉं घर आएगी और अब मेरा जीवन सुधर जाएगा। बिन मॉं का पीतू नई मॉं को पा कर निहाल हो जाएगा ओर पिताजी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे।

“मत मार मुझे कानी ..” फिर मैं पिटते पिटते डकरा रहा हूँ लेकिन कानी मुझे धमाधम पीटे ही जा रही है। “नास पीटे! सारा दूध गिरा दिया!” मैं सुनता रहा था।

आज फिर वही पहला आश्चर्य मेरे पास आ पहुँचा है और बोला है – शादी ब्याह बार बार करते आदमी का पेट नहीं भरता – बिना औरत के।

“मैं बिना वसुंधरा के कैसे जीऊंगा स्वामी जी?” गोवर्धन का विलाप मैं सुनने लगा हूँ। “दो नन्हे नन्हे बच्चे हैं ..” वह बता रहा था। “उनकी परवरिश?” रोने लगा था गोवर्धन।

“पूजा पाठ में मन लगाओ गोवर्धन!” मैंने सुझाव सामने रक्खा था। “आश्रम में आते रहो! सेवा भाव को जगाओ। बेड़ा पार हो जाएगा।” मैंने सीधे राय दी थी। “बच्चे तो अब बड़े हुए।” मैंने हंस कर कहा था। “सेवा करोगे तो फल तो मिलेगा ही।” मैं उसे बताता रहा था। “कोई विमाता नहीं संभालती बच्चों को।” मैंने उसे अपना अनुभव बताना चाहा था। अपनी मॉं याद आते ही मेरी आंखों में आंसू लरज आये थे। “विमाता के हाथ पड़ने के बाद बच्चे कहीं के नहीं रहते।” मैंने गोवर्धन को साफ साफ समझाया था।

“दूजा की कोई औरत है।” बंशी बाबू ने बताया था। “ठौर बैठना चाहती है।” वह हंसे थे। “पहले पति से एक बेटी है और अब ये दो बच्चे?”

मैं चुप हूँ। मैं जो देख रहा हूँ उसे वर्णन नहीं करना चाहता।

गोवर्धन जिस अग्नि कुंड में कूदने जा रहा था मुझे उसका अनुमान था। लेकिन मैं यह भी जानता था कि मैं लाख कहूंगा तो भी गोवर्धन ब्याह जरूर करेगा। और वो वसुंधरा के दो बच्चे कौन से नरक में जा गिरेंगे – मैं अब अनुमान भी न लगा पा रहा था। हे भगवान! किसी बच्चे की मॉं न मरे – मैंने सच्चे मन से प्रार्थना की थी।

“खूब सारा माल टाल है – गोवर्धन के पास।” बंशी बाबू बताने लगे थे। “उस औरत की नजर है – माल पर।” बंशी बाबू ने स्पष्ट कहा था।

“लेकिन गोवर्धन की नजर तो अब उस औरत पर है।” मैं कहना तो चाहता था पर चुप ही बना रहा था। “औरत पाने की ललक जब आदमी के मन पर सवार हो जाती है तो वह अंधा हो जाता है – यह तो मैं भी जानता हूँ, बंशी बाबू।” मैं कहना तो चाह रहा था। “लेकिन .. जब आदमी पीतू से पव्वा हो जाता है तो .. औरत ..?”

आश्रम में सेवा करता गोवर्धन अब नहीं लौटेगा – मैं जानता हूँ।

और कब लौटेगा इसका अनुमान भी मुझे है। अब मैं अनुभव से ही बता सकता हूँ कि जिस राह पर आदमी चल पड़ा है – वह कहां तक जाती है और उसके परले छोर पर पहुँच कर आदमी कहां छूटता है। लेकिन जो व्यामोह हमें हाथ पकड़ कर उस राह पर ले जाता है वह तब तक हाथ नहीं छोड़ता जब तक कि हमें बर्बाद नहीं कर देता। गोवर्धन भी नहीं रुकेगा जब तक कि वो निराश्रित नहीं हो जाएगा।

फिर लौटेगा आश्रम में और खूब मन लगा कर कीर्तन करेगा और मेरी तरह ही गुलनार को भूलने का सतत प्रयत्न करेगा – व्यर्थ और बेकार!

जीना है – राह कोई भी हो – क्या फर्क पड़ता है।

मेजर कृपाल वर्मा
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