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Hindoo Rastra !

हिन्दू राष्ट्र का धर्म-ध्वज !!

मेरे हाथों में हिन्दू-राष्ट्र का धर्म-ध्वज फहरा रहा है ….फर्र्र…फर्र्र …फरर …फरर ! मेरी जुबान पर ‘जय- भारत’ का नारा धरा है ! मेरी आँखों में वही स्वप्न लहक रहा है – जो मैंने आज से शादियों पहले संजोया था . पर मेरे पैर आगे बढ़ते-बढ़ते ठहर गए हैं ! मेरी अभिलाषा पछाड़ें खा-खा कर …मुझसे आज भी अग्रसर होने का आग्रह कर रही हैं . लेकिन मैं हूँ …कि ….जड़ बन गया हूँ ….बुत बना खड़ा हूँ ….! और ये सब मेरी मौत के बाद ही हुआ ….!! क्यों कि ….अकारण मौत थी – वह . वह एक विश्वास-घातियों की दी मौत थी ! वह एक ऐतिहासिक षड़यंत्र की दी मौत थी जिसे मैंने अब एक सबक की तरह संजो लिया है .

वो दर्दनांक मौत ….वो मेरी आँख में आ घुसे तीर द्वारा दी मौत …..मुझे लाखों दुःख देने के बाद भी ..मार कहाँ पाई …?

मैं जिन्दा हूँ, मित्रो ! मैं मरा कब था ? मेरी आत्मा …..अमर आत्मा …..अजेय आत्मा …तब से लेकर आज तक मेरे हिन्दू-राष्ट्र के स्वप्न को ….उस-धर्म- ध्वज को ….उस दिए नारे को और उस मेरे द्वारा रचित विधान को ….लेकर पूरे भारत में भ्रमण कराती रही है …..डोल-डोल कर पग-पग पर हिन्दू -राष्ट्र की स्थापना कराती रही है !

वक्त खड़ा है . हवा बंद है . स्वप्न, हिन्दू-राष्ट्र की स्थापना, ज्यों का त्यों साकार होने को कह रहा है . पल-पल …छिन-छिन …मेरे चलने के इंतज़ार में हैं ….! हर आँख आज फिर मेरे ही ऊपर केन्द्रित है . जन-मानस की आशा-निराशा का केंद्र बना – मैं , हेमू , या कहो कि …महाराजा धिराज ….हेमचन्द्र विक्रमादित्य द्वितीय – चल नहीं पा रहा हूँ ….हिल-डुल भी नहीं पा रहा हूँ …क्यों कि मुझे अपने ही पैर दगा दे गए हैं . अपने ही लोग ….

और अब ….याने कि …आज —-याने कि इस वक्त मैं बहुत बैचैन हूँ ….! मैं असहज हूँ …..मैं चिंतित हूँ ….कि अगर हमने हिन्दू-राष्ट्र के स्थापित करने में अब की बार गलती की तो मित्रो ……..हिन्दू बचेगा नहीं ! नहीं,नहीं ! अब की बार अगर हम मौका चूके ….तो गए …! मैंने तो ज़माने देखे हैं …मैंने तो युद्ध लड़े हैं ….मुकाबले मारे हैं ….! मैं योद्धा  ……विजेता …..और महाराजा धिराज तक बना हूँ ! और फिर …..

जैसे कि आज ….हर कोई हिन्दू को ही हराना चाहता है …..उन का हक़ तक छीन लेना चाहता है ….उन की भाषा नहीं चाहता …..उन के धर्म से भी परहेज़ करता है ….सैक्योलर का सिक्का चला कर …उन्ही को उन के राष्ट्र से बेदखल कर देना चाहता है ….! देश का बन्दर-बंटवारा कर हर कोई अपना हक़-हकूक सुरक्षित कर लेना चाहता है ! और चाहता है कि …..हिन्दू-राष्ट्र की कामना करने वालों को किसी तरह से देश-निकाला मिले …ताकि ……

भारत को चारों और से चार आँखें देख रही हैं !

इस सोने की चिड़िया को फिर से बाज़ लीलने के लिए लालायित हैं  ! उन्होंने हमारे ही बीच अपने गढ़ बना लिए हैं ….हम स्वयं उन्हें श्रेष्ठ मानते हैं ….उन की भाषा …उन के धर्म और उन की संस्कृति को …महान बताते हैं ! हमारे बच्चे …उन्हीं के गुण गाते हैं ….! हमारे तो साहित्यकार ….फिल्मकार ….और दार्शनिक ….सभी उन के दास हैं . हमारी बात तो बहरे कानों पर पड़ती लात है …..! कहने को तो हम आज़ाद हैं ….पर सच में तो हम उन के अब भी गुलाम हैं .

बेकार गए – हमारे महान क्रांतिकारियों के किए बलिदान !

लेकिन मैं कहता हूँ …..कि अब भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है ! हम हाथ आए इस वक्त को ‘पर्व’ मानें और ….हिन्दू-राष्ट्र की घोषणा कर दें ….! डरें नहीं ….केसर की तरह बगल से बाहर आ कर ….वार करें …..और भेड़ को ले जाते …भेड़िया का खात्मा कर दें ! दुश्मन को हराने के लिए बल ही नहीं ….छल भी काम आता है …! हमें छला ही तो जा रहा है ….? भेड़िया तो ताक में बैठे हैं . मौका पाते ही हमारी भेड़ें पार कर देंगे . और ये जो ….रेबड़ के पहरे दार हैं ….सब सो जाएंगे !

इन्हें जगाने के लिए ….ज़रूर-ज़रूर ….केसर का होना अनिवार्य है !

पर वो है ,कहाँ ….? केसर की ढानी अचानक ही मेरे ज़हन में ….उग आई है ! अब तो आप भी देख चुके हैं …..उस मेरी आत्माओं के भीतर बसे – इन्द्रलोक को ….? लेकिन अभी तक आपने केसर को नहीं देखा है ! आ,हा हा हा ….!! मैं …मैं …भी तो उसे देखने के लिए तरस गया था …! उस दिन ….हम सुबह का सूरज ….तालाब के किनारे बैठे देख रहे थे …..और सोच ही रहे थे कि …..क्या और कैसे संवाद बोले जांय ! हम दोनों ही अनाड़ी थे …..!! सच मानिए कि मेरा तो किसी लड़की के साथ यों ….उठना-बैठना भी पहली ही घटना थी !

हम दोनों चुप-चाप बैठे थे . हमारी परछाइयाँ पानी में तैर रहीं थीं . हम न पास थे ….न दूर ! हम न एक थे ….और न ही अलग-अलग थे ! हम दोनों जैसे किसी घटना के घट जाने के इंतज़ार में बैठे थे !

“पांच भाई हैं , अब्बू लोग !” केसर ने मुझे बताना आरंभ किया था . मैं  जग-सा गया था . मैंने उस की मधुर आवाज़ का स्वागत किया था . “मैं …अपने अब्बू की इकलौती हूँ ….” केसर की आँखें चमक आईं थीं . वह मुझ से बतियाना चाहती थी .

“तो मैं क्या करू ….?” मैंने झिड़क कर कहा था . मुझे तो उम्मीद थी कि केसर ज़रूर कोई रस-पगा …प्रेम संवाद बोलेगी . ज़रूर ही अपनी मधुर आवाज़ में मुझे नाम से पुकारेगी …और कहेगी …..

“गंवार हो …..!” केसर ने मुड़ कर जैसे मुझ में इंट मारी हो ….फिर से सोटे से प्रहार किया हो ….मुझे कुछ ऐसा ही लगा था ! “चलो ….!” वह उठ खड़ी हुई थी . वह मेरे अबोले से परेशान थी . शायद उसे भी मुझ से कुछ मेरी जैसी ही अपेक्षाएं थीं . पर मैं था कि केसर के सिवा कुछ और सोच ही न पाया था. “लो …! आ गए तुम्हारे …ऊंट …लेने …!!” केसर कह रही थी . “जाओ …..!” वह क्रोधित थी. “जाओ….जाओ ….!!” वह बोली  थी . “बेकार का …आदमी ……!!” उस ने मुझे कोसा था और चली गई थी .

और सचमुच मैंने देखा था कि ….ऊँटों की एक भीड़ ने केसर की ढाणी को ढक-सा लिया था . मैंने चीन्हा था …कि मेरे नाना थे …..उन के साथी थे ….और …और मेरा ऊंट राना भी था . केसर तो अलोप हो गई . अब मैं अकेला ही खड़ा रह गया था . मेरी आँखें …राना की आँखें देख रहीं थीं ….कुछ पढ़ रही थीं ….कुछ कह रही थीं ……

“क्षिमा …..कुंवर सा ….!” राणा जैसे कह रहा था . “हमने आप के रंग में भंग डाल दी ….!!” उस ने मज़ाक मारा था . केसर को उस ने देख जो लिया था . और केसर का और मेरा प्रसंग एक साथ ही चौड़े में आ गया था !

“पाजी कहीं का …..!” मैंने राणा को गरिया दिया था . मेरे मन-प्राण में राणा के लिए न जाने कैसा प्रेम उपजा था . मैं उस का आभारी भी था ….और …उस से नाराज़ भी था !

केसर की ढाणी  अब एक अजीबो-गरीब घटना से नाक तक भर गई थी .

चारपाइयाँ लग गईं थीं . मोढ़े बिछ गए थे . हुक्का-फरसी सुलग चुके थे . पानी परोसा जा रहा था . आव-भगत में चार-पांच आदमी सर पर लंबी-चौड़ी पगड़ियाँ बांधे …..मेरे नाना के आगत-स्वागत में आ खड़े हुए थे . न जाने कहाँ से इंसानों की एक भीड़ वहां उमड़ आई थी .

“हेमू …बेटे ….! ये क्या हिमाकत है …..?” मेरे नाना मुझे फटकार रहे थे . मैं समझ रहा था कि उन्होंने भी मुझे केसर के साथ रंगे हाथों पकड़ लिया था . हम दोनों चोर थे ….और कूमल पर पकडे गए थे ! “जानते हो …मेरी तो जान ही सूख गई थी ….जब राणा नंगी -पीठ लौटा था ….! तुम्हारा कोई अता-पता न था ….!” उन की शिकायत में दम था …बहुत दम ! लेकिन मैं कैसे कहता कि ….’नाना ,सा ! ये मेरा कसूर नहीं ….! ये तो …..”

“ये तो ….हमारा कोई पुण्य उदय हुआ है , राव साहब !” वो केसर के अब्बू ही थे – मैंने अनुमान लगा लिया था . “आप के दर्शन हमें होने बदे  थे ….” वह हँसे थे . “हमारा अहो भाग्य ….” उन का सत्य वचन था . “आप की बेटी के बेटे ….कुंवर …हेमू …का केसर की ढाणी  चले आना कोई …..मामूली घटना नहीं …!” उन्होंने अपना अनुमान बताया था . “वरना तो ……हम इन्हें कहाँ ढूँढ पाते , राव सा …!” वह बहुत जोरों से हँसे थे .

और फिर तो वहां ….दावत उड़ा रहे थे – आए लोग ! दाल-बाटी और चूरमा ….था  ! सच मानिए , मित्रो ! मैंने तो आज तक …..यहाँ तक कि अपनी इस शाही जिन्दगी में भी ….इतना अच्छा और स्वादिष्ट भोजन नहीं किया है ! हम भोजन कर रहे थे …और …आसमान से अबीर-गुलाल वरसता लग रहा था ! हम अब अज़नवी न थे – हम वहां अकारण आए लोग भी न थे …..हम परमात्मा के भेजे उन के सुपुत्र थे ….जिन्हें केसर की ढाणी से कुच्छ लेना-देना था ….!!

“ना  …न करना, राव साहब !” केसर के अब्बू ही थे . “केसर आप की हुई ….और हेमू मेरा …!” वह हँसे थे . “ये नक्षत्रों का खेल है . इन का साथ बदा है , शायद !” वो भविष्य वाणी-सी कुछ करने लगे थे . “भेंट दे रहा हूँ ……!” उन्होंने मेरे नाना की झोली भर दी थी .

मेरी सगाई हो रही थी, मित्रो !

चौंकिए मत …! क्योंकि तब चलन ही ऐसे थे . कुछ शादियाँ तो …..जन्म से पहले ही तय हो जाया करतीं थीं . अच्छा लड़का …..उम्दा खान-दान …..मिला नहीं कि लोग जम जाते थे . इस परंपरा के अपने ही फायदे थे . ये समाज की स्वीकृति के साथ-साथ ….वर-वधु की स्वीकृति भी पा लेते थे . ये रिश्ते अमर होते थे ….!

“लो ! बेटे …….!!” मेरे सर पर हाथ फिरा कर …..केसर के अब्बू अब मुझे भेंट दे रहे थे ! पांच सोने की गिन्नियां थीं .

उसी शाम हमारी विदाई थी . राना पर चढ़ा मैं लौट रहा था – केसर की ढाणी से आहिस्ता -आहिस्ता  दूर होता जा रहा था ……चला जा रहा था …..! लेकिन मेरा मन ….मेरे साथ आया ही न था ! वह तो ……कहीं भाग गया था …..तालाब के किनारे केसर के साथ बैठा-बैठा बतिया रहा था …..प्रेम-संवाद बोल रहा था …..चुन-चुन कर ….!!

………………..

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !

 

 

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