जिंदगी जीना भी कोई आसानी से नहीं आ जाता!
मुझे याद है जब जिंदगी ने ऑंखें खोली थीं और आकर मुझसे हाथ मिलाया था। मैं कई पलों तक खड़ा खड़ा सामने के फैले विस्तारों को देखता ही रहा था!
मैं था – कोरा कृपाल! मेरा मन प्राण अभी तक अछूता था। मैं न किसी से प्रभावित था और न किसी का अनुयाई था। अपने ही विचारों का मैं आदर करता था। लेकिन अभी तक मेरा कोई ध्येय या उद्देश्य न था!
“साइंस लेने की सोची है शिव चरण!” पहली बार मैंने अपने विचार व्यक्त किये थे।
“चलेगी नहीं!” शिव चरण का मत था। “यूँ सीधे इंटर में आकर साइंस लेना उचित नहीं है। और फिर देगा कौन?” वह मुसकुराया था।
“क्या करेंगे फिर – इतिहास, भूगोल पढ़ कर?” मैंने पूछा था। “अनपढ़ ही ठीक हैं यार!” मैं हंस पड़ा था। “जमाना साइंस का है और हम ..”
वह चला गया था। मैं अपने विचार पर अभी भी अडिग था।
मथुरा जा कर कॉलेज़ में एडमीशन लेना मेरे लिए वास्कोडिगामा से भी कठिन काम था। इस तरह के कठिन मोर्चों को फतह करने के लिए हमारा परिवार साहिब सिंह भाई साहब की शरण में जाता था। मौसी के बेटे साहिब सिंह हर तरह से हमारे लाल बुझक्कड़ थे। उन्होंने मुझे मथुरा ले जाकर अपने साढू शिव शंकर के हवाले कर दिया था।
रैगर पुरा में उनका मकान था। पूर्व सैनिक थे। घर में उनकी पत्नी, बच्चे और उनकी साली राजकुमारी शामिल थे। राजकुमारी ने मुझ मरघिल्ले से अजनबी लड़के को अजीब सी निगाहों से देख कर जैसे त्याग दिया था। बहुत स्मार्ट, सुन्दर और सुमुखी थी – राजकुमारी। वह जब कॉलेज़ जाती थी तो मैं उसे अपलक निहारता ही रह जाता था। मेरा कॉलेज़ जाने का सपना तो अभी भी न जाने कितना दूर था?
“आओ कृपाल, तुम्हें कमरा दिखा देता हूँ!” शिव शंकर जी मुझे साथ लेकर चल पड़े थे। “ये नाई सूरमा का कमरा है। सस्ते किराए में मान जाएगा।” वो बता रहे थे।
“लेकिन भाई साहब बिजली तो है ही नहीं?” मैंने कमरे को देख कर कहा था।
“गांव में कैसे पढ़ते थे?”
“वो .. वो .. सरसों के तेल का दीपक ..”
“तो यहॉं लालटेन जला लेना!” उनका कथन था। “पानी के लिए वो रहा नलका और बाकी तो ..! कल बाबू श्रीनाथ के पास चले जाना। मुझे जानता है। एडमीशन करा देगा!” उनका आदेश था।
और एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैं उदास निराश बाजना लौट आया था!
“जाने दो कृपाल!” बाजना हंस कर बोला था। “यहीं रहो सहो यार! क्या करोगे उस अमानवीय शहरी जंगल में जाकर?”
“राजकुमारी कॉलेज़ जाती है!” मैंने बाजना को सूचना दी थी। “फिर मैं क्यों नहीं ..?” मैं रुआंसा हो आया था।
वक्त गुजरने लगा था और मैं तड़पने लगा था!
“हो गया एडमीशन?” शिव चरण गांव से आया था और पूछ रहा था।
कितना क्रोध चढ़ा था मुझ पर मैं बता नहीं सकता। जले पर नमक छिड़कता शिव चरण मुझे किन्हीं मायनों में दोस्त न लगा था। किस मुंह से बताता उसे मैं अपनी विफल दास्तान – जहॉं राजकुमारी कॉलेज़ जाती थी ओर कृपाल को सूरमा नाई का कमरा ..
शिव चरण मेरे बुझे बुझे चेहरे को देखता ही रहा था।
“हम गांव वालों का यही तो रोना है!” शिव चरण कहने लगा था। “हमें कोई जगह ही नहीं देता?” उसने उलाहना दिया था।
“बनानी पड़ती है जगह! लेनी पड़ती है जगह!” मैं अचानक बोल पड़ा था। मेरे भीतर की घुटन न जाने कैसे शब्दातीत हो सामने आई थी। “तुम साथ आते हो तो दोनों ही चलते हैं!” मैंने सुझाव सामने रक्खा था। “स्वयं ही तलाशनी होगी जमीन।” मेरा प्रस्ताव था।
लम्बे लमहों तक चुप रहा था शिव चरण। उसे मेरे प्रस्ताव को अब या तो स्वीकारना था या फिर छोड़ कर गांव लौट जाना था।
“चलते हैं!” अचानक वो बोला था तो मेरा मन खिल उठा था। “सोमवार का रख लेते हैं!” उसने अब मेरा सुझाया संकल्प उठा लिया था।
और हम दोनों अनाड़ी, अजान और अज्ञान बाजना की बिना अनुमति के मथुरा चले आये थे!
मैंने कुर्ता और पटलीदार धोती पहनी थी तो शिव चरण अद्धा और कमीज में सजा था। एक ठेठ ग्रामीण था तो दूसरा कस्बाई। और अब हम दोनों शहर में सेंध लगाने आ खड़े हुए थे!
लेकिन जाएं तो जाएं कहॉं? शाम घिर आई थी। बस से उतर कर हम यूँ ही सड़क पर चल पड़े थे। अचानक ही मुझे एक लम्बा चौड़ा बोर्ड लगा दिखाई दिया था। लिखा था – डैम्पीयर पार्क! मैं खड़ा हुआ था तो शिव चरण ने भी उस बोर्ड को पढ़ लिया था!
“कोई पार्क – माने बगीचा होगा!” शिव चरण बोला था।
“चलते हैं!” मैंने राय दी थी।
और अब हम अचानक ही, अनभोर में ही एक कल्पना लोक में आ खड़े हुए थे! सांध्य स्नाता रोशनी में लक दक नहाया डैम्पीयर पार्क हमें इतना मनोहारी लगा था कि अपनी सुधबुध भूल उत्सुक निगाहों से उसे देख कर दंग रह गये थे! पार्क में घूमने आये शहर के संभ्रांत लोगों के भी हमने दर्शन किये थे। और हमने देखा था – हरी कच्छ घास का बिछौना, करीने से कटी हैज की कतार, कटे छटे पेड़-पौधे, क्यारियों में खिलते फूल और सुघड़ साफ बेंचें जिन पर कहीं कहीं सैर करने आये लोग बैठे थे!
पानी खुला बह रहा था और पानी देते नलों का जाल बिछा था!
“माया लोक!” मैं कह उठा था।
“कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे हम लोग तो ..” शिव चरण ने भी उस अचंभे का वर्णन किया था।
अब क्या था! हम ने रात गुजारने के लिए डैम्पीयर पार्क को ही चुन लिया था!
और उस माया लोक – डैम्पीयर पार्क की ऑंख बचा कर हमने चुपके से अपने परांठे खा लिये थे और नल से पेट भर पानी पी कर अब हम सो जाना चाहते थे। हमने एक झबरीली बौनी झाड़ी को चुना था और उसकी बगल में उस हरी कच्छ घास के बिछौने पर सोने का फैसला किया था। अपने झोलों को सर के नीचे तकिया बना कर जमाया था और जूतियों को दोनों के बीच सुरक्षित रख हम घास के बिछौने पर लम्बे लेट गये थे! अपार आनंद का अनुभव हुआ था और शांत शरीर न जाने कब निद्रा देवी से जा मिला था!
“ओये! कौन ..? कहॉं से ..? उठो उठो!” अचानक हमने आवाजें सुनी थीं तो चौंक कर उठ बैठे थे। सामने कोई खड़ा हमसे प्रश्न पूछ रहा था। “चलो .. उठो ..! बाहर ..” वह आदमी फिर से बोला था। “बगीचा है – रैन बसेरा नहीं!” उसने हमें बताया था।
“भाई साहब!” मैं ही हिम्मत बटोर कर बोला था। “हम विद्यार्थी हैं!” मैंने परिचय दिया था। “कॉलेज़ में एडमीशन लेने आये हैं।” मैंने उसे उद्देश्य बताया था। “नए हैं! हम किसी को नहीं जानते। और अब इस रात के अवसान में हम अनाड़ी कहॉं जाएंगे?”
“होटल में जाओ! रात भर खुला रहता है!” वह गर्जा था।
“लेकिन भाई साहब! हम तो ..” शिव चरण की कातर आवाज थी – जिसने उस आदमी को पिघला दिया था।
“चलो ठीक है! पन कोई शरारत मत करना!” उसने हमें जाते जाते खबरदार किया था।
कमाल था – मैं सोचने लगा था। ये पागल शहर रात भर नहीं सोता? यहॉं होटल और ये नाईट गार्ड? और न जाने क्या क्या अभी और भी सामने आना था? ये बाजना नहीं था जहॉं सरे शाम सोवा पड़ जाता था और लोग रात भर फुक्कार कर सोते थे!
“जान बची!” शिव चरण आहिस्ता से बोला था। “सो लेते हैं!” उसका सुझाव था।
डैम्पीयर पार्क में अल सुबह ही हलचल भर आई थी। सैर करने के लिए शहरी लोग तड़के ही आ पहुँचे थे। और हम भी नल पर नहा धो कर अपनी मंजिल खोजने के लिए तैयार थे। लेकिन जाएं तो जाएं कहॉं? हमारे गंतव्य – कॉलेज़ का तो हमें अता पता ही न था। हम पार्क से बाहर निकले ही थे कि सामने खड़े रिक्शे वाले ने हमें पूछा था – कहॉं जाने का?
“क..क.. कॉ ले ज ..!” मैंने हकलाते हुए उसे गंतव्य बता दिया था।
“चवन्नी लगेगी!” उसने मोल भी बता दिया था।
मैंने अब शिव चरण को प्रश्न वाचक निगाहों से देखा था। वह तनिक खुश हुआ लगा था। कोई तो था जो हमें कॉलेज़ ले जा सकता था – वह शायद सोचे जा रहा था!
“चलते हैं!” शिव चरण ने मंजूरी दी थी।
हम डरते डरते रिक्शे में बैठे थे। कहीं उलट न जाये रिक्शा हमें डर था। कभी इतनी छोटी सी गाड़ी देखी न थी हमने!
सुबह सुबह रिक्शे में बैठ कर यों शहर की सैर करना हमें बेहद भा गया था। घंटी बजाता रिक्शा चालक मचकोले ले ले कर रिक्शा खींच रहा था। शहर की उस भीड़ में चतुराई के साथ रिक्शा चलाता वह हमें एक बेजोड़ आदमी लगा था!
एक भव्य इमारत के सामने रिक्शा रोक कर उसने जब पैसे मांगे थे तो हम समझ गये थे कि यही कॉलेज़ था!
अब मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था। मेरे स्मृति के पटल पर इस इमारत का रूप स्वरूप उभर आया था और यह साक्ष्य था उसकी सत्यता का! हॉं हॉं! यही इमारत थी और इसी इमारत की गोहक में बैठ कर मैंने दादी के दिये स्वादिष्ट लड्डू खाये थे। मुझे याद हो आया था उस जून की दोपहरी का दृश्य जब इसी इमारत को मैंने हसरत भरी निगाहों से देखा था और उसके भीतर डोल आने का मेरा मन हुआ था! लेकिन तब शटर बंद थे! कॉलेज़ की छुट्टियां थीं – वह राज आज समझ में आ गया था। और आज मेरी वही इच्छा पूर्ण होने को थी जो उस दिन हुई थी!
कॉलेज़ की सीढ़ियां चढ़ कर हम दोनों जैसे ही बरांडे में दाखिल हुए थे – हमने एक साथ लगे बोर्ड को पढ़ा था – कांता नाथ गर्ग, प्रिंसिपल! ऑफिस के बाहर स्टूल पर चपरासी बैठा था। हमें लगा था कि हमारी मंजिल हमारे सामने आ खड़ी हुई थी! हम ठिठक कर खड़े रहे थे और जैसे ही चपरासी किसी को बुलाने गया था हम दोनों प्रिंसिपल के ऑफिस में दाखिल हो गये थे!
प्रिंसिपल कांता नाथ गर्ग ने हम दोनों को दो नमूनों की तरह सामने खड़ा देखा था!
“क्या चाहिये ..?” बड़े ही शांत स्वर में उन्होंने हम दोनों से पूछा था।
“एडमीशन!” मैं बोला था और झोले में से निकाल कर मार्क शीट उनके सामने रख दी थी। शिव चरण ने भी मेरा अनुकरण किया था और अपनी मार्क शीट उन्हें थमा दी थी।
अब वो हम दोनों की मार्क शीटों को पढ़ने लगे थे। और हम दोनों खड़े खड़े मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे थे। निर्णायक पल थे और हमारे बीच खड़ी खामोशी हमें खबरदार करती लगी थी।
“मिल जाएगा!” हम दोनों पर निगाहें केंद्रित करते हुए प्रिंसिपल साहब बोले थे।
“सर हमें साइंस लेनी है!” मैंने मौका पाते ही दूसरी मांग भी अड़ा दी थी।
“मिल जाएगी!” उन्होंने कहा था और घंटी बजाई थी।
चपरासी से उन्होंने ललिता प्रसाद को बुलाने के लिए कहा था!
“इनका एडमीशन करा दो!” प्रिंसिपल साहब ललिता प्रसाद को बता रहे थे। “साइंस भी दिला दो!” उनका कहना था। “दोनों पोजीशन होल्डर हैं!” उन्होंने हमें प्रशंसक निगाहों से घूरते हुए ललिता प्रसाद से कहा था और हमारी मार्क शीटें उन्हें पकड़ा दी थीं!
ललिता प्रसाद कॉलेज़ के वाइस प्रिंसिपल थे। उन्होंने हम दोनों का खूब आगत स्वागत किया था और हमारी हर मुराद मान ली थी। हमें होस्टल में कमरा देने की हामी भरते हुए उन्होंने हमें डैम्पीयर में होस्टल में भेजा था और हम वार्डन हीरा लाल अग्रवाल जी से मिल कर गदगद हो गये थे!
हम दोनों ने जैसे किसी अभेद्य किले को बिना कोई तीर चलाए ही भेद दिया था – ऐसा महसूस हुआ था उस दिन!
मथुरा से लौटकर जब मैंने बाजना को उल्लसित ऑंखों से देखा था तो उसने मुंह बिचका कर मुझे ‘भगोड़ा’ कहा था और निगाहें फेर ली थीं!

