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Mumbai

गतांक से आगे :-

भाग -६२

कविता की कैद से आज़ाद हुआ -चन्दन बोस आज खुश-खुश लौट रहा था !!

कमाल ही था ! कविता जानती थी कि अब चन्दन बोस सड़क पर आ जायेगा .. दर-दर की ठोकरें खायेगा .. नौकरी के लिए भीख मांगेगा और शायद .. शायद क्यों बर्बादी थी कित्ती दूर ..? लेकिन आश्चर्य ही था कि उसका मन कमल सा खिल गया था ! कविता के पंजे से मुक्त हुआ चन्दन आज पहली बार शुद्ध हवा का आनंद ले रहा था. बल्लियों कूद रहा था .. और पारुल के मात्र स्मरण से ही खुशियों के अम्बारों से भर गया था !

“आईये ..!” केतकी ने उसका स्वागत किया था. “मै तो सोच बैठी थी के ..”

“मै अब लौटूंगा ही नहीं ..! जंग हार कर .. आत्महत्या कर लूँगा .. और ..”

“नहीं ..! मै सोच रही थी कि .. तुम लौट आते तो ..?” केतकी के तेवर तीखे थे. उसे उम्मीद थी कि हारा-पिटा चन्दन अब उसकी झोली में आ गिरेगा .. टप्प …! और फिर वह .. उसे लपक लेगी और कहेगी – मेरे थे तुम चन्दन ! कविता ने तो तुम्हे हड़प लिया था !”

“अन्दर आओ !” केतकी ने आग्रह किया था.

“नहीं ! चलूँगा ..!!” चन्दन की आवाज संयत थी. “लो .. चाबी !” उसने केतकी को गाड़ी की चाबी दी थी. “थैंक्स .. एनीवे .. !!” उसने कहा था और जीना उतर आया था.

केतकी का कोई कर्जा उसपर था ही नहीं – क्या चुकाता ..?

“एक सौ – नौ नम्बर .. ऊपर वाला कमरा दे दिया है, साब !” केनबरा में उसका स्वागत हुआ था. “आप आराम से रहें ! छत भी है ऊपर. कोई खिट खिट भी नहीं !” रिसेप्शन पर खड़ा मन्नू बता रहा था.

“कॉफ़ी भेजोगे ..?” चन्दन ने सीधी मांग की थी. वह बेदम हो रहा था. सुबह पौने छह बजे का यहाँ से निकला .. अब सात बजे लौट रहा था. पानी तक नसीब न हुआ था. “स्नैक्स हैं ….?” चन्दन ने पूछा था. “हाँ साब टिक्का टोस्ट भेज दूँ ?” उसने पूछा था. “भेज दो !” कहकर चन्दन अपने कमरे में चला गया था.

अच्छा लगा था – आज का एकांत ..!!

एक ओर पुराना पापी – वक्त खड़ा था .. तो दूसरी ओर आने वाला सन्यासी भविष्य था ! आज चन्दन जिंदगी के दो-राहे पर आ खडा हुआ था. उसे बेहद ख़ुशी थी. उसने पुराने पापी से आँख बचा नए सन्यासी से हाथ मिलाया था. वह दौड़कर .. जल्दी से .. अपने नए संसार को पा जाना चाहता था..!

“मेरा सपना तो यही था ..!” चन्दन स्वयं से कह रहा था. “तुम थे कहाँ दोस्त !” उसने अनागत से पूछा था.

कॉफ़ी और स्नैक्स के बाद उसमे जान लौट आई थी. मन के मुताबिक वह नहाने चला गया था. उसके बाद भूख ने हाय-हत्या मचा दी थी तो उसने कमरे में ही खाना मगा लिया था. उसने डटकर खाना खाया था. सदियों के बाद आज वह जी उठा था. आज उसे लगा था कि उसका जन्म आज ही हुआ है ! अब तक तो वह दूसरों की कतारों में खड़ा-खड़ा जीता रहा था !

सो गया था चन्दन बोस ! इतनी गहरी नीद उसे आज सदियों के बाद मोहिया हुई थी.

दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई थी. पारुल चौंक पड़ी थी. कौन हो सकता था – वह अनुमान लगा ही रही थी कि राजन अन्दर चला आया था. बड़ा वक्त गुजर गया था – बिन मिले ! एक बार पारुल पूछने को हुई थी कि .. वो आया कैसे ..? बिना आज्ञा के .. ? लेकिन तभी उसे ध्यान आया था कि राजन उसका पति-पुरुष था .. झूठा .. या…. सच्चा, पर था तो उसका मियां !

“कैसे ..?” पारुल ने औपचारिक प्रश्न पूछा था. राजन खड़ा ही था. वह पारुल के हाव-भाव देखता रह गया था. अब अनुमान लगा रहा था कि – पारुल थी कहाँ..? “वो .. शाम को .. गेस्ट नाईट है !” बड़ी ही विनम्र आवाज में बोला था, राजन ! “मै चाहता था कि .. तुम .. मेरा मतलब कि .. महारानी- काम-कोटि के .. दो शब्द ..?”

“हाँ, हाँ !” पारुल ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था. “पहुँच जाउंगी …!” उसने स्वीकारते हुए कहा था.

राजन और भी कुछ चाहता था. वह बहुत कुछ चाहता था. वह चाहता था – पारुल के साथ उन्ही बहारों को बुलाना .. जिनका वो मुरीद था .. और जिनके लिए वो पागल था ! कामना का फार्मूला उसे भाया न था. स्त्री शरीर को भोगना – भावनाओं से अलग होकर .. बुरा था .. व्यभिचार था .. और शायद पाप भी…..! राजन चाहता था कि .. किसी तरह फिर से पारुल के साथ प्यार हो जाये तो ..? लेकिन पारुल की निगाहें कहीं दूर जा चुकीं थीं. वह लौटा था .. रीता-थोथा यूँ ही के भाव में गुमसुम हुआ चला आया था …..!

क्या था ..? राजन जानना चाहता था ! उसे शक था कि…. वो जादूगर चन्दन ही शायद कोई टोना कर गया है .. कोई गोली दे गया है .. जिसके स्पर्श से पारुल बावली हो गई है ! कष्ट हुआ था, राजन को. उसने चाहा था कि चन्दन को एक बुराई की तरह जड़ से उखाड़ फेंके .. और अपनी पारुल को पा ले ……!

बहुत बिछोह .. विद्रोह .. क्रोध और घृणा के बाद उसे एक आशा-किरण दिखाई दी थी. ‘खोटा सिक्का’ उसने प्रसन्नता पूर्वक कहा था. ‘संभव …!!’ उसने नाम लेकर पुकारा था – खोटे सिक्के को. “जरुर उसके पास चन्दन का अता-पता होगा !” राजन मान गया था. “जरुर उसके पास कोई तोड़ भी होगा……!!” वह सोच रहा था. “बिकाऊ है ! काम करेगा तो …? राजन का अपना मत था.

“कौन सा पहाड़ टूटा ..?” संभव ने सीधा राजन से पूछा था. “तुम तो घोड़े हो ..! फलांग जाओ .. नदी नाले ..!! तुम्हे क्या लगता है, प्यारे ..!”

“मजाक नहीं, संभव ….!” राजन का स्वर गंभीर था. “मै .. सीरियसली मुश्किल में हूँ ….!” उसने कहा था. “सोचा – तुमसे राय ले लूँ ..”

“जरुर .. पारुल के बारे में होगी ….?” संभव ने बात को ताड़ते हुए पूछा था.

“हाँ ..!” राजन भी कुछ छुपाना न चाहता था. “जब से वो .. वो .. चन्दन, शायद तुम जानते हो,….. शायद उसे !” राजन ने बात का छोर पकडाया था – संभव को. “वो आया था. रहा भी था. उसके जाने के बाद से .. पारुल ..”

एक लम्बा सन्नाटा फ़ोन पर सायं-सायं करता रहा था. संभव शायद कुछ सोच रहा था .. अनुमान लगा रहा था .. शायद ! शायद – उसे इस विपत्ति का पहले से ही भान था – राजन सोच रहा था.

“अरे ..!” संभव की आवाज गूंजी थी. “क्या, राजन !” संभव ने उल्हाना दिया था. “तुम उस चन्दन को .. मगरमच्छ समझ बैठे हो !” वह जोरों से हंसा था. “हा..! हा…! हा ..! कुच्छ नहीं है – वो !” उसने स्पष्ट कहा था. “एक बहुरुपिया है ! यूँ ही मारता- खाता रहता है ! उसकी बीबी – कविता उसे जूते पर रखती है. घर जमाई जो ठहरा !” संभव ने राजन को हल्का कर दिया था. “राई का पहाड़ मत बनाओ, भाई ! डीगा खा जाओगे …!!” संभव ने उसे चेतावनी दी थी.

राजन को होश आ गया था. वह तनिक प्रसन्न हुआ था – उसने शाम को शो से आती पारुल को प्रसन्न करने के लिए मुकम्मल बंदोबस्त किया था. वह स्वयं भी आज खूब सज-धज कर शो कंडक्ट कर रहा था.

“विचित्र लोक – जैसा .. विचित्र और विशाल कैसिनो .. आज पूरे विश्व में नहीं है !” पारुल की मधुर आवाज गूंजी थी. एकत्रित जुआरियों के तन-मन खिल उठे थे. उनकी निगाहें पारुल पर टिकी थीं. “और .. हमारे .. राजन साहब जैसा पत्तों का जादूगर भी आपको ढूंढे न मिलेगा …!” पारुल तनिक हंसी थी. राजन का हौंसला बुलंद हो गया था. “मेरी शुभकामनायें – जीतें .. जीतें .. और जीतते ही रहें ….!” तालियाँ बज उठीं थीं.

राजन अपने पत्तों के साथ उलझा था …..!

गप्पा का फोन आ रहा था. आता ही जा रहा था. जरुर कुछ था. पारुल को एकांत चाहिए था. वह विचित्र लोक से चली आई थी.

“हाँ ..! क्या पहाड़ टुटा ..?” झल्लाकर पारुल ने पूछा था. “तुम नहीं .. दम लेने देतीं ….!” उसने गप्पा को कोसा था. “कुछ खुद भी तो किया करो ..!” डांट दिया थाम, पारुल ने.

“पर मेम ..!” गप्पा की आवाज कट रही थी. “पर .. वो वो .. बैंक ..!” गप्पा रुकी थी.

“क्या हो गया बैंक को……?”

“वो .. प-ई-सा .. एक सौ करोड़ ….?” गप्पा का स्वर आश्चर्य में गर्क था. “आपने .. भेजा ..?” उसने पूछा था.

“ओह ..!!” एक लम्बी सांस रित गई थी – पारुल के हिये से. “ओह गॉड…!!” उसने मन में ही इश्वर का स्मरण किया था. “ठीक है, गप्पा !” पारुल ने स्वर साध कर कहा था. “वो अपना था ! ठीक है …..!!” पारुल ने फोन काट दिया था. वह न चाहती थी कि इस पैसे की कोई भी, कैसी भी सुगंध काम-कोटि तक पहुंचे.

रात का अवसान था ! कहाँ थी नीद, आँखों में ..!! पारुल तो एक जलते ज्वालामुखी पर आ बैठी थी. जो .. शायद था, वो .. अब सच था ! जो सपना था, वो – अब यथार्थ था …!! जो आज था – वो अब हो चुका था. कैसे करे उसका स्वागत ..? अकेले ..? नहीं, नहीं ! वह चन्दन से कुछ न छुपाएगी ! वह .. चन्दन की होकर चलेगी. वह चन्दन ..

चन्दनमय हुई पारुल उस सौ करोड़ की प्राप्ति की खबर को उँगलियों में थामे बहुत देर तक अकेली खड़ी रही थी ! फिर उसने चन्दन को ही पुकारा था .. फ़ोन मिलाया था चन्दन को .. उत्तर आने की प्रतीक्षा में सूखने लगी थी – वह …!

लेकिन कोई उत्तर ही नहीं आ रहा था ..!!

“क्या हुआ .. परमात्मा ..?” अचानक पारुल ने परमेश्वर को पुकार लिया था.

और अचानक ही चन्दन की आवाज आई थी.

“हाँ, हाँ !! क्या हुआ ..?” चन्दन गरजा था.

“सो रहे हो ..?” पारुल बिगड़ी थी. “वो देखो ! क्या हुआ है ..?”

“हुआ क्या है ..?” चन्दन ने पूछा था.

“वो .. सौ करोड़ .. बैंक में ..” पारुल ने बता दिया था.

“थैंक, गॉड……!!” चन्दन बिस्तर से उठ बैठा था. “बम्बई आ जाओ .. आज ही .. अभी ..!” वह चिल्ला रहा था.

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा

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